Sunday, December 18, 2011

पत्रकारिता में मानदंडों का अभाव- सच्चिदानंद हीरानंद वात्साययन अज्ञेय

पत्रकारिता की विधा को साहित्य के अंतर्गत माना जाता है। पत्रकारिता को तात्कालिक साहित्य की भी संज्ञा दी गई है। यही कारण है कि समय-समय पर विभिन्न साहित्यकारों ने पत्रकारिता में अपना योगदान और पत्रकारों को मार्गदर्शन देने का कार्य किया। ऐसे ही व्यक्तित्व थे, सच्चिदानंद हीरानंद वात्साययन अज्ञेय जिन्होंने साहित्य और पत्रकारिता दोनों में ही समान रूप से अपना योगदान दिया। अज्ञेय ने ‘दिनमान‘ पत्रिका के संपादक के रूप में पत्रकारिता में नए मानदंड स्थापित किए। शायद यही कारण था कि अज्ञेय पत्रकारों एवं संपादकों के कार्य एवं उत्तरदायित्व को लेकर चिंतित रहे। अज्ञेय ने संपादकों की कम होती प्रतिष्ठा के लिए संपादकों को ही जिम्मेदार ठहराया था। अपनी चिंता को अज्ञेय ने इन शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा कि-

‘‘हिन्दी पत्रकारिता के आरंभ के युग में हमारे पत्रकारों की जो प्रतिष्ठा थी, वह आज नहीं है। साधारण रूप से तो यह बात कही जा सकती है, अपवाद खोजने चलें तो भी यही पावेंगे कि आज का एक भी पत्रकार या संपादक वह सम्मान नहीं पाता जो कि पचास-पचहत्तर वर्ष पहले के अधिकतर पत्रकारों को प्राप्त था। आज के संपादक पत्रकार अगर इस अंतर पर विचार करें तो स्वीकार करने को बाध्य होंगे कि वे न केवल कम सम्मान पाते हैं, बल्कि कम सम्मान के पात्र हैं- या कदाचित सम्मान के पात्र बिल्कुल नहीं हैं, जो पाते हैं पात्रता से नहीं इतर कारणों से।‘‘ (‘आत्मपरक‘ से साभार उद्धृत)

अज्ञेय ने संपादक के रूप में बहुत ख्याति प्राप्त की थी, उनके अपने निश्चित मानदंड थे, जिससे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। अज्ञेय ने अपने पत्रकार जीवन की शुरूआत ‘‘सैनिक‘‘ से की थी अज्ञेय 1 वर्ष तक ‘‘सैनिक‘‘ के संपादक मंडल में रहे। जिसके पश्चात वे ‘‘विशाल भारत‘‘ में डेढ़ वर्ष तक रहे। सन् 1947 में अज्ञेय ने साहित्यिक त्रैमासिक ‘‘प्रतीक‘‘ निकाला। इस पत्र में उन्होंने उदीयमान साहित्यकारों को स्थान दिया। अज्ञेय के उत्कृष्ट संपादन का ही परिणाम था कि ‘‘प्रतीक‘‘ का स्तर कभी गिरा नहीं। सन् 1965 में अज्ञेय जी ने साप्ताहिक ‘‘दिनमान‘‘ का संपादन आरंभ किया। यह कार्य उन्होंने उस समय में प्रारंभ किया जब उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं चल रहा था, परंतु उनका पत्रकार मन ‘‘दिनमान‘‘ को सफलता की ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए व्याकुल था। उनके संपादन में ‘‘दिनमान‘‘ ने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की। इसका कारण शायद अज्ञेय जी की संपादन नीति ही थी जिससे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उनके अपने निश्चित मानदंड थे जिन पर वे कार्य करते थे। उन्होंने संपादकों एवं पत्रकारों को भी मानदंडों पर चलने को प्रेरित किया। नीतिविहीन कार्य को ही उन्होंने पत्रकारों एवं संपादको की घटती प्रतिष्ठा का कारण बताया था। उन्होंने कहा कि-

‘‘अप्रतिष्ठा का प्रमुख कारण यह है कि उनके पास मानदंड नहीं है। वहीं हरिशचन्द्रकालीन संपादक-पत्रकार या उतनी दूर ना भी जावें तो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का समकालीन भी हमसे अच्छा था। उसके पास मानदंड थे, नैतिक आधार थे और स्पष्ट नैतिक उद्देश्य भी। उनमें से कोई ऐसे भी थे जिनके विचारों को हम दकियानूसी कहते, तो भी उनका सम्मान करने को हम बाध्य होते थे। क्योंकि स्पष्ट नैतिक आधार पाकर वे उन पर अमल भी करते थे- वे चरित्रवान थे।‘‘ (‘आत्मपरक‘ से साभार उद्धृत)

अज्ञेय जी का मानना था कि पत्रकार अथवा संपादक को केवल विचार क्षेत्र में ही बल्कि कर्म के नैतिक आधार के मामले में भी अग्रणी रहना चाहिए। भारतीय लोगों पर उन व्यक्तियों का प्रभाव अधिक पड़ा है जिन्होंने जैसा कहा वैसा ही किया। ‘‘पर उपदेष कुशल बहुतेरे‘‘ की परंपरा पर चलने वाले लोगों को भारत में अपेक्षाकृत कम ही सम्मान मिल पाया है। संपादकों एवं पत्रकारों से कर्म क्षेत्र में अग्रणी रहने का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा कि-

‘‘आज विचार क्षेत्र में हम अग्रगामी भी कहला लें, तो कर्म के नैतिक आधारों की अनुपस्थिति में निजी रूप से हम चरित्रहीन ही हैं और सम्मान के पात्र नहीं हैं।‘‘ (‘आत्मपरक‘ से साभार उद्धृत)

सच्चिदानंद हीरानंद वात्साययन अज्ञेय उन पत्रकारों में से थे जिन्होंने पत्रकारिता में साहित्य के कलेवर को स्थान दिया। उन्होंने साहित्यिक और गैर-साहित्यिक पत्रकारिता में भी सक्रिय महत्वपूर्ण योगदान दिया। हिन्दी पत्रकारिता में साहित्यिक पत्रकारिता की कम होती भूमिका के प्रति वे सदैव चिंतित रहे। उन्होंने कहा था-

‘‘हिंदी पत्रकारिता में बहुत प्रगति हुई है, परंतु साहित्यिक पत्रकारिता में उतनी नहीं हुई है।‘‘

अज्ञेय पत्रकारिता को विश्वविद्यालय से भी महत्वपूर्ण और ज्ञानपरक मानते थे। इसका एक उदाहरण है जब योगराज थानी पीएचडी करने में लगे हुए थे, तब अज्ञेय जी ने उनसे कहा कि-

‘‘पत्रकारिता का क्षेत्र विश्वविद्यालय के क्षेत्र से बड़ा है, आप पीएचडी का मोह त्यागिए और इसी क्षेत्र में आगे बढि़ए।‘‘
अज्ञेय ने पत्रकारिता और साहित्य में विभिन्न मानदंड स्थापित किए। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना द्वारा लिए गए साक्षात्कार का हवाला देना यहां प्रासंगिक होगा, जिसमें उन्होंने कहा-

‘‘मैं समझता रहा हूं कि साहित्यकार को समय-समय पर अपना महत्वपूर्ण अभिमत प्रकट करना चाहिए, परंतु अपने साहित्यिक व्यक्तित्व का ऐसा सामाजिक उपयोग होने देने में उसे दलबंदी से बचना चाहिए क्योंकि बिना इसके वह अपने निजी उत्तरदायित्व से स्खलित हो जाता है।‘‘

अज्ञेय जी वे पत्रकार थे जिन्होंने पत्रकारिता में साहित्य के सरोकारों को महत्वपूर्ण स्थान दिया। अज्ञेय ने पत्रकारिता में जो पदचिन्ह् स्थापित किए वे आज भी पत्रकार समाज के लिए मार्गदर्शन स्वरूप हैं। आज जब पत्रकारिता के आत्मावलोकन का मुद्दा एक बार फिर खड़ा हो गया है, ऐसे समय में अज्ञेय की पत्रकारिता और उनके मूल्य पत्रकारिता को नैतिक राह दिखाने का कार्य करते हैं।

Sunday, December 4, 2011

अभी न जाओ छोड़कर, दिल अभी भरा नहीं…


मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया,

हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।

जिंदादिली से जिंदगी का साथ निभाने वाले सदाबहार अभिनेता देव आनंद का जिंदगी ने साथ छोड़ दिया। सदाबहार अभिनेता, फिल्म निर्माता और निर्देशक देव आनंद का शनिवार रात लंदन में हृदय गति रूकने से निधन हो गया। वे 88 वर्ष के थे। रविवार की सुबह उनके देहांत की खबर सुनते ही बॉलीवुड और उनके प्रशंसकों के बीच शोक की लहर दौड़ गई।

पद्मभूषण और दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित देव आनंद ने अपने फिल्मी कैरियर की शुरूआत सन 1946 में प्रभात टॉकीज की फिल्म हम एक हैं से की। यह फिल्म बहुत सफल नहीं हो पाई। इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी दोस्ती अपने जमाने के सुपर स्टार गुरूदत्त से हो गई। देव साहब को फिल्मी दुनिया में कामयाबी के लिए बहुत इंतजार नहीं करना पड़ा। बॉम्बे टॉकीज की 1947 में रिलीज फिल्म जिद्दी में उन्हें मुख्य भूमिका प्राप्त हुई यह फिल्म एक सफल फिल्म साबित हुई। जिद्दी की सफलता के बाद देव साहब ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।

सन 1949 में देव आनंद ने नवकेतन के नाम से अपनी एक फिल्म कंपनी बनाई और देव साहब फिल्म निर्माता बन गए। देव आनंद साहब ने अपने मित्र गुरूदत्त का डायरेक्टर के रूप में सहयोग लिया और बाजी फिल्म बनाई जो सन 1951 में रिलीज हुई। इस फिल्म को अपार सफलता प्राप्त हुई, बाजी देव साहब के फिल्मी कैरियर में मील का पत्थर साबित हुई जिसकी सफलता ने उन्हें हिंदी सिनेमा का सुपरस्टार बना दिया।

इसके बाद उनकी कुछ और सफल फिल्में आईं जिनमें राही और आंधियां प्रमुख फिल्में थीं। इसके बाद आई टैक्सी ड्राइवर जो बहुत सफल फिल्म साबित हुई, इस फिल्म में उनके साथ मुख्य भूमिका में थीं कल्पना कार्तिक जिनसे आगे चलकर उनका विवाह हो गया। यह वह समय था जब फिल्मी दुनिया के शोमैन कहे जाने वाले राजकपूर अपने कैरियर की ऊंचाईयों पर थे। राजकपूर के सामने अपने को स्थापित कर पाना बहुत मुश्किल था, लेकिन देव आनंद ने एक अभिनेता रूप में खुद को स्थापित ही नहीं किया बल्कि सुपर स्टार बन गए।

इसके बाद उनकी लगातार कई हिट फिल्में रिलीज हुईं जैसे- मुनीम जी, सीआईडी, पेइंग गेस्ट, इंसानियत और काला पानी जिनको उस समय की सफलतम फिल्मों में शुमार किया जाता है। फिल्म काला पानी के लिए देव साहब को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाजा गया। इसके बाद उनके जीवन में उस समय की मशहूर अभिनेत्री सुरैय्या का आगमन हुआ जो देव साहब से विवाह करना चाहती थीं। सुरैय्या की दादी धार्मिक कारणों से इस रिश्ते के खिलाफ थीं, कहा जाता है कि देव साहब से शादी न हो पाने के कारण सुरैय्या आजीवन अविवाहित ही रहीं। देव साहब ने सुरैय्या और अपने रिश्ते के बारे में सन 2007 में लोकार्पित हुई अपनी आत्मकथा रोमासिंग विद लाइफ में भी स्वीकार किया है।

रंगीन फिल्मों की बात की जाए तो देव साहब की पहली रंगीन फिल्म सन 1965 में रिलीज हुई गाइड थी, जिसने सफलता के नए आयाम स्थापित किए। आर. के. नारायणन के उपन्यास पर आधारित फिल्म गाइड के बारे में कहा जाता है कि अब दुबारा गाइड कभी नहीं बन सकती, ऐसी फिल्में एक बार ही बनती हैं। इसके बाद उनकी कई सफल फिल्में आईं जो हिंदी सिनेमा की सफल फिल्मों में शुमार की जाती हैं जैसे- ज्वेल थीफ, जॉनी मेरा नाम, हरे राम हरे कृष्णा, देस परदेस आदि।

देव आनंद साहब की फिल्मों को उनके बेहतरीन संगीत की वजह से भी याद किया जाता है। उनकी सभी फिल्मों का संगीत अपने समय में हिट साबित हुआ। उनकी हिट फिल्में और बेहतरीन संगीत सदा हमारे बीच उनकी यादों के रूप में रहेगा। भारतीय सिनेमा में अभिनेता के रूप में अपनी अलग पहचान बनाने वाले सुपरस्टार अभिनेता और एक जिंदादिल इंसान देव साहब का देहांत सिनेप्रमियों को आहत करने वाला है। उनकी ही फिल्म हम दो के सदाबहार गाने के इन शब्दों के साथ देव साहब को श्रद्धांजलि।

अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं…

Tuesday, November 29, 2011

एफडीआई बढ़ाने का आत्मघाती कदम

भारत विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। भारत की युवा आबादी विश्व में सबसे अधिक है। इसी कारण से भारत में अन्य देशों के मुकाबले रोजगार सृजन की अधिक आवश्यकता है। हमारे देश में वे उद्योग जो उपयुक्त पूंजी और श्रम के माध्यम से संचालित हो सकते हैं, वे हमारी जनसंख्या को रोजगार के भी अधिक अवसर देते हैं। बजाय उन उद्योगों और व्यवसाय के जो पूर्णतया मशीनों और पूंजी पर आधारित उद्योग हैं। पूंजी और मशीन आधारित उद्योगों में श्रम शक्ति के बजाय पूंजी की प्रधानता हो जाती है।

वर्तमान में जहां यूरोपीय देशों और अमेरिका में आर्थिक मंदी का प्रभाव बढ़ रहा है, जिसका कुछ असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है। भारत सरकार ने भी देश की अनुमानित विकास दर में कमी रहने की आशंका जताई है। शायद इस आर्थिक गतिरोध से उबरने के लिए ही सरकार ने खुदरा बाजार में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश का पैंतरा चला है। सरकार अपने इस कदम से चैतरफा आलोचनाओं के घेरे में आ गई है। सरकार के सहयोगी तथा विपक्षी दलों ने इस मामले में सड़क से लेकर संसद तक आंदोलन किए जाने की चेतावनी दी है।

सवाल यह है कि क्या खुदरा बाजार में विदेशी निवेश से भारतीय अर्थव्यवस्था को गति मिल पाएगी और क्या भारत में बेरोजगारी में कमी आ पाएगी? इसका जवाब सकारात्मक नहीं मिलता है। भारत का 3,82,000 करोड़ का खुदरा बाजार जो सकल घरेलू उत्पाद में 14 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है और 8 प्रतिशत लोगों को आजीविका प्रदान करता है। इस खुदरा बाजार में यदि विदेशी निवेश को 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 51 प्रतिशत कर दिया गया तो खुदरा बाजार के वैश्विक खिलाड़ी देशी लोगों को बेरोजगारी की ओर धकेलने का कार्य करेंगे।

भारतीय खुदरा बाजार में संगठित क्षेत्र की 2 प्रतिशत हिस्सेदारी है, वहीं असंगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी 98 प्रतिशत है। असंगठित क्षेत्र में अधिकतर वही लोग कार्यरत हैं, जिन्हें संगठित क्षेत्र में रोजगार का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। इसके अलावा वे लोग जो अकुशल श्रमिक की श्रेणी में आते हैं, वे भी खुदरा बाजार में ही कार्य कर रहे हैं। रोजगार के मामले में हताश युवा कम पूंजी के माध्यम से चल सकने वाली कोई छोटी सी दुकान अथवा पान-बीड़ी खोखे के माध्यम से स्वरोजगार को अपनाता है। यही छोटा सा धंधा उसकी आजीविका का साधन बनता है, जिसे सरकार विदेशी निवेश के माध्यम से छीन लेना चाहती है।

फिक्की के अनुसार खुदरा बाजार का संगठित क्षेत्र 5 लाख लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान करता है। वहीं असंगठित क्षेत्र के माध्यम से 3.95 करोड़ लोग खुदरा बाजार में कार्यरत हैं। विदेशी निवेश का अर्थ है इतनी बड़ी आबादी का बेरोजगार हो जाना। सरकारी तर्क है कि विदेशी निवेश के बाद रोजगार के अवसरों में और बढ़ोत्तरी होगी, लेकिन वालमार्ट जैसी विशालकाय खुदरा कंपनियों का स्वभाव रोजगार सृजन का नहीं है। इन विशालकाय रिटेल स्टोरों में वही लोग कार्य कर पाएंगे जो मार्केटिंग के फॉर्मूले में प्रशिक्षित होंगे। अर्थात वहां उन अकुशल श्रमिकों के लिए कोई स्थान नहीं होगा, जो खुदरा बाजार में असंगठित क्षेत्र के माध्यम से स्वरोजगार कर रहे थे। गौरतलब है कि भारतीय खुदरा बाजार में 98 प्रतिशत हिस्सेदारी असंगठित क्षेत्र की है।

यदि असंगठित क्षेत्र में कार्यरत लोग बेकार हो जाते हैं तो उनको सरकार कहां खपाएगी इसका कोई एजेंडा सरकार के पास नहीं है। लगता है सरकार आम आदमी को खुशहाल एवं स्वरोजगार में कार्यरत नहीं देखना चाहती, बल्कि उन्हें मनरेगा का मजदूर बनाना चाहती है। विदेशी कंपनियों में कार्यरत कुछ लोग जहां बेहतर पैकेज से खुशहाल होंगे, वहीं देश का बहुजन और आमजन बेरोजगारी और गरीबी से त्रस्त। देश के आम आदमी को मनरेगा का मजदूर और विदेशी कंपनियों को मालामाल करने की आत्मघाती नीति से सरकार को अपने कदम वापस खींच लेने चाहिए।

Monday, November 28, 2011

हिंदी पत्रकारिता के उन्नायक मदन मोहन मालवीय

पंडित मदन मोहन मालवीय। एक देशभक्त, लोकप्रिय शिक्षक, विद्वान राजनीतिज्ञ, प्रखर वक्ता, उच्च कोटि के वकील और हिंदी पत्रकारिता के उन्नायक। जिनका नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। महामना के नाम से लोकप्रिय रहे मालवीय जी ने देश की स्वतंत्रता के आंदोलन को गति प्रदान की। देश में अंग्रेजों के अत्याचारी शासन के विरूद्ध जनता को जागृत करने का कार्य मालवीय जी ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से किया। जनता की जागरूकता ही आंदोलनों की पृष्ठभूमि तैयार करने का कार्य करती है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए मालवीय जी ने पत्रकारिता के माध्यम से जनचेतना और जनशिक्षण का कार्य किया था।

पंडित मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसंबर, 1861 को इलाहाबाद में हुआ था। पिता पंडित ब्रजनाथ संस्कृत के प्रकांड विद्वान और कथावाचक थे। मदन मोहन मालवीय को पिता से विद्वता और माता से सच्चरित्रता जैसे गुण विरासत में मिले थे, जिनका प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा। महामना ने अनेक कार्यों के माध्यम से राष्ट्र सेवा की, जिसमें पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान है।

पंडित मदन मोहन मालवीय
को हिंदी पत्रकारिता का उन्नायक माना जाता है। जिन्होंने भारतेंदु हरिशचन्द्र के जाने के बाद हिंदी पत्रकारिता में उपजे शून्य को समाप्त किया। सन् 1887 में प्रयाग के निकट कालाकांकर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र ‘हिंदोस्थान‘ के वे संपादक बने। संपादक का दायित्व उन्होंने हनुमत प्रेस के संस्थापक राजा रामपाल के आग्रह पर संभाला था।

उन्होंने अपने स्वाभिमान और पत्रकारिता के कर्तव्यों के साथ कभी भी समझौता नहीं किया। राजा रामपाल द्वारा संपादक बनने के आग्रह पर उन्होंने राजा साहब के समक्ष दो शर्तें रखीं। वे शर्तें इस प्रकार थीं, कि आप कभी भी मेरे कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और नशे की हालत में मुझे कभी मिलने के लिए नहीं बुलाएंगे। राजा रामपाल ने मालवीय जी की इन शर्तों को सहर्ष मान लिया, जिसके बाद ही महामना ने संपादक का दायित्व संभालने की स्वीकृति दी। महामना ने ‘हिंदोस्थान‘ समाचार पत्र को नई ऊंचाईयां प्रदान कीं।

मालवीय जी के संपादकीय सहयोगी तत्कालीन समय के प्रतिष्ठित विद्वान और भाषाविद् थे। जिनमें प्रताप नारायण मिश्र, बाबू शशिभूषण, बालमुकुंद गुप्त आदि प्रमुख थे। महामना के संपादन में ‘हिंदोस्थान‘ समाचार पत्र देश का लोकप्रिय पत्र बन गया। तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक स्थितियों पर उनके लेख व संपादकीय टिप्पणियां लोगों को बहुत भाती थीं। मालवीय जी ने समाचार पत्रों की पत्रकारिता में एक नवीन प्रयोग किया, उन्होंने ‘हिंदोस्थान‘ में गांवों की समस्याओं और समाचारों को भी स्थान दिया। ग्रामीण समस्याओं और विकास के समाचारों को पत्रों में स्थान देने का आरंभ मालवीय जी ने ही किया था। इसके बाद से यह विषय हिंदी समाचार पत्रों के महत्वपूर्ण अंग बन गए।

मालवीय जी ने ढाई वर्षों तक निरंतर ‘हिंदोस्थान‘ के संपादक का दायित्व संभाला। लेकिन एक दिन राजा रामपाल ने महामना को नशे की हालत में किसी विषय पर परामर्श के लिए बुलवाया। राजा साहब से मिलते ही मालवीय जी ने नशे में उनको न बुलाने की शर्त याद दिलाते हुए कहा कि अब मैं एक पल भी यहां नहीं ठहर सकता। राजा साहब ने उनको बहुत मनाया लेकिन वे अपने निर्णय से नहीं डिगे। 1889 में मालवीय जी ने ‘हिंदोस्थान‘ समाचार पत्र को छोड़ दिया।

‘हिंदोस्थान‘ छोड़ने के बाद महामना प्रयाग आ गए और उस समय के प्रसिद्ध अंग्रेजी पत्र ‘इंडियन ओपीनियन‘ से जुड़े। कुछ समय पश्चात् ‘इंडियन ओपीनियन‘ का लखनऊ से प्रकाशित होने वाले पत्र ‘एडवोकेट‘ में विलय हो गया। विलय के पश्चात् भी मालवीय जी ‘एडवोकेट‘ से जुड़े रहे, इसी दौरान उन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई शुरू कर दी। मालवीयजी ने सन् 1891 में एल.एल.बी की परीक्षा उत्तीर्ण की और जिला न्यायालय में वकालत करने लगे। सन् 1893 में उन्हें उच्च न्यायालय में वकालत करने का मौका मिला। उच्च न्यायालय में वकालत करते हुए भी मालवीय जी लेखन के माध्यम से समाचार पत्रों से जुड़े रहे। मालवीय जी की सदैव ही यह आकांक्षा रही थी कि अपने प्रयास से समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया जाए।

सन् 1907 में बसंत पंचमी के दिन हिंदी पत्रकारिता ने नया उदय देखा। यह उदय मालवीय जी के समाचार पत्र ‘अभ्युदय‘ के रूप में हुआ था, यह पत्र साप्ताहिक था। मालवीय जी ने ‘अभ्युदय‘ के लिए लिए जो संपादकीय नीति तैयार की थी, उसका मूल तत्व था स्वराज। महामना ने ‘अभ्युदय‘ में ग्रामीण लोगों की समस्याओं को महत्वपूर्ण स्थान दिया था। जिसका उदाहरण ‘अभ्युदय‘ के पृष्ठों पर लिखा यह वाक्य था- ‘कृपा कर पढ़ने के बाद अभ्युदय किसी किसान भाई को दे दीजिए‘।

मालवीय जी की पत्रकारिता का ध्येय ही राष्ट्र की स्वतंत्रता था, जिसके लिए वे जीवनपर्यंत प्रयासरत रहे। उन्होंने ‘अभ्युदय‘ में कई क्रांतिकारी विशेषांक प्रकाशित किए। इनमें ‘भगत सिंह अंक‘‘सुभाष चंद्र बोस‘ विशेषांक भी शामिल हैं। जिसके कारण ‘अभ्युदय‘ के संपादक कृष्णकांत मालवीय को जेल तक जाना पड़ा, ‘अभ्युदय‘ के क्रांतिकारी लेखों में मालवीय जी की छाप दिखाई पड़ती थी।

गांवों से संबंधित विषयों को समाचार पत्र में स्थान देने के अलावा लेखकों को मानदेय देने का प्रचलन भी मालवीय जी ने ही प्रारंभ किया था। ‘अभ्युदय‘ में प्रकाशित पं महावीर प्रसाद द्विवेदी के लेख के साथ ही उन्होंने लेखकों को मानदेय देने की शुरूआत की थी। उनका यह कार्य इसलिए भी प्रशंसनीय था क्योंकि उस समय ‘अभ्युदय‘ की आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी।

मालवीय जीने‘अभ्युदय‘के पश्चात् 24 अक्टूबर, 1910 को अंग्रेजी पत्र ‘लीडर‘ का प्रारंभ किया। मालवीय जी ‘लीडर‘ के प्रति सदा संवेदनशील रहे, डेढ़ वर्ष बीतते-बीतते ‘लीडर‘ घाटे की स्थिति में जा पहुंचा। महामना उस दौरान काशी हिंदू विश्वविद्यालय के लिए धन एकत्र करने में लगे हुए थे, जब ‘लीडर‘ के संचालकों ने मालवीय जी को घाटे की स्थिति से अवगत कराया तो वे विचलित हो उठे। उन्होंने कहा कि, ‘‘मैं लीडर को मरने नहीं दूंगा।‘‘ काशी विश्वविद्यालय की स्थापना का कार्य बीच में ही रोककर मालवीय जी ‘लीडर‘ के लिए आर्थिक व्यवस्था के कार्य में जुट गए। पहली झोली उन्होंने अपनी पत्नी के आगे यह कहते हुए फैलाई कि ‘‘यह मत समझो कि तुम्हारे चार ही पुत्र हैं। दैनिक लीडर तुम्हारा पांचवां पुत्र है। अर्थहीनता के कारण यह संकट में पड़ गया है। तो क्या मैं पिता के नाते उसे मरते हुए देख सकता हूं।‘‘ मालवीय जी के अथक प्रयासों से लीडर बच गया। मालवीय जी ने पत्रकारिता में नए प्रयोग किए और पत्रकारिता को नए आयामों पर पहुचाया। 12 नवंबर, 1946 को महामना मदन मोहन मालवीय को मालवीय जी ने अपने प्राण त्याग दिए, परंतु उनकी स्मृतियां और उनके आदर्श सदैव पत्रकारिता जगत में विद्यमान रहेंगे।

Saturday, November 12, 2011

मीडिया पर नहीं, मीडिया मुग़लों पर हो नियंत्रण

पूर्व न्यायाधीश और भारतीय प्रेस परिषद के वर्तमान अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने मीडिया को भी लोकपाल के दायरे में लाए जाने की राय व्यक्त की है। काटजू के इस बयान को लेकर मीडिया में हलचल है, लोकपाल के दायरे में लाए जाने का कुछ लोग विरोध कर रहे हैं तो कुछ समर्थन। मार्कंडेय काटजू की टिप्पणी मीडिया की स्वनियंत्रण की दलील के परिप्रेक्ष्य में है। काटजू ने कहा कि ‘‘सेल्फ रेगुलेशन कोई रेगुलेशन नहीं है और न्यूज ऑर्गनाईजेशन प्राइवेट संस्थान हैं जिनके काम का लोगों पर गहरा असर होता है, उन्हें जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए।“

इससे पहले काटजू पत्र के माध्यम से (ब्राडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन) के सचिव एन.के सिंह से भी यह सवाल कर चुके हैं कि क्या न्यूज ब्राडकास्टर लोकपाल के दायरे में आना चाहते हैं। उन्होंने कहा- ‘‘मैं जानना चाहता हूं कि ब्राडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन, जिसके आप सचिव हैं लोकपाल के दायरे में आना चाहते हैं, जिसके संसद के अगले सत्र में पारित होने की संभावना है? ऐसा लगता है कि आप प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के दायरे में आने से कतरा रहे हैं तो क्या आप लोकपाल के दायरे में भी नहीं आना चाहते हैं।‘‘ काटजू ने मीडिया की स्वनियंत्रण के अधिकार पर हमला करते हुए कहा कि ‘‘आप स्वनियंत्रण के अधिकार की मांग करते हैं। क्या आपको याद दिलाना पडे़गा कि इस तरह का निरंकुश अधिकार हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को भी हासिल नहीं है।

काटजू ने लिखा कि ‘‘वकील बार काउंसिल के नियंत्रण में हैं और किसी भी पेशेवर कदाचार के लिए उनके लाइसेंस को रद्द किया जा सकता है। इसी तरह, डाक्टरों पर मेडिकल काउंसिल की नजर होती है और चार्टर्ड अकाउंटेंट पर चार्टर्ड की... इत्यादि। फिर क्यों आपको लोकपाल या किसी भी दूसरी रेगुलेटरी अथारिटी के नियंत्रण में आने से एतराज है।“

काटजू ने लिखा कि ‘‘हाल ही में मीडिया ने अन्ना के आंदोलन का व्यापक प्रचार किया। अन्ना हजारे की भी यही तो मांग थी कि नेता, नौकरशाही एवं जजों सभी को जनलोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए। आखिर किस आधार पर लोकपाल के दायरे में आने से छूट पाना चाहते हैं?‘‘

काटजू ने कड़ी टिप्पणी करते हुए लिखा कि ‘‘स्वनियंत्रण की दलील तो नेता और नौकरशाह आदि भी देंगे। कहीं आप खुद को ‘दूध के धुले‘ होने का दावा तो नहीं करते कि आप पर खुद के अलावा किसी का भी नियंत्रण न हो? यदि ऐसा है तो पेड न्यूज और राडिया टेप क्या था?‘‘

भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष की यह टिप्पणी कठोर जरूर है परंतु विचारपूर्ण भी है। हालांकि मीडिया जगत में उनकी इस टिप्पणी की कड़ी आलोचना भी हुई है, जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक ने उनकी टिप्पणी को ‘‘मीडिया पर नियंत्रण की अनियंत्रित सलाह‘‘ करार दिया। काटजू की यह सलाह व्यावहारिक रूप से मीडिया पर लागू करना उस पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण कहा जा सकता है, परंतु मीडिया में भी एक ऐसा वर्ग उभर कर आया है जिस पर लोकपाल जैसी ही निगरानी किए जाने की आवश्यकता है।

मीडिया का वह वर्ग जो पैसे के आधार पर समाचार का समय और सामग्री तय करने का कार्य करता है। वह समाचारपत्र और समाचार चैनल जहां प्रशिक्षण के नाम पर नवोदित पत्रकारों का शोषण और उनसे पैसे लेकर पत्रकार बनाने का दावा किया जाता है, उन पर भी लोकपाल अथवा ऐसे ही किसी व्यवस्था की आवश्यकता जान पड़ती है। दरअसल, मीडिया में नियामक व्यवस्था लागू करने में मीडिया के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना आवश्यक है।

मीडिया में समाचारों के प्रसारण के संबंध में हस्तक्षेप करना उचित नहीं जान पड़ता है परंतु मीडिया संगठनों के आर्थिक स्त्रोतों और उसकी कार्यप्रणाली की निगरानी की व्यवस्था करना आवश्यक प्रतीत होता है। जिससे मीडिया के कार्यव्यवहार में स्वतः ही सुधार दिखाई देने लगेगा परंतु मीडिया के समाचार प्रसारण पर नियंत्रण से अभिव्यक्ति की संवैधानिक स्वतंत्रता का ही हनन होगा। यह भी ध्यान देने योग्य है कि दर्शकों एवं पाठकों ने भी अब जागरूकता प्रदर्शित करनी शुरू की है, सनसनीखेज और टीआरपी की पत्रकारिता को जनता ने नकारना शुरू कर दिया है।

अगर बात रही पत्रकारों को प्राप्त किसी विशेषाधिकार की तो उसे व्यक्तिगत तौर पर कोई भी विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है, उसके ऊपर वो सभी कानून लागू होते हैं जो किसी आम आदमी पर। फिर भी मीडिया में बढ़ते भ्रष्टाचार और अनैतिक पत्रकारिता के जिम्मेदार लोगों के लिए काटजू की टिप्पणी सटीक जान पड़ती है।

Friday, November 11, 2011

विकिलीक्स को बचा लो…

हमारी लड़ाई महत्वपूर्ण है। हमें आपके सहयोग की बहुत आवश्यकता है। यह अपील है विकिलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे की। जिन्होंने दूतावासों के गुप्त दस्तावेजों को उजागर कर समस्त विश्व को अमेरिकी कूटनीति का परिचय कराया था। विकिलीक्स ने वैसे तो इससे पहले सन् 2007 में ग्वांटनामो बे जेल की बर्बरता की आधिकारिक रिपोर्ट को लीक करके ही सनसनी फैला दी थी। विकिलीक्स की सनसनीखेज पत्रकारिता का दौर तो तब शुरू भी नहीं हुआ था। यह दौर तो नवंबर 2010 में शुरू हुआ जब विकिलीक्स ने अमेरिकी कूटनीति से संबंधित डाटा केबलों का प्रकाशन प्रारंभ किया। इसके साथ ही विकिलीक्स के लिए मुसीबतों की भी शुरूआत हो गई, अमेरिकी सरकार की नाराजगी के कारण असांजे को बहुत दिनों तक गुप्त स्थानों पर रहना पड़ा और विभिन्न मुकदमों का भी सामना करना पड़ा।

इस सबके बावजूद जूलियन असांजे अपने कार्य को लगातार अंजाम देते रहे, लेकिन अब उनकी वेबसाइट गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रही है। दरअसल जब अमेरिकी सरकार असांजे को कानूनी शिकंजे में नहीं फंसा पाई तो उसने उसके अस्तित्व को मिटाने के लिए उसके आर्थिक स्त्रोतों पर लगाम लगानी प्रारंभ की। अमेरिकी दबाव के फलस्वरूप विकिलीक्स की आय के प्रमुख स्त्रोत वीजा, मास्टरकार्ड और एप्पल ने उसके हाथ से छीन लिया। गौरतलब है कि वीजा और मास्टरकार्ड का यूरोप के 97 प्रतिशत कार्ड बाजार पर कब्जा है, इन कंपनियों के हाथ खींच लेने के कारण विकिलीक्स आर्थिक संकट से घिर गई।

विकिलीक्स ने अपनी वेबसाइट में जानकारी दी है कि अमेरिकी सरकार ने उसके विज्ञापनदाताओं पर ही शिकंजा नहीं कसा, बल्कि जिन समाचारपत्रों ने विकिलीक्स के केबलों को प्रकाशित किया था उनको मिलने वाले विज्ञापनों पर भी रोक लगा दी। विकिलीक्स के आर्थिक स्त्रोतों पर अमेरिकी दबाव के कारण विकिलीक्स की आय में 95 प्रतिशत तक कमी आई है।

विकिलीक्स के मुताबिक ‘‘विज्ञापनदाता कंपनियों के हाथ खींच लेने के कारण हमारी आय में 95 प्रतिशत तक की कमी आई है, आर्थिक मदद न मिलने के कारण हम पिछले 11 माह से पूर्व में प्राप्त आय से ही वेबसाइट का संचालन कर रहे हैं। यदि इसी तरह चलता रहा तो हमें 2011 के अंत तक विकिलीक्स को बंद करना पड़ सकता है।”

हालांकि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायोग ने विकिलीक्स के प्रति अमेरिकी रवैये की निंदा की है, परंतु अमेरिका को उसकी फिक्र कहां है। विकिलीक्स के प्रति अमेरिकी रवैया यह सवाल खड़ा करता है कि क्या अमेरिका मीडिया का भी वैश्विक नियंता बन चुका है। विकिलीक्स के खुलासों को बेशक कुछ पत्रकार पत्रकारिता के आदर्शों से परे मानते हों, लेकिन उसने खोजी पत्रकारिता को एक नया आयाम अवश्य दिया है।

विकिलीक्स ने पत्रकारिता में एक नई पहल की विकिलीक्स से पहले खोजी पत्रकारिता का स्तर राष्ट्र से परे नहीं था, जिसे जूलियन असांजे ने वैश्विक रूप प्रदान किया। जूलियन असांजे ने अपनी अपील में कहा है कि यदि आप लोगों की मदद नहीं मिली और आर्थिक संकट बरकरार रहा तो हमें साल के अंत तक विकिलीक्स का प्रकाशन बंद करना पड़ेगा। यानि विकिलीक्स पत्रकारिता जगत से जल्द ही विदाई ले सकती है।

विकिलीक्स जो प्रकाशन के दौरान विवादों और सवालों के घेरे में रही जाते-जाते भी कई सवाल खड़े कर जाएगी। जैसे क्या दान के बल पर चलने वाले पत्रकारिता संस्थान कभी भी कुछ लोगों की नाराजगी के कारण बंद हो सकते हैं? इसके साथ मीडिया के लिए यह भी एक संदेश है कि पूरी तरह विज्ञापनदाताओं पर ही आधारित होकर पत्रकारिता के मिशन को पूरा नहीं किया जा सकता है।

विकिलीक्स को जनता से कितना सहयोग मिलता है और कब तक उसका संचालन हो पाता है यह तो भविष्य ही बताएगा, लेकिन विकिलीक्स जैसी मुसीबतों का सामना कोई और पत्रकारिता संस्थान करे। उससे पहले मीडिया जगत को आत्मावलोकन अवश्य करना चाहिए।

Tuesday, October 18, 2011

“वॉल स्ट्रीट घेरो आंदोलन” के निहितार्थ

अमेरिका और यूरोपीय देशों सहित विश्व भर के 82 देशों में पूंजीवाद विरोधी आंदोलन चल रहे हैं। इस आंदोलन को ‘आक्यूपाइ वाल स्ट्रीट जनरल‘ नाम दिया गया है। 82 देशों के विभिन्न शहरों और स्टॉक एक्सचेंजों के आसपास जमा भीड़ वर्तमान आर्थिक ढांचे के लिए एक चेतावनी के रूप में दिखाई दे रही है। न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर में और अन्य देशों के प्रमुख शहरों में जमा आंदोलनकारी अपनी आजीविका छीनने और रोजगार के कम अवसरों के कारण हताश हैं। यूरोपीय संघ में कर्ज संकट गहराने और अमेरिका में आई मंदी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को गहरे से प्रभावित किया है। समस्त विश्व के लिए अनुकरणीय आर्थिक मॉडल और सुपर पॉवर बने अमेरिका की असली तस्वीर अब सबके सामने है।

गौरतलब है कि वह अमेरिका जो दुनिया की आर्थिक ग्रोथ का इंजन था, अब उसमें ठहराव आने लगा है। रीयल एस्टेट के कारोबार और उपभोक्ता संस्कृति पर आधारित अर्थव्यवस्था अब ढलान की ओर है। इसी समय में पूंजीवादियों के द्वारा आम लोगों के पोषण और भ्रष्टाचार ने व्यवस्था के प्रति आम अमेरिकियों के गुस्से को और बढ़ा दिया है। तानाशाही शासन के विरोध में खाड़ी देशों और भारत में हुए आंदोलन के बाद अमेरिका में भ्रष्टाचार को लेकर उपजे गुस्से ने आंदोलनों का वैश्वीकरण कर दिया है। अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश आर्थिक रूप से समृद्ध देशों की श्रेणी में आते हैं। आंदोलन इन देशों में कम ही देखने को मिलते हैं, ऐसे में इन देशों में बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारियों का एकत्रीकरण समस्या की जटिलता को उजागर करता है। प्रदर्शनकारी ‘‘हमारा पैसा वापस करो” और “परमाणु परियोजनाएं बंद करो” जैसे नारे लगा रहे हैं। फिलीपिंस में तो प्रदर्शनकारियों ने अमेरिकी दूतावास के सामने प्रदर्शन किया और ‘‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद‘‘ के नारे लगाए, और अमेरिका को चेताते हुए ‘‘फिलीपिंस बिकाऊ नहीं है‘‘ का उद्घोष किया।

विश्व के 82 देशों में चल रहे इस प्रकार के आंदोलन अमेरिकी आर्थिक मॉडल के अवसान की घोषणा कर रहे हैं। सन् 2008 में 117 वर्ष पुराने बैंक ‘‘लेहमन ब्रदर्स‘‘ के डूबने के साथ ही अमेरिका और उससे व्यापारिक तौर पर जुड़े राष्ट्रों में मंदी की आहट सुनाई पड़ी थी। उसके बाद अमेरिका ने अपने बैंको के डूबने के सिलसिले को रोकने के लिए और बाजार में मांग बढ़ाने के लिए राहत पैकेजों की घोषणाएं की थीं। इन राहत पैकेजों के माध्यम से जब तक अर्थव्यवस्था संभलती उससे पहले ही कर्ज संकट ने एक बार फिर अमेरिकी व्यवस्था को हिला दिया।

बाजार में मांग कम होने के कारण अमेरिकी कंपनियां वहां के श्रमिकों को अधिक वेतन पर रखने की बजाय एशियाई मूल के लोगों को रोजगार दे रही हैं। जिससे उनके उत्पादों में लगने वाले लागत मूल्य में कमी आ जाती है। हालांकि राष्ट्रपति ओबामा ने आउटसोर्सिंग पर रोक लगाने का ऐलान किया था, परंतु कंपनियों के दबाव के कारण उनको अपने रवैये में बदलाव करना पड़ा। जिसके परिणामस्वरूप अमेरिकी नागरिकों की बेरोजगारी का प्रतिशत एक बार फिर बढ़ गया। बाजार में मंदी और आउटसोर्सिंग ने अमेरिकी नागरिकों के सामने दोहरी समस्या खड़ी कर दी है।

अमेरिका में आने वाली कोई भी समस्या विश्व भर की समस्या बन जाती है और अमेरिका की कामयाबी को भी वैश्विक सफलता के रूप में प्रचारित किया जाता है। इसका कारण यह है कि विश्व की अर्थव्यवस्था डॉलर आधारित अर्थव्यवस्था है, ऐसे में अमेरिका से व्यापारिक तौर पर जुड़े देशों पर इसका प्रभाव पड़ना लाजिमी है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आ रहा ठहराव हमारे सामने भी कुछ प्रश्न खड़े करता है। जिनमें से प्रमुख हैं-

- क्या उपभोक्ता आधारित संस्कृति के भरोसे भारत एक मजबूत और स्थिर महाशक्ति बन सकता है?

- क्या जीडीपी हमारी आर्थिक संवृद्धि को मापने का सही पैमाना है?

- सबसे बड़ा प्रश्न इस आर्थिक मॉडल के तहत है, आय का असमान वितरण। गरीब और अमीर के बीच चौड़ी होती खाई, और चंद लोगों की उन्नति होने से क्या कोई राष्ट्र विकसित राष्ट्र हो सकता है?

ऐसे कुछ सवालों के जवाब हमें तलाशने चाहिए और अपनी आर्थिक नीतियों की एक बार फिर से समीक्षा करनी चाहिए। जिस अमेरिकी मॉडल का अनुकरण करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं, वह अमेरिका में ही सफल नहीं हो पाया है। ऐसे में अमेरिकी मॉडल के अंधानुकरण करने की नीतियों की एक बार हमें समीक्षा करते हुए, इन आंदोलनों से सबक लेना चाहिए।

Monday, October 17, 2011

मिशनरी पत्रकार थे महात्मा गांधी

भारत में पत्रकारिता का प्रादुर्भाव पुनर्जागरण के समय में हुआ था। यही वह समय था जब भारत की राष्ट्रीय चेतना जागृत हो रही थी। राष्ट्र की चेतना को जागृत करने वाले सभी प्रमुख लोगों ने इस कार्य के लिए पत्रकारिता को अपना सशक्त माध्यम बनाया। पत्रकारिता उस दौर में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध जनमत निर्माण के माध्यम के रूप में सामने आई थी। इस माध्यम का उपयोग स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नायक महात्मा गांधी ने भी किया था। 2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के पोरबंदर में जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी ने स्वाधीनता आंदोलन को पत्रकारिता के माध्यम से मजबूती प्रदान की। महात्मा गांधी ने अपनी पत्रकारिता की शुरूआत सन 1888 में लंदन से ही कर दी थी। गांधी जी ने पत्रकारिता का उपयोग दो प्रकार से किया- इंग्लैण्ड में प्रवास काल (जुलाई, 1888-जून,1891) तथा दक्षिण अफ्रीका में देशी-विदेशी समाचारपत्रों के माध्यम से गांधी ने अपने कार्यों एवं विचारों को पाठकों तक पहुंचाने का कार्य किया और उन्हें वहां के समाचारपत्रों में विशेष स्थान मिलता गया। गांधी जी ने पत्रकारिता के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक में भारत और भारतीयों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई। सन् 1888 से 1896 तक का समय गांधी जी के पत्रकारिता के संपर्क में आने का समय कहा जा सकता है।

महात्मा गांधी जब सन् 1888 में लंदन पहुंचे तब तक वे समाचारपत्रों की दुनिया से अधिक परिचित नहीं थे, दलपतराम शुक्ल के सुझाव पर उन्होंने प्रतिदिन एक घंटे का समय विभिन्न अखबारों को पढ़ने में लगाना शुरू किया। तब उनके मन में यह विचार आया भी न होगा कि वे एक दिन समाचार पत्रों की दुनिया के महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में स्थापित होंगे। गांधी जी अपनी माता के प्रभाव के कारण अन्नाहारी थे, वे इंग्लैण्ड में अन्नाहार आंदोलन से भी जुड़े रहे थे। अन्नाहार को लेकर गांधी जी ने ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अखबार ‘‘वेजिटेरियन‘‘ में लेख लिखना शुरू किया। ब्रिटेन के बाद दक्षिण अफ्रीका पहुंचने पर महात्मा गांधी ने ‘‘इंडियन ओपीनियन‘‘ समाचार पत्र का संपादन किया। उन्होंने इंडियन ओपीनियन के माध्यम से दक्षिण अफ्रीकी और भारतीय लोगों को ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति जागृत करने का कार्य किया। ‘‘इंडियन ओपीनियन‘‘ का प्रथम अंक 4 जून, 1903 को निकला, जिसमें महात्मा गांधी ने पत्रकारिता के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए लिखा-

1- ‘‘पत्रकारिता का पहला काम जनभावनाओं को समझना और उन्हें अभिव्यक्ति देना है।
2- ‘‘पत्रकारिता का दूसरा उद्देश्य लोगों में जरूरी भावनाओं को जागृत करना है।
3- ‘‘पत्रकारिता का तीसरा उद्देश्य निर्भीक तरीके से गड़बड़ियों को उजागर करना है।
गाँधी जी ने आर्थिक समस्या और सरकारी दबाव के बाद भी इंडियन ओपीनियन का प्रकाषन जारी रखा। गोपाल कृष्ण गोखले को 25 अप्रैल, 1909 को प्रेषित पत्र में उन्होंने लिखा-
‘‘20 अप्रैल तक ‘इंडियन ओपीनियन‘ पर 2500 पौंड का कर्ज था। पर संघर्ष की खातिर मैं उसे चलाए जा रहा हूं।‘‘

महात्मा गांधी अल्पायु में ही समाचार पत्रों के लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गए। समाचार पत्रों में लेखन के माध्यम से महात्मा गांधी समूचे दक्षिण अफ्रीका में लोकप्रिय हो गए थे। गांधी जी ने पत्रकारिता को अपने संघर्ष का सशक्त माध्यम बना लिया और पत्रकारिता जगत के आवश्यक अंग बन गए। महात्मा गांधी ने भारत लौटकर भी पत्रकारिता के अपने सफर को जारी रखा। भारत लौटने पर उन्होंने ‘‘बॉम्बे क्रॉनिकल‘‘ और सत्याग्रही समाचार पत्र निकाले, किंतु वे 10-15 दिनों तक ही इनका दायित्व संभाल सके। इन समाचार पत्रों के बंद होने के बाद महात्मा गांधी ने ‘‘नवजीवन‘‘ और ‘‘यंग इंडिया‘‘ दो समाचार पत्र सितंबर 1919 में निकाले, जिनका प्रकाशन सन् 1932 में गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद बंद हो गए। इसके बाद भी महात्मा गांधी के पत्रकार जीवन की यात्रा जारी रही। जेल से छूटने के पश्चात् गांधी जी ने ‘‘हरिजन‘‘ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र निकाला, जिसका प्रकाशन 11 फरवरी, 1933 से प्रारंभ होकर महात्मा गांधी के जीवन-पर्यंत तक जारी रहा। गांधी जी के अपने समाचार पत्रों का प्रकाशन कई बार बंद करना पड़ा, लेकिन वे ब्रिटिश सरकार की कुटिल नीतियों के आगे न कभी झुके, न थके। गिरफ्तारी और सेंसरशिप लगने से उनके पत्र बंद अवश्य हुए, लेकिन मौका मिलते ही गांधी जी पुनः पत्रों के प्रकाशन के कार्य में जुट जाते थे। गांधी जी ने कई दशकों तक पत्रकार के रूप में कार्य किया, कई समाचारपत्रों का संपादन किया। महात्मा गांधी ने उस समय में जब भारत में पत्रकारिता अपने शैशव काल में थी, उन्होंने पत्रकारिता की नैतिक अवधारणा प्रस्तुत की। महात्मा गांधी ने जिन समाचार पत्रों का प्रकाशन अथवा संपादन किया वे पत्र अपने समय में सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रों में माने गए। गांधी जी के पत्रकारिता की प्रशंसा करते हुए चेलापतिराव ने कहा कि- ‘‘गांधी जी शायद सबसे महान पत्रकार हुए हैं और उन्होंने जिन साप्ताहिकों को चलाया और संपादित किया वे संभवतः संसार के सर्वश्रेष्ठ साप्ताहिक हैं।‘‘

महात्मा गांधी समाचार पत्रों को किसी भी आंदोलन अथवा सत्याग्रह का आधार मानते थे, उन्होंने कहा था- ‘‘मेरा ख्याल है कि ऐसी कोई भी लड़ाई जिसका आधार आत्मबल हो, अखबार की सहायता के बिना नहीं चलायी जा सकती। अगर मैंने अखबार निकालकर दक्षिण अफ्रीका में बसी हुई भारतीय जमात को उसकी स्थिति न समझाई होती और सारी दुनिया में फैले हुए भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका में कया कुछ हो रहा है, इसे इंडियन ओपीनियन के सहारे अवगत न कराया होता तो मैं अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता था। इस तरह मुझे भरोसा हो गया है कि अहिंसक उपायों से सत्य की विजय के लिए अखबार एक बहुत ही महत्वपूर्ण और अनिवार्य साधन है।‘‘
महात्मा गांधी ने पत्रकारिता के माध्यम से सूचना ही नहीं बल्कि जनशिक्षण और जनमत निर्माण का भी कार्य किया। गांधी जी की पत्रकारिता पराधीन भारत की आवाज थी, उन्होंने समाचार पत्रों के माध्यम से अपनी आवाज को जन-जन तक पहुंचाया और अंग्रेजों के विरूद्ध जनजागरण का कार्य किया।

समाचार पत्र सर्व-साधारण के लिए नहीं रहे- गणेश शंकर विद्यार्थी

पत्रकारिता और बाजार वर्तमान समय में एक दूसरे के पूरक जान पड़ते हैं। मीडिया उन्हीं घटनाओं और मुद्दों को कवर करता है, जिनका मीडिया के बाजार से सरोकार होता है। देश व समाज की मूल समस्याओं से मीडिया अपना जुड़ाव महसूस नहीं करता है, बल्कि वह उन बातों को अधिक तवज्जो देता है जो उसके मध्यमवर्गीय उपभोक्ता वर्ग का मनोरंजन कर सकें। इसका कारण यह है कि मध्यम वर्गीय उपभोक्ता वर्ग को अपने बाजार हित के लिए साधना ही मीडिया का उद्देश्य बन गया है। मीडिया कारोबारी अब समाचार चैनलों और पत्रों का प्रयोग जनचेतना अथवा जनशिक्षण के लिए नहीं बल्कि अपने आर्थिक हित के लिए करने लगे हैं। इस प्रसंग में पत्रकार प्रवर गणेश शंकर विद्यार्थी जी की निम्न पंक्तियां दृष्टव्य हैं-

‘‘यहां भी अब बहुत से समाचार पत्र सर्व-साधारण के लिए नहीं रहे, सर्वसाधारण उनके प्रयोग की वस्तु बनते जा रहे हैं। एक समय था, इस देश में साधारण आदमी सर्व-साधारण के हितार्थ एक ऊंचा भाव लेकर पत्र निकालता था, और उस पत्र को जीवन क्षेत्र में स्थान मिल जाया करता था। आज वैसा नहीं हो सकता। इस देश में भी समाचार पत्रों का आधार धन हो रहा है। धन से ही वे निकलते हैं और धन ही के आधार पर वे चलते हैं और बड़ी वेदना के साथ कहना पड़ता है कि उनमें काम करने वाले बहुत से पत्रकार भी धन ही की अभ्यर्थना करते हैं। अभी यहां पूरा अंधकार नहीं हुआ है, किंतु लक्षण वैसे ही हैं: कुछ ही समय पश्चात यहां के समाचार पत्र भी मशीन के सदृश हो जाएंगे, और उनमें काम करने वाले पत्रकार केवल मशीन के पुर्जे/व्यक्तित्व न रहेगा, सत्य और असत्य का अंतर न रहेगा, अन्याय के विरूद्ध डट जाने और न्याय के लिए आफतों को बुलाने की चाह न रहेगी, रह जाएगा केवल खिंची हुई लकीर पर चलना। ऐसे बड़े होने की अपेक्षा छोटे और छोटे से भी छोटे, किंतु कुछ सिद्धांतों वाला होना कहीं अच्छा।‘‘

गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकार को सत्य का पहरूआ मानते थे। उनके अनुसार सत्य प्रकाशित करना और उसे उजागर करना ही पत्रकार का धर्म होता है। उन्होंने कहा था-

‘‘मैं पत्रकार को सत्य का प्रहरी मानता हूं-सत्य को प्रकाशित करने के लिए वह मोमबत्ती की भांति जलता है। सत्य के साथ उसका वही नाता है जो एक पतिव्रता नारी का पति के साथ रहता है। पतिव्रता पति के शव साथ शहीद हो जाती है और पत्रकार सत्य के शव के साथ।‘‘
पत्रकार शिरोमणि गणेश शंकर विद्यार्थी ने पत्रकारिता को समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए कार्य करने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि-
‘‘समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परम उद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति समझते हैं।‘‘

पत्रकारिता के इस दौर में पत्रों एवं समाचार चैनलों पर यह आरोप आम हो चुका है कि मीडिया पाठकों एवं दर्शकों की रूचि का नहीं बल्कि बाजार का ख्याल रखता है। विद्यार्थी जी के जीवनी लेखक देवव्रत शास्त्री ने उनकी पंक्तियों को दोहराते हुए लिखा है-
‘‘हमारे पाठक कैसे हैं, उन्हें कैसी पाठ्य सामग्री पसंद है, कैसी सामग्री उनके लिए फायदेमंद है। इस बात का ख्याल अधिकतर पत्र वाले नहीं रखते, परंतु प्रताप में इसका ख्याल रखा जाता था। विद्यार्थी जी सदा अपने सहकारियों को इसके लिए समझाते थे। वे इस बात का भी बहुत ख्याल रखते थे कि पाठकों की रूचि के अनुसार पाठ्य सामग्री तो जरूर दी जाए, परंतु कुरूचिपूर्ण न हो।‘‘

विद्यार्थी जी युवा पत्रकारों के लिए उनके शिक्षक के समान थे, उनके संपर्क में आकर बहुत से पत्रकारों ने पत्रकारिता में अग्रणी स्थान प्राप्त किया। वे उन्हें भली-भांति समझाते थे, एक बार वे कार्यालय में आए और अखबार उठाते हुए पूछने लगे ‘‘कोई नई बात है? यह उत्तर मिलने पर कि अभी देखा नहीं, कहने लगे, कैसे जर्नलिस्ट हो तुम लोग? नया पत्र आकर रखा हुआ है और उसी दम उठाकर देखने की इच्छा नहीं हुई?‘‘ विद्यार्थी जी की फटकार सुनकर सभी अपना सिर नीचा कर लेते।

गणेश विद्यार्थी ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से हिंदी को भी नए तेवर देने का कार्य किया। उनका पत्र ‘‘प्रताप‘‘ तत्कालीन समय का लोकप्रिय पत्र था, वे हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए सदा चिंतित रहे। हिंदी को वे जन-जन की भाषा बनाने का स्वप्न देखते थे। अखिल भारतीय हिन्दी सम्मेलन, गोरखपुर (1929) के अध्यक्षीय भाषण में गणेश जी ने कहा-

‘‘हिन्दी के प्रचार का सबसे बड़ा साधन है हिन्दी प्रांतों में लोक शिक्षा को आवश्यक और अनिवार्य बना देना। कोई ऐसा घर न रहे, जिसके नर नारी, बच्चे बूढ़े तक तुलसीकृत रामायण, साधारण पुस्तकें और समाचार पत्र न पढ़ सकें। यह काम उतना कठिन नहीं है, जितना कि समझा जाता है। यदि टरकी में कमाल पासा बूढ़ों और बच्चों तक को साक्षर कर सकते हैं और सोवियत शासन दस वर्षों के भीतर रूस में अविद्या का दीवाला निकाल सकता है, तो इस देश में सारी शक्तियां जुटकर बहुत थोड़े समय में अविद्या के अंधकार का नाश कर प्रत्येक व्यक्ति को पढ़ने और लिखने योग्य बना सकती है।"

गणेश शंकर विद्यार्थी सदा पत्रकारिता के कार्य में एक मोमबत्ती की भांति जलते रहे। उनका जीवन पूर्णतया पत्रकारिता को समर्पित था। विद्यार्थी जी एक पत्रकार ही नहीं क्रांतिकारियों के प्रबल समर्थक थे, वे क्रांतिकारियों को लेकर गांधी जी की आलोचना को भी पसंद नहीं करते थे। उनकी पत्रकारिता पूर्णतया भारत की स्वतंत्रता के ध्येय को लेकर समर्पित थी जिससे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। वर्तमान समय में जब पत्रकारिता अपने उद्देश्यों से भटक गई है, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे ध्येय समर्पित पत्रकार हमारे लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। जिनका हमें पत्रकारिता के नैतिक पथ पर चलते हुए स्मरण अवश्य करना चाहिए।

Monday, October 10, 2011

निरस्त्रीकरण के झंडाबरदार, बेच रहे हथियार


विश्व भर में चल रही हथियार बाजार की बहस और घोषणाओं के बीच हथियार बाजार भी बहुत तेजी से अपने पैर पसार रहा है। हथियारों के इस वैश्विक बाजार के संचालक भी वही देश हैं जो निरस्त्रीकरण अभियान के झंडाबरदार हैं। इन देशों में अमेरिका, रूस आदि प्रमुख हैं जो वैश्विक स्तर पर हथियार बेचने का कार्य करते हैं। ‘‘स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च ग्रुप‘‘ के अनुसार विश्व का हथियार उद्योग डेढ़ खरब डॉलर का है और विश्व का तीसरा सबसे भ्रष्टतम उद्योग है। जिसने हथियारों की होड़ को तो बढ़ाया ही है, हथियार माफियाओं और दलालों की प्रजाति को भी जन्म दिया है। विश्व का बढ़ता हथियार बाजार वैश्विक जीडीपी के 2.7 प्रतिशत के बराबर हो गया है। हथियारों के इस वैश्विक बाजार में 90 प्रतिशत हिस्सेदारी पश्चिमी देशों की है, जिसमें 50 प्रतिशत हथियार बाजार पर अमेरिका का कब्जा है।

अमेरिका की तीन प्रमुख कंपनियों का हथियार बाजार पर प्रमुख रूप से कब्जा है- बोइंग, रेथ्योन, लॉकहीड मार्टिन। यह भी एक तथ्य है कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इराक और कश्मीर आदि के मामलों में अमेरिकी नीतियों पर इन कंपनियों का भी व्यापक प्रभाव रहता है। भारत के संबंध में यदि बात की जाए तो सन् 1998 में परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत को हथियारों को आपूर्ति करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। जिसे अमेरिका की बुश सरकार ने 2001 में स्वयं हटा लिया था, जिसके बाद भारत में हथियारों का आयात तेजी से बढ़ा। पिछले पांच वर्षों की यदि बात की जाए तो भारत में हथियारों का आयात 21 गुना और पाक में 128 गुना बढ़ गया है।

भारत-पाकिस्तान के बीच हथियारों की इस होड़ में यदि किसी का लाभ हुआ है, तो अमेरिका और अन्य देशों की हथियार निर्माता कंपनियों का। दरअसल अमेरिका की हथियार बेचने की नीति अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के ‘‘गन और बटर‘‘ के सिद्धांत पर आधारित है। गरीब देशों को आपस में लड़ाकर उनको हथियार बेचने की कला को विल्सन ने ‘‘गन और बटर‘‘ सिद्धांत नाम दिया था, जिसका अर्थ है आपसी खौफ दिखाकर हथियारों की आपूर्ति करना। भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में भी अमेरिका ने इसी नीति के तहत अपने हथियार कारोबार को लगातार बढ़ाने का कार्य किया है। हाल ही में अरब के देशों में सरकार विरोधी प्रदर्शनों और संघर्ष के दौरान भी अमेरिकी हथियार पाए गए हैं, हथियारों के बाजार में चीन भी अब घुसपैठ करना चाहता है।

हथियारों के प्रमुख आपूर्तिकर्ता देशों का लक्ष्य किसी तरह भारत के बाजार पर पकड़ बनाना है। जिसमें उनको कामयाबी भी मिली है, जिसकी तस्दीक अमेरिकी कांग्रेस की एक रिपोर्ट भी करती है। अमेरिकी कांग्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक सन 2010 में विकासशील देशों में भारत हथियारों की खरीदारी की सूची में शीर्ष पर है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने 5.8 अरब डॉलर (लगभग 286.92 रूपये) के हथियार खरीदे हैं। इस सूची में ताइवान दूसरे स्थान पर है, जिसने 2.7 डॉलर (लगभग 133.57 अरब रूपये) के हथियार खरीदे हैं। ताइवान के बाद सऊदी अरब और पाकिस्तान क्रमशः तीसरे और चौथे स्थान पर हैं।

अमेरिकी कांग्रेस की रिपोर्ट के अनुसार भारत के हथियार बाजार पर अब भी रूस का वर्चस्व कायम है, लेकिन अमेरिका, इजरायल और फ्रांस ने भी भारत को अत्याधुनिक तकनीक के हथियारों की आपूर्ति की है। रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में हथियारों की आपूर्ति के मामले में अमेरिका पहले और रूस दूसरे स्थान पर कायम है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अमेरिका दक्षिण एशिया में हथियारों की बढ़ती आपूर्ति के प्रति चिंतित है, कैसी विडंबना है कि हथियारों की आपूर्ति भी की जा रही है और चिंता भी जताई जा रही है। अमेरिकी कांग्रेस की यह रिपोर्ट अमेरिकी नीतियों के दोमुंहेपन को उजागर करती है।

हथियारों के बाजार से संबंधित यह आंकड़े विकासशील देशों के लिए एक सबक हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि विकसित देश आतंक के खिलाफ जंग के नाम पर और शक्ति संतुलन साधने के नाम पर अपने बाजारू हितों की पूर्ति करने का कार्य कर रहे हैं। तीसरी दुनिया के वह देश जो भुखमरी और गरीबी से जंग लड़ने में भी असफल हैं, उन देशों में विकसित देशों के पुराने हथियारों को खपाने से क्या उन देशों को विकास की राह मिल सकती है?

भारत के संदर्भ में यदि देखा जाए तो हम आज भी विकसित देशों के पुराने हथियारों को अधिक दामों पर खरीद रहे हैं। इससे सबक लेते हुए हमें अपने बजट को तय करते समय अपने रक्षा अनुसंधान विभाग को भी पर्याप्त बजट मुहैया कराना होगा, ताकि हम रक्षा प्रणाली के माध्यम में आत्मनिर्भर हो सकें। जिससे भारत की सीमा और संप्रभुता की रक्षा हम स्वदेश निर्मित हथियारों से कर सकें।

Monday, October 3, 2011

परमाणु संयंत्रों का बढ़ता विरोध



परमाणु ऊर्जा के खतरे को सरकार भले नजरंदाज करे, लेकिन फुकुशिमा की घटना के बाद जनता में परमाणु संयंत्रों को लेकर संशय बढ़ता जा रहा है। यही कारण है कि देशभर में परमाणु संयंत्रों को लगाने का विरोध हो रहा है। परमाणु संयंत्रों को उन सभी जगहों पर विरोध का सामना करना पड़ा है, जहां वे प्रस्तावित हैं या लगने की प्रक्रिया में हैं। जैतापुर, हरियाणा के फतेहाबाद, मध्य प्रदेश के चुटका, गुजरात के भावनगर और आंध्र के कोवाडा में परमाणु संयंत्र लगाए जाने का व्यापक विरोध हुआ है। विरोध प्रदर्शनों की इसी श्रृंखला में परमाणु संयंत्रों का एक बार फिर विरोध स्थल बना है, तमिलनाडु का कूडनकुलम।

कूडनकुलम में परमाणु परियोजना की शुरुआत 80 के दशक में हुई थी, इस परियोजना को लेकर उसी समय स्थानीय लोगों ने अपना विरोध दर्ज कराया था। जिसे सरकार ने नजरंदाज करने का प्रयास किया था, परिणामस्वरूप सन 1989 में प्रभावित क्षेत्र के दस हजार मछुआरों ने कन्याकुमारी में प्रदर्शन किया था। सोवियत रूस के विघटन के बाद ऐसा लगा कि यह परियोजना सफल नहीं हो पाएगी, परंतु सन 1998 में इसको फिर से शुरू किया गया और विरोध प्रदर्शनों की भी एक बार फिर शुरुआत हो गई। इस परियोजना को लेकर स्थानीय निवासियों का विरोध सन 1998 से अनवरत जारी है।

कूडनकुलम में लगने वाले बिजलीघर के विरोध में आंदोलन की धार एक बार फिर तेज हो गई है। सितंबर माह में इस आंदोलन ने एक बार फिर जोर पकड़ा, 125 लोग 12 दिनों तक भूख हड़ताल पर बैठे रहे और उनके समर्थन में 15 हजार से अधिक लोग जुटे। इस आंदोलन के दबाव के कारण ही मुख्यमंत्री जयललिता को प्रधानमंत्री से ‘लोगों की आशंकाओं के निवारण‘ तक इस परियोजना को रोकने की मांग करनी पड़ी है। गौरतलब है कि इससे पहले मुख्यमंत्री जयललिता ने भी इस परियोजना को पूर्णतया सुरक्षित और आंदोलनकारियों को भ्रमित बताया था।

कूडनकुलम परियोजना को लेकर आशंकाएं भी कम नहीं हैं। रूस की मदद से लगने वाले परमाणु बिजलीघर को लेकर कई बडे़ सवाल खड़े होते हैं, जिनके जवाब देने से सरकार भी कतरा रही है। इनमें से प्रमुख सवाल निम्नलिखित हैं-

- रूसी सरकार का कहना है कि भारत की संसद में पारित परमाणु दायित्व विधेयक के अंतर्गत कूडनकुलम परियोजना नहीं आती है, क्योंकि भारत सरकार ने सन 2008 में हुए एक गुप्त समझौते के अंतर्गत उसे दायित्व मुक्त रखा है। ऐसे में सवाल उठता है कि किसी भी संभावित खतरे का जिम्मेदार यदि रूस नहीं होगा तो कौन होगा ?

- रूस के परमाणु विभाग ने अपनी सरकार को परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा को लेकर एक रिपोर्ट सौंपी है। इस रिपोर्ट में परमाणु विभाग ने रूस द्वारा तैयार परमाणु संयंत्रों को फुकुशिमा जैसी आपदाओं से निपटने में असफल बताया है। परमाणु विभाग ने परमाणु संयंत्रों में कुल 31 खमियां बताई हैं।

- फुकुशिमा की घटना के बाद सरकार ने परमाणु सुरक्षा संयंत्रों की निगरानी को लेकर एक सुरक्षा नियमन इकाई का गठन किया है। सरकार का यह कदम लोगों की आशंकाओं को दूर करने के लिए नहीं बल्कि उनको तात्कालिक सांत्वना देने भर के लिए है। ताकि परमाणु कंपनियों के मुनाफे पर आंच न आने पाए।

- फुकुशिमा की घटना से भारत को भी सबक लेना चाहिए था। जबकि परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अग्रणी देशों जैसे स्वीडन, जर्मनी, स्विट्जरलैंड जैसे देशों ने अपनी आगामी परमाणु योजनाओं से हाथ खींच लिया है। जर्मनी ने तो सन् 2025 तक परमाणु ऊर्जा मुक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य तय किया है। उल्लेखनीय है कि भारत के पास जर्मनी की तुलना में सौर ऊर्जा प्राप्त करने की अधिक संभावनाएं हैं, क्योंकि जर्मनी का मौसम सर्द है जबकि भारत में सौर ऊर्जा की उपलब्धता की समस्या नहीं है। जरूरत है तो केवल सौर ऊर्जा प्राप्त करने के साधन विकसित करने की।

- कूडनकुलम जैसी परियोजनाओं से उत्पन्न होने वाली प्रमुख समस्या स्थानीय निवासियों के विस्थापन की है। परमाणु परियोजनाओं को लगाने के पीछे तर्क दिया जाता है कि इन परियोजनाओं को सघन आबादी वाले इलाके में न लगाया जाए। कूडनकुलम परियोजना में इस तथ्य को पूरी तरह से नजरंदाज किया गया है, गौरतलब है कि कूडनकुलम दस लाख की सघन आबादी वाला इलाका है।

ऐसे कई सवाल और समस्याएं हैं, जो इन परमाणु बिजली परियोजनाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। केवल 3 प्रतिशत बिजली आपूर्ति देने वाली बेहद खर्चीली परमाणु योजनाएं देश के हित में योगदान कर पाएंगी, इस पर भी संशय है। ऐसे में परमाणु परियोजनाओं के विरूद्ध जारी जनसंघर्ष अपनी लड़ाई लड़ने के साथ ही सरकार की नीतियों को आईना दिखाने का कार्य भी कर रहे हैं। अंततः केन्द्र और प्रदेश सरकारों को भी अपना दमनकारी रवैया छोड़कर जनहित में अपनी इन घातक परियोजनाओं पर पुर्नविचार करते हुए ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों की ओर बढ़ना चाहिए।

Wednesday, September 21, 2011

राष्ट्रीय राजनीति का बदलता परिदृश्य

देश की राजनीति इस समय बदलाव की ओर है. राष्ट्रीय राजनीति में पक्ष और विपक्ष के कई प्रमुख चेहरों के सामने साख का संकट है. जिसके कारण उन चेहरों को निखारने का प्रयास किया जा रहा है, जिनके दम पर वोट बैंक का समीकरण साधा जा सकता है. सन २००४ से सत्ता पर काबिज कांग्रेस पार्टी के प्रमुख चेहरे और ईमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं. कांग्रेस पार्टी को अगले आम चुनावों में मनमोहन सिंह के नाम पर वोट मिलने की उम्मीद नहीं है. इसी के चलते कांग्रेस पार्टी ने कथित ’युवराज’ राहुल गांधी को आगे कर दिया है. दरअसल कांग्रेस पार्टी इस ग़लतफ़हमी में है कि राहुल गांधी के युवा नेतृत्व के नाम पर देश के आम आदमी का साथ कांग्रेस के हाथ को मिलेगा. जिस देश का युवा कांग्रेसी राज से त्रस्त होकर ७० वर्षीय अन्ना के आन्दोलन में सहभागी है, वह राहुल का वोट बैंक कैसे बन सकता है? इससे पहले भी कांग्रेस पार्टी के करिश्माई चेहरे राहुल गांधी का जादू बिहार जैसे अहम राज्य में नहीं चल पाया था. उत्तर प्रदेश में भी उनकी असली परीक्षा अभी बाकी है जहां की फिजा अन्ना अनशन के बाद से बदल गयी है. महंगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद जैसे मुद्दों ने राहुल की राजनीति को पलीता लगाया है.

अब एक सवाल यह भी उठता है कि यदि कांग्रेस अपनी साख गवां चुकी है और राहुल प्रभावी चेहरा नहीं हैं तो उनका विकल्प क्या है? क्या देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी के पास राहुल का कोई विकल्प है? जिसे पार्टी आम चुनावों में अपना चेहरा बना सकती है. वर्तमान समय में अपने विकास मॉडल के लिए अमेरिकी प्रशंसा पाने वाले नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने की होड़ चल पड़ी है. जिससे यह समझ में आता है कि देश में नरेन्द्र मोदी का प्रभाव अवश्य है. अभी तक नरेन्द्र मोदी ने अपनी भूमिका को गुजरात तक ही सीमित रखा है. दरअसल देश की प्रमुख विपक्षी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा की यह समस्या लगभग एक सी है कि केंद्र में स्थापित उनके प्रमुख नेताओं की विश्वसनीयता दांव पर है. ऐसे में दोनों ही पार्टियों के लिए यह आवश्यक है कि आम चुनावों में नए चेहरे को उतार वोट बैंक का समीकरण साधा जाये. नए नेता का चुनाव करने की स्थिति में भाजपा में कांग्रेस की अपेक्षा अधिक समस्याएं हैं. जहां कांग्रेस पार्टी नेहरु-गांधी परिवार को नेतृत्व सौंपने को लेकर कोई विवाद नहीं रहता है, वहीँ भाजपा में नेतृत्व की लड़ाई जगजाहिर है. ऐसे में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का दावेदार बनाये जाने के क्रम में पहला विरोध पार्टी से ही हो सकता है. यदि आडवाणी समर्थक लॉबी नरेन्द्र मोदी की दावेदारी का समर्थन करे तो नरेन्द्र मोदी के रास्ते की पहली बाधा दूर हो सकती है.

हालांकि अन्ना के अनशन के बाद अभी एक सर्वे कंपनी निल्सन ने २८ राज्यों में अपना एक सर्वे कराया और उसमें सभी जाति, धर्म के लोगों को शामिल किया .इस सर्वे से यह बात स्पष्ट रूप से ज्ञात हुआ कि आम आदमी केंद्र सरकार के शासन व्यवस्था से आजिज आ चुकी है . इस सर्वे की रिपोर्ट में भाजपा को ३१ प्रतिशत व कांग्रेस को २० प्रतिशत अंक हासिल हुए हैं अर्थात अगर तत्काल में चुनाव कराये जायें तो यह बात स्पष्ट है कि भाजपा की जीत सुनिश्चित है . लेकिन राष्ट्रीय स्तर की इस पार्टी में वर्तमान में नेतृत्व की भूमिका का अभाव प्रतीत होता है क्योकि भाजपा में नेतृत्वकर्ता के रूप में अब आम आदमी एक ऐसी छवि को देखना चाहता है जो वास्तव में आम आदमी के हित के साथ-साथ देश का भी विकास कर सके और इसका जीता जागता प्रमाण गुजरात में हो रहे विकास के रूप में सबके सामने प्रस्तुत है .

भारतीय जनता पार्टी यदि मोदी को मैदान में उतारती है तो उसे गठबंधन के स्तर पर भी कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी. फिर भी नरेन्द्र मोदी वह फैक्टर हैं जो इन सभी मुद्दों पर भाजपा को विजय दिला सकते हैं. ऐसे समय में जब पार्टी को व्यापक जनाधार वाले और लोकप्रिय नेता की तलाश हो तो नरेन्द्र मोदी ही सबसे उपयुक्त दिखाई पड़ते हैं. अब बात है नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के बीच मुकाबले की तो उसका फैसला जनता के हाथों में है कि वह किसे नेता के रूप में स्वीकार करती है. अंततः भाजपा के लिए केंद्र की सत्ता के लिए ही नहीं बल्कि देश की राजनीति में मुख्य लड़ाई में बने रहने के लिए भी नए चेहरे की तलाश है जो नरेन्द्र मोदी के रूप में पूरी हो सकती है.

Tuesday, September 20, 2011

पत्रकारिता के प्रकाशपुंज बाबूराव विष्णु पराड़कर

भारत में पत्रकारिता का उदभव ही राष्ट्रव्यापी पुनर्जागरण और समाज कल्याण के उद्देश्य से हुआ था। महात्मा गांधी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, महर्षि अरविंद आदि युगपुरुष पत्रकारिता की इसी परंपरा के वाहक थे। जिन्होंने पत्रकारिता को देशहित में कार्य करने का लक्ष्य और प्रेरणा दी। पत्रकारिता में उनके आदर्श ही पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी के लिए दिशा-निर्देश के समान हैं, जिन पर चलकर पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी अपनी इस अमूल्य विधा के साथ न्याय कर सकती है। पत्रकारिता की अमूल्य विधा वर्तमान समय में अपने संक्रमण काल के दौर से गुजर रही है। दरअसल पत्रकारिता में यह संक्रमण उन आशंकाओं का अवतरण है, जिसकी आशंका पत्रकारिता के युगपुरूषों ने बहुत पहले ही व्यक्त की थीं।

संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने भविष्य में पत्रकारिता में बाजारवाद, नैतिकता के अभाव और पत्रकारों की स्वतंत्रता के बारे में कहा था-
‘‘पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र संर्वांग सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी- इन गुणों से संपन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएंगे, संपादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे और बड़ी खूबी के साथ करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है वह उन्हें न होगी। वस्तुतः पत्रों के जीवन में यही समय बहुमूल्य है।‘‘(संपादक पराड़कर में उद्धृत)

पराड़कर जी के यह कथन वर्तमान दौर की पत्रकारिता में चरितार्थ होने लगे हैं। जब पत्रकारों की कलम की स्याही हल्का लिखने लगी है और समाजहित जैसी बातें बेमानी होने लगी हैं। इसका कारण पत्रकार नहीं बल्कि वे मीडिया मुगल हैं जो मीडिया के कारोबारी होते हैं। पत्रकारिता पर पूंजीपतियों के दखल और उसके दुष्प्रभावों के बारे में पराड़कर जी ने कहा था-

‘‘पत्र निकालने का व्यय इतना बढ़ गया है कि लेखक केवल अपने ही भरोसे इसमें सेवा प्राप्त नहीं कर सकता। धनियों का सहयोग अनिवार्य हो गया है। दस जगह से धनसंग्रह कर आप कंपनी बनाएं अथवा एक ही पूंजीपति पत्र निकाल दे, संपादक की स्वतंत्रता पर दोनों का परिणाम प्रायः एक सा ही होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पत्रों की उन्नति के साथ-साथ पत्रों पर धनियों का प्रभाव अधिकाधिक परिणाम में अवश्य पड़ेगा।‘‘(इतिहास निर्माता पत्रकार, डा. अर्जुन तिवारी)

बाजार के बढ़ते प्रभाव के कारण समाचारपत्र के स्वरूप और समाचारों के प्रस्तुतिकरण में आ रहे बदलावों के बारे में पराड़कर जी ने कहा था-
‘‘पत्र बेचने के लाभ से अश्लील समाचारों को महत्व देकर तथा दुराचरण मूलक अपराधों का चित्ताकर्षण वर्णन कर हम परमात्मा की दृष्टि में अपराधियों से भी बड़े अपराधी ठहर रहे हैं, इस बात को कभी न भूलना चाहिए। अपराधी एकाध पर अत्याचार करके दण्ड पाता है और हम सारे समाज की रूचि बिगाड़ कर आदर पाना चाहते हैं।‘‘(प्रथम संपादक सम्मेलन 1925 के वृंदावन हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय वक्तव्य से)

पराड़कर जी का यह कथन वर्तमान समय में और भी प्रासंगिक लगता है, जब खबर के बाजार में मीडिया मुगल अश्लील खबरों के माध्यम से बाजार पर हावी होने के प्रयास में रहते हैं।
पत्रकार को देश के समसामयिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों के बारे में जानकारी अवश्य होनी चाहिए। तभी वह अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है। इसका वर्णन करते हुए पराड़कर जी ने कहा था -
‘‘मेरे मत से संपादक में साहित्य और भाषा ज्ञान के अतिरिक्त भारत के इतिहास का सूक्ष्म और संसार के इतिहास का साधारण ज्ञान तथा समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र और अंतर्राष्ट्रीय विधानों का साधारण ज्ञान होना आवश्यक है। अर्थशास्त्र का वह पण्डित न हो पर कम से कम भारतीय और प्रान्तीय बजट समझने की योग्यता उसमें अवश्य होनी चाहिए।‘‘ (इतिहास निर्माता पत्रकार, अर्जुन तिवारी)

अभी हाल ही में प्रधानमंत्री ने टिप्पणी की थी कि ‘‘मीडिया अब जज की भूमिका अदा करने लगा है‘‘ यह कुछ अर्थों में सही भी है। पत्रकारों पर राजनीति का कलेवर हावी होने लगा है, पत्रकारिता के राजनीतिकरण पर टिप्पणी करते हुए पराड़कर जी ने कहा था-
‘‘आज का पत्रकार राजनीति और राजसत्ता का अनुकूल्य उपलब्ध करने के लिए उनके मुहावरे में बोलने लगा है। उपभोक्ता संस्कृति के अभिशाप को लक्ष्य कर राजनेताओं की तरह आवाज टेरने वाले पत्रकार स्वयं व्यावसायिक चाकचिक्य के प्रति सतृष्ण हो गए हैं और उपभोक्ता संस्कृति ही इनकी संस्कृति बनती जा रही है।‘‘(पत्रकारिता इतिहास और प्रश्न, कृष्णबिहारी मिश्र)

संपादकाचार्य पराड़कर जी की पत्रकारिता का लक्ष्य पूर्णतः स्वतंत्रता प्राप्ति के ध्येय को समर्पित था। पराड़कर जी ने अपने उद्देष्य की घोषणा इन शब्दों में की थी-
षब्दों में सामर्थ्य का भरें नया अंदाज।
बहरे कानों को हुए अब अपनी आवाज।

5 सितंबर, 1920 को ‘आज‘ की संपादकीय टिप्पणी में अपनी नीतियों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा था- ‘‘हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सर्व प्रकार से स्वातंत्र्य उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य है कि हम अपने देश के गौरव को बढ़ावें, अपने देशवासियों में स्वाभिमान संचार करें।‘‘

पराड़कर जी की पत्रकारिता पूर्णतः ध्येय समर्पित पत्रकारिता थी, जिसका वर्तमान पत्रकार पीढ़ी में सर्वथा अभाव दिखता है। बाबूराव विष्णु पराड़कर पत्रकारिता जगत के लिए सदैव स्मरणीय आदर्श पत्रकार हैं। पत्रकारिता के सही मूल्यों को चरितार्थ करने वाले बाबूराव विष्णु पराड़कर जी की पत्रकारिता के पदचिन्ह वर्तमान पत्रकार पीढ़ी के लिए पथप्रदर्शक के समान हैं।

भाषायी पत्रकारिता के संस्थापक राजा राममोहन राय



राजा राममोहन राय! यह नाम एक प्रखर एवं प्रगतिशील व्यक्तित्व का नाम है, जिन्होंने भारत में भाषायी प्रेस की स्थापना का ऐतिहासिक कार्य किया। राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण एवं सामाजिक आंदोलनों का प्रणेता भी कहा जाता है। उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरूद्ध जनजागरण का कार्य किया, जो तत्कालीन समय की महत्वपूर्ण आवश्यकता थी। राजा राममोहन राय ने सामाजिक और राष्ट्रव्यापी जनजागरण कार्य पत्रकारिता के माध्यम से ही किया था। उन्होंने पत्रकारिता को जनजागरण के सशक्त माध्यम के रूप में प्रस्तुत किया था। उनके द्वारा चलाए गए सामाजिक आंदोलन और पत्रकारिता एक-दूसरे के पूरक थे। उनकी पत्रकारिता सामाजिक आंदोलन को मजबूती प्रदान करती थी।

राजा राममोहन राय का जन्म राधानगर, बंगाल में 22 मई, 1772 को कुलीन ब्राहमण परिवार में हुआ था। उनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था जो धार्मिक विविधताओं से परिपूर्ण था। उनकी माता शैव मत में विश्वास करती थीं एवं पिता वैष्णव मत में, जिसका उनके जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ा। सामाजिक परिवर्तनों के प्रणेता और आधुनिक भारत के स्वप्नदृष्टा राजा राममोहन राय ने संवाद कौमुदी, ब्रह्मैनिकल मैगजीन, मिरात-उल-अखबार, बंगदूत जैसे सुप्रसिद्ध पत्रों का प्रकाशन किया। राजा राममोहन राय ने सन 1821 में बंगाली पत्र संवाद कौमुदी का कलकत्ता से प्रकाशन प्रारंभ किया। इसके बाद सन 1822 में उन्होंने फारसी भाषा के पत्र
मिरात-उल-अखबार और ब्रह्मैनिकल मैगजीन का प्रकाशन किया। यह पत्र तत्कालीन समय में राष्ट्रवादी एवं जनतांत्रिक विचारों के शुरूआती समाचार पत्रों में से थे। इन समाचार पत्रों का उद्देश्य राष्ट्रीय पुनर्जागरण और सामाजिक चेतना ही था। इन समाचार पत्रों के अलावा राजा राममोहन राय ने अंग्रेजी में बंगला हेराल्ड और बंगदूत का भी प्रकाशन किया।

राजा राममोहन राय ने भारत में उद्देश्यपूर्ण पत्रकारिता की नींव डाली थी। उन्होंने अपने द्वारा प्रकाशित किए गए समाचार पत्रों का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा था कि-
‘‘मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि जनता के सामने ऐसे बौद्धिक निबंध उपस्थित करूं जो उनके अनुभव को बढ़ावें और सामाजिक प्रगति में सहायक सिद्ध हों। मैं अपनी शक्ति भर शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूं और प्रजा को उनके शासकों द्वारा स्थापित विधि व्यवस्था से परिचित कराना चाहता हूं, ताकि जनता को शासन अधिकाधिक सुविधा दे सके। जनता उन उपायों से अवगत हो सके जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और अपनी उचित मांगें पूरी कराई जा सकें।‘‘

राजा राममोहन राय ने भारत में पत्रकारिता की नींव उस समय डाली थी, जब भारत को पत्रकारिता के महत्वपूर्ण अस्त्र की आवश्यकता थी। वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कोलकाता प्रेस क्लब में अपने संबोधन में कहा था-
‘‘उन्होंने बंगाली और फारसी भाषा में समाचार पत्रों का प्रकाशन किया और हमेशा ही प्रेस की स्वतंत्रता की लड़ाई के अगुआ रहे। राजा राममोहन राय ने बहुत पहले ही सन 1823 में ही प्रेस की स्वतंत्रता के महत्व और उसकी आवश्यकता की व्याख्या कर दी थी।‘‘

प्रधानमंत्री ने प्रेस की स्वतंत्रता के संबंध में राजा राममोहन राय के शब्दों को ही उद्धृत करते हुए कहा- ‘‘प्रेस की आजादी के बिना दुनिया के किसी भी हिस्से में क्रांति नहीं हो सकती है।‘‘

प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर मौजूदा दौर में आवाजें उठती रहती हैं। प्रेस की स्वतंत्रता की लड़ाई का आरंभ राजा राममोहन राय ने ब्रिटिश शासन से टकराव मोल ले लिया था। उनका मानना था कि समाचारपत्रों पर सरकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए, और सच्चाई सिर्फ इसलिए नहीं दबा देनी चाहिए कि वह सरकार को पसंद नहीं है। प्रेस की स्वतंत्रता के मुद्दे पर ही इतिहास पर दृष्टि डालते हुए मनमोहन सिंह ने कहा- ‘‘जब कोलकाता में प्रेस पर नियंत्रण करने का प्रयास किया गया, तब राजा राममोहन राय ने सरकार के निर्णय की आलोचना करते हुए ब्रिटिश सरकार को ज्ञापन सौंपा। उन्होंने पत्रकारिता की स्वतंत्रता की ओर ब्रिटिश सरकार का ध्यान इन शब्दों में आकर्षित किया।‘‘
राजा राममोहन राय ने ब्रिटिश सरकार से कहा- ‘‘कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले अधिकतर समाचारपत्र यहां के मूल निवासियों के बीच लोकप्रिय हैं, जो उनमें एक स्वतंत्र चिंतन और ज्ञान की व्याख्या करते हैं। यह समाचार पत्र उनके ज्ञान को बढ़ाने और स्थिति को सुधारने का प्रयत्न कर रहे हैं।‘‘

उन्होंने ब्रिटिश सरकार से कहा- ‘‘इन समाचारपत्रों के प्रकाशन पर रोक लगाया जाना उचित नहीं है।‘‘ राजा राममोहन राय ने हमेशा ही पत्रकारिता की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था। उन्होंने सन 1815 से 1830 के कम अंतराल में ही तीस पुस्तकें लिखी थीं। सौमेन्द्र नाथ ठाकुर के अनुसार-‘‘बंगाली काव्य जगत ने बंकिम चंद्र चटर्जी और रविन्द्र नाथ टैगोर की कविताओं के माध्यम से जो ऊंचाई प्राप्त की है, उसकी आधारशिला राजा राममोहन राय ने ही रखी थी।‘‘

राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत का जनक माना जाता है। महान क्रांतिकारी सुभाष चंद्र बोस ने राजा राममोहन के बारे में कहा कि- ‘‘राजा राममोहन राय भारतीय पुनर्जागरण के अगुआ थे जिन्होंने भारत में एक मसीहा के रूप में नए युग का सूत्रपात किया।‘‘

राजा राममोहन राय की अंग्रेजी शासन और अंग्रेजी भाषा के प्रशंसक होने के कारण आलोचना की जाती रही है। उनकी तमाम आलोचनाओं के बाद
भी भारत में भाषायी प्रेस की स्थापना और स्वतंत्रता के लिए किए गए उनके योगदान को भाषायी पत्रकारिता के इतिहास में भुलाया नहीं जा सकता है। राजा राममोहन राय अपनी मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व ब्रिटेन में जा बसे थे जहां 27 सितंबर, 1833 को ब्रिस्टल (इंग्लैण्ड) में उनका निधन हो गया।

Friday, August 19, 2011

वैचारिक पत्रकारिता के स्तंभ महर्षि अरविन्द



महर्शि अरविंद महान योगी, क्रान्तिकारी, राश्ट्रवाद के अग्रदूत, प्रखर वक्ता एवं पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं। महर्शि अरविंद की पत्रकारिता के बारे में देषवासियों को बहुत अधिक जानकारी नहीं रही है। जिसके बारे में जानना नवोदित पत्रकार पीढ़ी के लिए आवष्यक है। महर्शि अरविंद उन पत्रकारों में से एक थे, जिन्होंने समाचार पत्रों के माध्यम से तत्कालीन जनमानस को स्वाधीनता संग्राम के लिए तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। उनका जन्म 15 अगस्त, 1872 में कलकत्ता के एक बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता कृश्णधन घोश कलकत्ता के ख्यातिप्राप्त वकील थे, जो पूरी तरह से पष्चिमी सभ्यता के प्रभाव में थे। महर्शि अरविंद की माता का नाम स्वर्णलता देवी था, पिता के दबाव में माता को भी पष्चिम की सभ्यता के अनुसार ही रहना पड़ता था।

महर्शि अरविंद की षिक्षा-दीक्षा भी अंग्रेजी वातावरण में ही हुई थी। उनके पिता ने उन्हें पांच वर्श की अवस्था में दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में दाखिल करवा दिया, जिसका प्रबंध यूरोपीय लोग करते थे। अरविंद अपने बाल्यकाल के सात वर्शों तक ही भारत में रहे, जिसके पष्चात उनके पिताजी ने उन्हें उनके भाइयों के साथ इंग्लैण्ड भेज दिया। जहां मैनचेस्टर के एक अंग्रेज परिवार में उनका पालन-पोशण हुआ।

महर्शि अरविंद ने ब्रिटेन में अपनी षिक्षा सैंट पॉल स्कूल और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के किंग्स कॉलेज में प्राप्त की। पष्चिमी सभ्यता में पले-बढ़े महर्शि अरविंद एक दिन भारतीय संस्कृति के व्याख्याता होंगे, ऐसा षायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा। फरवरी 1893 में महर्शि अरविंद भारत लौटे, ब्रिटेन से लौटने के पष्चात उन्होंने बड़ौदा कॉलेज में अध्यापन कार्य किया। यही वह समय था, जब बंगाल विभाजन के परिणाम स्वरूप देष में 1857 के पष्चात क्रांति की ज्वाला एक बार फिर से प्रखर हो रही थी। जिसका केन्द्र कलकत्ता ही था। महर्शि अरविंद बड़ौदा से कलकत्ता भी आते-जाते रहते थे। जहां वे क्रांतिकारी गतिविधियों में सहयोग करने लगे।

सन 1907 में अरविन्द ने कांग्रेस के क्रांतिकारी संगठन नेषलिस्ट पार्टी के राश्ट्रीय अधिवेषन की अध्यक्षता की। इसी वर्श अरविंद घोश ने विपिनचंद्र पाल के अंग्रेजी दैनिक वन्दे मातरम में काम करना षुरू कर दिया। महर्शि अरविंद का पत्रकारिता के क्षेत्र में इससे पूर्व ही पदार्पण हो चुका था। उन्होंने अपनी पत्रकारिता की षुरूआत सन 1893 में मराठी साप्ताहिक ‘‘इन्दु प्रकाष‘‘ से की थी। जिसमें उनके नौ लेख प्रकाषित हुए थे, इनमें षुरूआती दो लेख उन्होंने ‘‘भारत और ब्रिटिष संसद‘‘ षीर्शक के साथ लिखे थे। इसके बाद 16 जुलाई से 27 अगस्त, 1894 के दौरान उनकी सात लेखों की एक श्रृंखला प्रकाषित हुई थी। वे लेख उन्होंने ‘‘वन्दे मातरम‘‘ के रचयिता एवं बांग्ला के महान साहित्यकार बंकिम चंद्र चटर्जी को श्रद्धांजलि देते हुए लिखे थे। इसके बाद अरविंद की लेखन प्रतिभा के दर्षन बंगाली दैनिक ‘‘युगांतर‘‘ हुए। जिसकी षुरूआत मार्च, 1906 में उनके भाई बरिन्द्र और अन्य साथियों ने की, इस पत्र के प्रकाषन पर मई, 1908 में ब्रिटिष सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया।

इसके बाद महर्शि अरविंद ने अंग्रेजी दैनिक वन्दे मातरम में कार्य किया। इस पत्र में प्रकाषित उनके लेखों ने क्रांति के ज्वार में एक नया तूफान ला दिया। वन्दे मातरम में उनके लेखों के बारे में कहा जाता है कि भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में इतने प्रखर राश्टवादी लेख कभी नहीं लिखे गए। ब्रिटिष सरकार की नीतियों के विरोध में लिखने पर वन्दे मातरम पर राजद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया गया। अरविंद को संपादक के रूप में अभियुक्त बनाया गया। इस अवसर पर विपिन चंद्र पाल

ने उनका बहुत सहयेग किया, उन्होंने अरविंद को पत्र का संपादक मानने से ही इंकार कर दिया। जिसके लिए उन्हें छह माह का कारावास भुगतना पड़ा, परंतु सरकार अरविंद को दोशी नहीं सिद्ध कर पाई। अदालत के द्वारा अरविंद को दोशमुक्त करार दिए जाने पर देष भर में जष्न मनाया गया एवं स्थान-स्थान पर संगोश्ठियां आयोजित हुईं। उनके पक्ष में संपादकीय लिखे गए तथा उन्हें सम्मानित किया गया। अरविंद की पत्रकारिता की लोकप्रियता का ही कारण था कि कलकत्ता के लालबाजार की पुलिस अदालत के बाहर हजारों युवा एकत्र होकर वन्दे मातरम के नारे लगाते थे। जहां अरविंद के मामले की सुनवाई चल रही थी। सितंबर 1908 में वन्दे मातरम का प्रकाषन बंद हो गया। जिसके बाद उन्होंने 15 जून, 1909 को कलकत्ता से ही अंग्रेजी साप्ताहिक कर्मयोगी और 23 अगस्त, 1909 को बंगााली साप्ताहिक धर्म की षुरूआत की, जिनका मूल स्वर राश्ट्रवाद ही था। महर्शि अरविंद ने इन दोनों पत्रों में राश्ट्रवाद के अलावा सामाजिक समस्याओं पर भी लिखा। उनके इन पत्रों से विचलित होकर तत्कालीन वायसराय के सचिव ने लिखा था- ‘‘सारी क्रांतिकारी हलचल का दिल और दिमाग यही व्यक्ति है, जो ऊपर से कोई गैर कानूनी कार्य नहीं करता और किसी तरह कानून की पकड़ में नहीं आता।‘‘

महर्शि अरविंद का लेखन उनके अंतिम समय तक अनवरत चलता रहा। सन 1910 में वे कर्मयोगी और धर्म को भगिनी निवेदिता को सौंप कर चन्द्रनगर चले गए। इसके बाद वे अन्तः प्रेरणा से पांडिचेरी पहुंचे। वहां भी उन्होंने ‘‘आर्य‘‘ अंग्रेजी मासिक की षुरूआत की, जिसमें उन्होंने प्रमुख रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक विशयों पर लिखा। ‘‘आर्य‘‘ मासिक में उनकी अमर रचनाएं प्रकाषित हुईं। जिनमें प्रमुख हैं लाइफ डिवाइन, सीक्रेट ऑफ योग एवं गीता पर उनके निबंध। महर्शि अरविंद का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय की पत्रकारिता में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पत्रकारिता में राश्ट्रवादी स्वर को स्थान देने वालों में अरविंद का नाम सदैव उल्लेखनीय रहेगा। 5 दिसंबर 1950 को महर्शि अरविंद देह त्याग कर अनंत में विलीन हो गए।

पूंजीपतियों के चरणों में अर्पित पत्रकारिता- माखनलाल चतुर्वेदी


वर्तमान समय में पत्रकारिता के कर्तव्य, दायित्व और उसकी भूमिका को लोग संदेह से परे नहीं मान रहे हैं। इस संदेह को वैष्विक पत्रकारिता जगत में न्यूज ऑफ द वर्ल्ड और राश्ट्रीय स्तर पर राडिया प्रकरण ने बल प्रदान किया है। पत्रकारिता जगत में यह घटनाएं उन आषंकाओं का प्रादुर्भाव हैं जो पत्रकारिता के पुरोधाओं ने बहुत पहले ही जताई थीं। पत्रकारिता में पूंजीपतियों के बढ़ते प्रभाव के बारे में पत्रकारिता के महान आदर्ष माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था-

‘‘दुख है कि सारे प्रगतिवाद, क्रांतिवाद के न जाने किन-किन वादों के रहते हुए हमने अपनी इस महान कला को पूंजीपतियों के चरणों में अर्पित कर दिया है।‘‘ (पत्रकारिताः इतिहास और प्रष्न- कृश्ण बिहारी मिश्र)

भारत की पत्रकारिता की कल्पना हिंदी से अलग हटकर नहीं की जा सकती है, परंतु हिंदी पत्रकारिता जगत में भी अंग्रेजी षब्दों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। भाशा के मानकीकरण की दृश्टि से यह उचित नहीं कहा जा सकता है माखनलाल चतुर्वेदी भाशा के इस संक्रमण से बिल्कुल भी संतुश्ट नहीं थे। उन्होंने कहा कि-

‘‘राश्ट्रभाशा हिंदी और तरूणाई से भरी हुई कलमों का सम्मान ही मेरा सम्मान है।‘‘(राजकीय सम्मान के अवसर पर)

राश्ट्रभाशा हिंदी के विशय में माखनलाल जी ने कहा था-

‘‘जो लोग देष में एक राश्ट्रभाशा चाहते हैं। वे प्रांतों की भाशाओं का नाष नहीं चाहते। केवल विचार समझने और समझाने के लिए राश्ट्रभाशा का अध्ययन होगा, बाकि सब काम मातृभाशाओं में होंगे। ऐसे दुरात्माओं की देष को जरूरत नहीं, जो मातृभाशाओं को छोड़ दें।‘‘(पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, षिवकुमार अवस्थी)

पत्रकारिता पर सरकारी नियंत्रण एक ऐसा मुददा है, जो हमेषा जीवंत रहा है। सरकारी नियंत्रण के बारे में भी माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने विचारों को स्पश्ट करते हुए अपने जीवनी लेखक से कहा था-

‘‘जिला मजिस्ट्रेट मिओ मिथाइस से मिलने पर जब मुझसे पूछा गया की एक अंग्रेजी वीकली के होते हुए भी मैं एक हिंदी साप्ताहिक क्यों निकालना चाहता हूं तब मैंने उनसे निवेदन किया कि आपका अंग्रेजी साप्ताहिक तो दब्बू है। मैं वैसा समाचार पत्र नहीं निकालना चाहता हूं। मैं एक ऐसा पत्र निकालना चाहूंगा कि ब्रिटिष षासन चलता-चलता रूक जाए।‘‘ (पत्रकारिताः इतिहास और प्रष्न- कृश्ण बिहारी मिश्र)

माखनलाल चतुर्वेदी ने पत्रकारिता के ऊंचे मानदंड स्थापित किए थे, उनकी पत्रकारिता में राश्ट्र विरोधी किसी भी बात को स्थान नहीं दिया जाता था। यहां तक कि माखनलाल जी महात्मा गांधी के उन वक्तव्यों को भी स्थान नहीं देते थे, जो क्रांतिकारी गतिविधियों के विरूद्ध होते थे। सरकारी दबाव में कार्य करने वाली पत्रकारिता के विशय में उन्होंने अपनी नाराजगी इन षब्दों में व्यक्त की थी-

‘‘मैंने तो जर्नलिज्म में साहित्य को स्थान दिया था। बुद्धि के ऐरावत पर म्यूनिसिपल का कूड़ा ढोने का जो अभ्यास किया जा रहा है अथवा ऐसे प्रयोग से जो सफलता प्राप्त की जा रही है उसे मैं पत्रकारिता नहीं मानता।‘‘ (पत्रकारिताः इतिहास और प्रष्न- कृश्ण बिहारी मिश्र)

वर्तमान समय में हिंदी समाचारपत्रों को पत्र का मूल्य कम रखने के लिए और अपनी आय प्राप्त करने के लिए विज्ञापनों पर निर्भर रहना पड़ता है, क्योंकि पाठक न्यनतम मूल्य में ही पत्र को लेना चाहते हैं। हिंदी पाठकों की इस प्रवृत्ति से क्षुब्ध होकर माखनलाल जी ने कहा-

‘‘मुफ्त में पढ़ने की पद्धति हिंदी से अधिक किसी भाशा में नहीं। रोटी, कपड़ा, षराब और षौक की चीजों का मूल्य तो वह देता है पर ज्ञान और ज्ञान प्रसाधन का मूल्य चुकाने को वह तैयार नहीं। हिंदी का सबसे बड़ा षत्रु यही है।‘‘(पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, षिवकुमार अवस्थी)

माखनलाल चतुर्वेदी पत्र-पत्रिकाओं की बढ़ती संख्या और गिरते स्तर से भी चिंतित थे। पत्र-पत्रिकाओं के गिरते स्तर के लिए उन्होंने पत्रों की कोई नीति और आदर्ष न होने को कारण बताया। उन्होंने लिखा था-

‘‘हिंदी भाशा का मासिक साहित्य एक बेढंगे और गए बीते जमाने की चाल चल रहा है। यहां बरसाती कीड़ों की तरह पत्र पैदा होते हैं। फिर यह आष्चर्य नहीं कि वे षीघ्र ही क्यों मर जाते हैं। यूरोप में हर एक पत्र अपनी एक निष्चित नीति रखता है। हिंदी वालों को इस मार्ग में नीति की गंध नहीं लगी। यहां वाले जी में आते ही, हमारे समान, चार पन्ने निकाल बैठने वाले हुआ करते हैं। उनका न कोई आदर्ष और उददेष्य होता है, न दायित्व।‘‘

(इतिहास-निर्माता पत्रकार, डा. अर्जुन तिवारी)

पत्रकारिता को किसी भी राश्ट्र या समाज का आईना माना गया है, जो उसकी समसामयिक परिस्थिति का निश्पक्ष विष्लेशण करता है। पत्रकारिता की उपादेयता और महत्ता के बारे में माखनलाल चतुर्वेदी जी ने कर्मवीर के संपादकीय में लिखा था-

‘‘किसी भी देष या समाज की दषा का वर्तमान इतिहास जानना हो, तो वहां के किसी सामयिक पत्र को उठाकर पढ़ लीजिए, वह आपसे स्पश्ट कर देगा। राश्ट्र के संगठन में पत्र जो कार्य करते हैं। वह अन्य किसी उपकरण से होना कठिन है।‘‘(माखनलाल चतुर्वेदी, ऋशि जैमिनी बरूआ)

किसी भी समाचार पत्र की सफलता उसके संपादक और उसके सहयोगियों पर निर्भर करती है। जिसमें पाठकों का सहयोग प्रतिक्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। समाचारपत्रों की घटती लोकप्रियता के लिए माखनलाल जी ने संपादकों और पाठकों को जिम्मेदार ठहराते हुए लिखा था-

‘‘इनके दोशी वे लोग ही नहीं हैं जो पत्र खरीदकर नहीं पढ़ते। अधिक अंषों में वे लोग भी हैं जो पत्र संपादित और प्रकाषित करते हैं। उनमें अपने लोकमत की आत्मा में पहुंचने का सामर्थ्य नहीं। वे अपनी परिस्थिति को इतनी गंदी और निकम्मी बनाए रखते हैं, जिससे उनके आदर करने वालों का समूह नहीं बढ़ता है।‘‘(पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, षिवकुमार अवस्थी)

भारतीय पत्रकारिता अपने प्रवर्तक काल से ही राश्ट्र और समाज चेतना के नैतिक उददेष्य को लेकर ही यहां तक पहुंची है। वर्तमान समय में जब पत्रकार को पत्रकारिता के नैतिक कर्तव्यों से हटकर व्यावसायिक हितों के लिए कार्य करने में ही कैरियर दिखने लगा है। ऐसे समय में पत्रकारिता के प्रकाषपुंज माखनलाल चतुर्वेदी के आदर्षों से प्रेरणा ले अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ने की आवष्यकता है।

Thursday, August 18, 2011

भ्रष्टाचार के कारण और निवारण



भारत में यह समय भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ने का है. समस्त देश में भ्रष्टाचार एक व्यापक मुद्दा है जिसके लिए जनता के जनजागरण की आवश्यकता है. यह जनजागरण सरकार बदलने के लिए नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए होना चाहिए. हमने इससे पहले भ्रष्टाचार को लेकर सरकारें बदली भी है और सरकार बनाई भी है. हमने भ्रष्टाचार एवं आपातकाल के मुद्दे को लेकर सन १९७७ में सरकार बनाने में सफलता पाई थी, लेकिन हम भ्रष्टाचार को रोकने में सफल नहीं हो पाए. इसका कारण यह है कि भ्रष्टाचार सरकारों की खामियों से ही नहीं बल्कि व्यवस्था की खामियों से भी है.

हमारे यहाँ लोकतंत्र की परिभाषा ही विकृत हो गयी है. लोकतंत्र का अर्थ होता है लोगों का तंत्र, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में तंत्र लोक पर हावी हो गया है. तंत्र लोगों पर नियंत्रण करने लगा है, लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि तंत्र लोगों के द्वारा निर्देशित हो और उनकी आवश्यकताओं के अनुसार कार्य करे. लोकतंत्र में तंत्र की भूमिका केवल प्रबंधन के स्तर तक और प्रतिनिधित्व के स्तर तक सीमित रहनी चाहिए. व्यवस्था परिवर्तन को लेकर आन्दोलन करने और लड़ाई छेड़ने से पहले हमें भ्रष्टाचार को समझने की आवश्यकता है. हमें भ्रष्टाचार की परिभाषा तय करनी होगी तथा उसकी मात्रा का भी पता लगाना होगा. इसके बाद भ्रष्टाचार से निपटने का समाधान और यह समाधान कौन करेगा यह भी हमें तय करना होगा. इसके बाद हमको भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ने की ओर बढ़ना होगा.



भ्रष्टाचार की परिभाषा- जो कार्य मालिक से छिपाकर किया जाये (इसमें घूस लेना भी शामिल) वह भ्रष्टाचार है. अब यदि मालिक की बात करें तो मालिक तो तथाकथित सरकार है और उससे छिपाकर किया जाये वह भ्रष्टाचार है. यह तो सरकार और भ्रष्टाचारी के बीच का मामला हुआ, इसे सामाजिक भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है. यह केवल व्यवस्था के अंतर्गत भ्रष्टाचार है. अब इसमें भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम नियुक्त हुए व्यक्ति से नहीं बल्कि उसको नियुक्त करने वाली संस्था के विरुद्ध लड़ाई लड़ें अर्थात नियुक्तिकर्ता से लड़ाई लड़ें. हमारे समाज में प्रमुख समस्या यह है कि भ्रष्टाचार करने वालों ने भ्रष्टाचार की परिभाषा ही बदल दी है. हमें यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार अपराध नहीं गैरकानूनी कृत्य है. दरअसल भारत के तंत्र ने यह अनुभव किया कि यदि नागरिक स्वयं को निर्दोष समझेगा तो तंत्र को चुनौती देगा. इसलिए इतने क़ानून बना दिए जाएँ कि उनका पालन न कर पाने के कारण वह स्वयं को अपराधी मानने लगे. यह स्थिति अधिक कानून बनाने से उत्पन्न हुई. इसलिए भ्रष्टाचार और क़ानून व्यवस्था पर नियंत्रण करने के लिए हमें अपराधों का वर्गीकरण करना होगा.

अपराधों का वर्गीकरण आवश्यक- भारत में नागरिकों को तीन प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं- मूलभूत अधिकार, संवैधानिक अधिकार एवं सामाजिक अधिकार. यदि कोई व्यवस्था या व्यक्ति किसी व्यक्ति के मूल अधिकारों का हनन करता है तो यह अपराध की श्रेणी में आएगा और किसी के संवैधानिक अधिकारों का यदि हनन किया जाता है तो यह गैरकानूनी की श्रेणी में आएगा. इसी प्रकार से यदि किसी व्यक्ति के सामाजिक अधिकारों का हनन होता है तो यह अनैतिक कि श्रेणी में आएगा. इन तीनों का वर्गीकरण करने पर देश भर में अपराधियों की संख्या केवल २% ही रह जाती है. ऐसे में हमारी व्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि वह केवल २% अपराधों पर ही नियंत्रण का कार्य करे, बाकी की चिंता छोड़ दे. अब प्रश्न यह उठता है कि हमारे मूलभूत अधिकारों का हनन करने वाला कौन है? हमारे अधिकारों का हनन करने वाले वह लोग हैं, जिनको हमने अपने अधिकार अमानत में दिए हैं और उनको अपने अधिकारों की रक्षा का दायित्व दिया है. हमारे द्वारा दी गयी अमानत में खयानत करने वाले ही मुख्य रूप से अपराधी हैं और वह हैं हमारे राजनेता. अब हमें इन अपराधों पर नियंत्रण करने के उपायों के बारे में विचार करना होगा.

भ्रष्टाचार एवं अपराध रोकने के उपाय- भारत में अपराध रोकने की शक्ति केवल २% है, यदि अपराध २% से अधिक हो जायेगा तो सरकार उसको नियंत्रित नहीं कर पायेगी. इसलिए सरकार को केवल २% अपराधों के नियंत्रण पर ध्यान देने की आवश्यकता है. यदि इससे अधिक अपराधों पर नियंत्रण करने का प्रयास सरकार करेगी तो व्यवस्था पंगु हो जाएगी. अपनी क्षमताओं से अधिक कार्य करने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी ही नहीं चाहिए. इसलिए यह आवश्यक है कि सरकार २% अपराधों पर पूरी शक्ति से नियंत्रण करने का प्रयास करे. अब सवाल यह भी उठता है कि क्या गलत लोगों को पकड़वाकर भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है. ऐसा संभव ही नहीं है, इस व्यवस्था के अंतर्गत तो बिल्कुल भी संभव नहीं है. इसका उपाय यह हो सकता है कि हम भ्रष्टाचार के अवसर ही पैदा न होने दें, लेकिन सरकार ऐसा करने के बजाय अधिकाधिक कानूनों के माध्यम से जनता को ही दोषी ठहराने के प्रयास में लगी हुई है. इसमें धर्मगुरु भी पीछे नहीं हैं. राजनेता और धर्मगुरु जनता को ही दोषी ठहराने में लगे हैं, लेकिन यह लोग तंत्र को दोषी नहीं बताते हैं. इसलिए आवश्यकता है कि तंत्र में व्याप्त विसंगतियों को दूर करते हुए इन समस्याओं से निपटने का प्रयास किया जाये.

कानून एवं नीतियों में विसंगतियां- भारत में कानूनों में भी असमानता है. जैसे बिना लाइसेंस के हथियार रखने का केस तो लोअर कोर्ट में चलेगा और गांजा की तस्करी का केस सेशन कोर्ट में चलेगा. इसी प्रकार से हमारी आर्थिक नीतियों में भी भारी असमानता है. हमारे यहाँ साईकिल पर तो ४०० रुपये का टैक्स है और गैस पर सब्सिडी है. विचारणीय प्रश्न यह है कि ३३% गरीब ५% गैस की खपत करता है और ३३% अमीर ७०% ऊर्जा की खपत करता है. इसी प्रकार से छत्तीसगढ़ सरकार ने कानून बनाया है कि २५ गन्ना किसानों को २५ किलोमीटर के दायरे में ही अपनी फसल को बेचना होगा, अर्थात मेहनत किसान की और लाभ मिलों का. इस प्रकार के कानून जनहितकारी नहीं हैं.

काले धन की समस्या और उसका निवारण- काला धन भारत में वापस आये यह अच्छा है लेकिन इससे पहले हमें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि क्या काला धन बनना बंद हुआ? क्या काला धन बाहर जाना बंद हुआ है? इसलिए जरूरी यह है कि काला धन बनना रुके और देश से बाहर जाना रुके. काले धन की लड़ाई में हमें एक और मुद्दे को जोड़ देना चाहिए, वह मुद्दा है जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार. लोक और तंत्र के अधिकार घोषित होने चाहिए, वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत जनता अधिकार शून्य है.

सत्ता के विकेंद्रीकरण की आवश्यकता- यदि किसी व्यक्ति या संस्था को असीमित अधिकार दिए जाते हैं तो भ्रष्टाचार की आशंका बढ़ जाती है. यदि मुख्यमंत्री, सांसद या विधायक का पद महंगा होगा तो उस पर सुशोभित व्यक्ति अपने आप ही भ्रष्ट हो जायेगा. इसलिए यह आवश्यक है कि उनके अधिकारों का विकेंद्रीकरण किया जाये. हमें ग्राम पंचायतों को भी अधिक अधिकार देने होंगे, जिससे सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा. यदि इस व्यवस्था में भी भ्रष्टाचार आंशिक रूप से रह जाता है तो भी वह वर्तमान व्यवस्था से कम ही होगा. विकेंद्रीकरण किये जाने से जनभागीदारी भी बढ़ेगी और व्यवस्था में शामिल लोगों की स्पष्ट रूप से जवाबदेही भी तय हो सकेगी.

अंत में मैं यही कहूँगा कि भ्रष्टाचार की वर्तमान लड़ाई केवल एक शुरुआत या प्रतीक भर है. जिसके आगामी चरणों में हमें व्यवस्था परिवर्तन, सत्ता का विकेंद्रीकरण और जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार जैसे मुद्दों को सम्मिलित करना होगा. तभी भ्रष्टाचार मुक्त, सुदृढ़ लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अंतर्गत भारत की आगे की राह तय हो पायेगी.

(सुप्रसिद्ध चिन्तक बजरंग मुनि से बातचीत पर आधारित)

Tuesday, August 9, 2011

हिंद स्वराज की अनंत यात्रा



महात्मा गाँधी की अमर कृति हिंद स्वराज की विभिन्न लेखकों और विद्वानों ने समय-समय पर समीक्षा की है. हिंद स्वराज वह ग्रन्थ है, जिसमें महात्मा गाँधी ने तत्कालीन समय में भविष्य के भारत का खाका प्रस्तुत किया था. लेकिन स्वतंत्रता के उपरांत भारत की राजसत्ता ने हिंद स्वराज की नैतिकता और नीति को नकार दिया. वर्तमान समय का भारत उसी परिस्थिति में जा पहुंचा है जिसे महात्मा गाँधी भारत के स्थायी विकास के लिए उपयुक्त नहीं मानते थे. ऐसी परिस्थिति में जब उच्चतर मूल्यों का अँधेरा ही अँधेरा है, तब हिंद स्वराज इस अँधेरे में प्रकाश पुंज के समान है. हिंद स्वराज की प्रासंगिकता को जीवंत बनाये रखने का प्रयास करते हुए अजय कुमार उपाध्याय ने हिंद स्वराज की अनंत यात्रा पुस्तक की रचना की है. इस पुस्तक में हिंद स्वराज की समीक्षा के साथ-साथ तत्कालीन घटनाक्रम का भी वर्णन किया गया है. जिसके माध्यम से हमें तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और स्वाधीनता आन्दोलन के घटनाक्रम को समझने में सहायता मिलती है.

हिंद स्वराज की अनंत यात्रा के माध्यम से लेखक ने लन्दन में महात्मा गाँधी और क्रांतिकारियों के संबंधों के बारे में बताया है. लन्दन के घटनाक्रम ने ही महात्मा गाँधी को हिंद स्वराज लिखने के लिए प्रेरित किया था. इस पुस्तक में हिंद स्वराज की उस अनंत यात्रा का वर्णन है जो महात्मा गाँधी के भारत आने के बाद अनवरत चलती रही. इसमें महात्मा गाँधी द्वारा सत्याग्रह, असहयोग, हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रयासों और उसके इतिहास तथा पृष्ठभूमि का स्पष्ट वर्णन है. तत्कालीन कांग्रेस की स्वतंत्रता आन्दोलन में भूमिका, बंग-भंग और राष्ट्रीय पुनर्जागरण पर भी इस पुस्तक में प्रकाश डाला गया है. खिलाफत आन्दोलन के माध्यम से मुस्लिमों के बढ़ते तुष्टिकरण और उसके दुष्प्रभावों पर भी इस पुस्तक में प्रकाश डाला गया है. हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयासों के असफल होने के पश्चात् महात्मा गाँधी की निराशा के बारे में भी लेखक ने तथ्यपूर्ण जानकारी दी है. सविनय अवज्ञा आन्दोलन, द्वितीय गोलमेज सम्मलेन के घटनाक्रम का भी पुस्तक में तथ्यपूर्ण वर्णन है. द्वितीय विश्व युद्ध का भारत के स्वाधीनता आन्दोलन पर क्या प्रभाव पड़ा इसकी भी इस पुस्तक में तथ्यपूर्ण जानकारी है.

हिंद स्वराज को लेकर महात्मा गाँधी और पंडित नेहरु के मतभेदों की भी इस पुस्तक में अकाट्य तथ्यों के माध्यम से जानकारी दी गयी है. भारत की स्वाधीनता से पूर्व भारत विभाजन की पटकथा लिखे जाने की भी सटीक जानकारी इस पुस्तक से मिलती है. विभाजन के समय के समय भड़के दंगों के समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सेवा कार्यों की भी इस पुस्तक में जानकारी दी गयी है. लेखक ने हिंद स्वराज की अनंत यात्रा के माध्यम से महात्मा गाँधी के लन्दन प्रवास से लेकर उनकी हत्या तक के काल के घटनाक्रम को प्रस्तुत किया है. यह पुस्तक वर्तमान परिस्थितियों में हिंद स्वराज और महात्मा गाँधी के अनंत सन्देश को प्रचारित और प्रसारित करने का एक सुन्दर प्रयास है.

Monday, July 25, 2011

क्रान्तिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी



गणेश शंकर विद्यार्थी! यह एक नाम ही नहीं बल्कि अपने आप में एक आदर्श विचार है। वह एक पत्रकार होने के साथ-साथ एक महान क्रांतिकारी और समाज सेवी भी थे। पत्रकारिता के नैतिक कर्तव्य को निभाते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। उनका समस्त जीवन पत्रकारिता जगत के लिए अनुकरणीय आदर्श है। विद्यार्थी जी का जन्म आश्विन शुक्ल 14, रविवार सं। 1947 (1890 ई.) को अपनी ननिहाल, इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले में हुआ था। उनकी माता का नाम गोमती देवी तथा पिता का नाम मुंशी जयनारायण था।

गणेश शंकर विद्यार्थी
मूलतः फतेहपुर(उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। उनके पिता ग्वालियर रियासत में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के हेडमास्टर थे। गणेश शंकर विद्यार्थी का बाल्यकाल भी ग्वालियर में ही बीता तथा वहीँ उनकी शिक्षादीक्षा हुई। विद्यारंभ उर्दू से हुआ और 1905 ई. में भेलसा से अँगरेजी मिडिल परीक्षा पास की। 1907 ई. में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में कानपुर से एंट्रेंस परीक्षा पास करके आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला कालेज में भर्ती हुए। उसी समय से पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और इलाहाबाद के हिंदी साप्ताहिक कर्मयोगी के संपादन में सहयोग देने लगे।

सन १९०८ में गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर के करेंसी ऑफिस में ३० रुपये मासिक पर नौकरी की। लेकिन एक अंग्रेज अधिकारी से झगडा होने के पश्चात् विद्यार्थी जी ने इस नौकरी को त्याग दिया। नौकरी छोड़ने के पश्चात् सन १९१० तक विद्यार्थी जी ने अध्यापन कार्य किया, यही वह समय था जब विद्यार्थी जी ने सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य, हितवार्ता आदि पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखना प्रारंभ किया।

सन १९११ में गणेश शंकर विद्यार्थी को सरस्वती पत्रिका में महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ समय बाद "सरस्वती" छोड़कर "अभ्युदय" में सहायक संपादक हुए जहाँ विद्यार्थी जी ने सितम्बर, सन १९१३ तक अपनी कलम से राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाने का कार्य किया। दो ही महीने बाद 9 नवंबर, 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक प्रताप के नाम से निकाला।

गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप के प्रथम अंक में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, राष्ट्रीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए ही उनकी पत्रकारिता समर्पित है। ''प्रताप'' पत्र में अंग्रजों की दमनपूर्ण नीति की मुखर आलोचना के कारण सरकार ने प्रताप का प्रकाशन बंद करवाकर गणेश शंकर विद्यार्थी पर राजद्रोह का मुकदमा लगाकर जेल भेज दिया। अंग्रेजों की इस दमनपूर्ण कार्रवाई के बाद भी गणेश शंकर विद्यार्थी की राष्ट्रवादी कलम की प्रखरता कम न हो सकी।

जेल से छूटने के बाद आर्थिक संकट से जूझते विद्यार्थी जी ने किसी तरह व्यवस्था जुटाई तो 8 जुलाई 1918 को फिर प्रताप की शुरूआत हो गई। प्रताप के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता प्रताप को मुक्त हस्त से आर्थिक सहयोग करने लगी। इस का परिणाम यह हुआ कि विद्यार्थी जी ने २३ नवम्बर १९१९ से साप्ताहिक प्रताप का प्रकाशन दैनिक समाचार पत्र के रूप में प्रारंभ कर दिया।

विद्यार्थी जी के दैनिक पत्र ''प्रताप'' का प्रताप ऐसा था कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध व्यापक स्तर पर जन-जागरण हुआ। कहा जाता है कि स्वाधीनता आन्दोलन की अग्नि को प्रखर करने वाले समाचार पत्रों में प्रताप का प्रमुख स्थान था। लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से प्रताप की पहचान सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन मजिस्टेट मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देकर जमानत की राशि जब्त कर ली।

अंग्रेजों का कोपभाजन बने विद्यार्थी जी को 23 जुलाई 1921, 16 अक्टूबर 1921 में भी जेल की सजा दी गई परन्तु उन्होंने सरकार के विरुद्ध कलम की धार को कम नहीं किया। विद्यार्थी जी की कलम ने स्वाधीनता आन्दोलन कि क्रांति को ही प्रखर नहीं किया, बल्कि पूँजीवाद और सामन्तवाद की जनविरोधी नीतियों का भी अपनी पत्रकारिता के माध्यम से विरोध किया।

विद्यार्थी जी वह पत्रकार थे जिन्होनें अपने प्रताप की प्रेस से काकोरी कांड के नायक रामप्रसाद बिस्मिल की जीवनी का प्रकाशन किया। गणेश शंकर विद्यार्थी का ''प्रताप'' ही वह पत्र था, जिसमें भगत सिंह ने अपने फरारी के दिनों में छद्म नाम से पत्रकारिता की थी। विद्यार्थी जी का सम्पूर्ण पत्रकार जीवन ही राष्ट्रवाद, भारतीय संस्कृति, साम्प्रदायिक सद्भाव को समर्पित रहा।

पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी साम्प्रदायिकता के भी स्पष्ट विरोधी थे। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी सुनाये जाने पर देश भर में भड़के साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में विद्यार्थी जी ने अपना जीवन भी दांव पर लगा दिया। इन्हीं दंगों के दौरान गणेश शंकर विद्यार्थी निस्सहायों को बचाते हुए शहीद हो गए।

गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या के पश्चात महात्मा गाँधी ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में उनको श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि ''मुझे यह यह जानकर अत्यंत शोक हुआ कि गणेश शंकर विद्यार्थी अब हमारे बीच नहीं हैं। उनके जैसे राष्ट्रभक्त और स्वार्थहीन व्यक्ति की मृत्यु पर किस संवेदनशील व्यक्ति को कष्ट नहीं होगा''।

पं जवाहरलाल नेहरु ने दुःख व्यक्त करते हुए कहा ''यह जानकर अत्यंत दुःख हुआ कि हमारे प्रिय मित्र और राष्ट्रभक्त गणेश शंकर विद्यार्थी की साम्प्रदायिक दंगे में हत्या कर दी गयी है। नेहरु ने कहा गणेश शंकर कि शहादत एक राष्ट्रवादी भारतीय की शहादत है, जिसने दंगों में निर्दोष लोगों को बचाते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया"। कलम का यह सिपाही असमय ही चला गया। लेकिन उनकी प्रेरणाएं पत्रकारिता जगत और समस्त देश को सदैव प्रेरित करती रहेंगी। पत्रकारिता जगत के इस अमर पुरोधा को सादर नमन.....

सत्ता नहीं ,पाठक करें मीडिया की समीक्षा : महात्मा गांधी



पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी को ऐसा लगता है जैसे पत्रकारिता जगत वर्तमान समय में संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है पत्रकारिता के बारे में उस समय भी कुछ बातों पर पत्रकार चिंतित थे जिस समय को भारतीय पत्रकारिता का उत्कृष्ट समय कहा जाता है। भारतीय पत्रकारिता का आरंभिक दौर राष्ट्रवाद के जनजागरण को समर्पित था। यह समय भारत के स्वाधीनता आन्दोलन का समय था। भारत की स्वाधीनता को प्राप्त करने की दिशा में तत्कालीन पत्रकारिता और पत्रकारों की महती भूमिका रही थी। उस समय में पत्रकारों का एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ जिनके लिए राष्ट्र की स्वाधीनता ही परम ध्येय था। लेकिन उस समय में भी पत्रकारिता में विज्ञापन, पत्रकार का कर्तव्य और पत्रकारिता पर सरकारी नियंत्रण आदि ऐसी समस्याएँ थीं। जिनके बारे में महात्मा गाँधी जैसे अग्रणी नेता और पत्रकार ने भी बहुत कुछ लिखा था। महात्मा गाँधी ने तत्कालीन समाचार पत्रों में विज्ञापन के बढ़ते दुष्प्रभाव पर लिखा था-

"मैं समझता हूँ कि समाचारपत्रों में विज्ञापन का प्रकाशन बंद कर देना चाहिए। मेरा विश्वास है कि विज्ञापन उपयोगी अवश्य है लेकिन विज्ञापन के माध्यम से कोई उद्देश्य सफल नहीं हो सकता है। विज्ञापनों का प्रकाशन करवाने वाले वे लोग हैं जिन्हें अमीर बनने की तीव्र इच्छा है। विज्ञापन की दौड़ में हर तरह के विज्ञापन प्रकाशित होने लगे हैं, जिनसे आय भी प्राप्त होती है। आधुनिक नागरिकता का यह सबसे नकारात्मक पहलू है जिससे हमें छुटकारा पाना ही होगा। हमें गैर आर्थिक विज्ञापनों को प्रकाशित करना होगा जिससे सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हो सके। लेकिन इन विज्ञापनों को भी कुछ राशि लेकर प्रकाशित करना चाहिए। इसके अलावा अन्य विज्ञापनों का प्रकाशन तत्काल बंद कर देना चाहिए"।
(इंडियन ओपिनियन, ४ सितम्बर, १९१२)

महात्मा गाँधी ने पत्रकारिता के सिद्धांत और पत्रकार के कर्तव्यों के बारे में भी लिखा था। महात्मा गाँधी ने पत्रकारिता और पत्रकार के कर्तव्यों के बारे में सविस्तार उल्लेख करते हुए लिखा था कि -
"मैं महसूस करता हूँ कि पत्रकारिता का केवल एक ही ध्येय होता है और वह है सेवा। समाचार पत्र की पत्रकारिता बहुत क्षमतावान है, लेकिन यह उस पानी के समान है जो बाँध के टूटने पर समस्त देश को अपनी चपेट में ले लेता है और समस्त फसल को नष्ट कर देता है"। (सत्य के साथ प्रयोग अथवा आत्मकथा)

समाचारपत्र लोकतंत्र के स्थायीकरण में किस प्रकार से सहायक हो सकते हैं इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा -
वास्तव में आदर्श लोकतंत्र की आवश्यकता क्या है ? तथ्यों की जानकारी या सही शिक्षा ? निश्चित तौर पर सही शिक्षा। पत्रकारिता का कार्य लोगों को शिक्षित करना है न कि आवश्यक-अनावश्यक तथ्यों अवं समाचारों से उनके विवेक को सीमित कर देना। एक पत्रकार को हमेशा इस बारे में स्वतंत्र रहना चाहिए कि उसे कब और कौन सी रिपोर्ट करनी है। इसी प्रकार से एक पत्रकार को केवल तथ्य जुटाने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। बल्कि आगे होने वाली घटनाओं का पूर्वानुमान होना भी पत्रकार के लिए आवश्यक है।
(महात्मा गाँधी- तेंदुलकर: महात्मा १९५३,पेज २४७)

महात्मा गाँधी ने समाचार में प्रकाशित समस्त जानकारियों को पूर्णतः सच मानने से भी इनकार किया है। वे समाचार पत्रों के माध्यम से राय बनाने के भी सख्त विरोधी थे। उन्होंने कहा "समाचारपत्रों को केवल तथ्यों की जानकारी के लिए पढ़ा जाना चाहिए। लेकिन समाचारपत्रों को यह आज्ञा नहीं दी जा सकती है कि वे स्वतंत्र चिंतन को समाप्त कर दें"।

उन्होंने समाचारपत्रों को पूर्णतः विश्वसनीय न मानते हुए कहा- "पश्चिमी देशों की तरह पूरब में भी समाचार पत्र को गीता,बाईबल और कुरान की तरह से माना जा रहा है। ऐसा माना जा रहा जैसे समाचार पत्रों में ईश्वरीय सत्य ही लिखा हो। मैं समाचारपत्र के माध्यम से राय बनाने का विरोधी हूँ। समाचारपत्रों को केवल तथ्यों की जानकारी के लिए ही पढ़ा जाना चाहिए। लेकिन समाचारपत्रों को यह आज्ञा नहीं दी जा सकती है कि वे स्वतंत्र चिंतन को समाप्त कर दें। मैं पत्रकार मित्रों से केवल यही कहूँगा कि वे समाचारपत्रों में केवल सत्य ही प्रकाशित करें कुछ और नहीं"।

जनसंचार माध्यमों की स्वायत्ता और सरकारी नियंत्रण एक ऐसा मुद्दा है जो हमेशा ही जीवंत रहा है। यह उस समय में भी था, जब भारत में पत्रकारिता अपने शैशव काल में थी। महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश लोगों पर समाचारपत्रों के व्यापक प्रभाव का अध्धयन किया। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि ब्रिटिश सरकार किस प्रकार से समाचार पत्रों को अपने पक्ष में माहौल तैयार करने के लिए अपने प्रभाव में लेती थी। ब्रिटिश लोगों को ध्यान में रखते हुए महात्मा गाँधी ने भारतीय पत्रकारिता जगत को चेताया कि-

"ब्रिटिश जनता के लिए उनका समाचार पत्र ही उनका बाईबल होता है। वे अपनी धारणा समाचारपत्रों के माध्यम से ही बनाते हैं। एक ही तथ्य को विभिन्न समाचार पत्रों में विभिन्न तरीकों से दिया जाता है। समाचार पत्र उस पार्टी के मुताबिक लिखते हैं जिस पार्टी का वे समर्थन करते हैं। हमें ब्रिटिश पाठकों को आदर्श मानते हुए यह देखना चाहिए कि समाचारपत्रों के अनुसार ही इनकी विचारधारा में किस प्रकार से बदलाव आता है। ऐसे लोगों के विचारों में बहुत जल्दी-जल्दी परिवर्तन होते रहते हैं। ब्रिटेन में कहा जाता है कि प्रत्येक सात वर्ष के पश्चात पाठकों की राय में परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार से लोग उनके शिकंजे में आ जाते हैं जो एक अच्छे वक्ता अथवा नेतृत्वकर्ता होते हैं। इसको संसद भी कह सकते हैं। यह लोग अपनी सत्ता को जाते हुए नहीं देख सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति उनके और सत्ता के बीच में आता है तो वे उसकी आँख भी निकाल सकते हैं। "

महात्मा गाँधी ने लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पत्रकारिता को व्यापक अधिकार देने की भी पैरोकारी की। महात्मा गाँधी ने कहा-"प्रेस की आजादी ऐसा बहुमूल्य विशेषाधिकार है जिसे कोई भी राष्ट्र भूल नहीं सकता है।"

महात्मा गाँधी ने कहा कि "ऐसी परिस्थिति में जब संपादक ने समाचार पत्र में कुछ ऐसी सामग्री प्रकाशित कर दी हो उसे क्या करना चाहिए ? क्या उसे सरकार से माफ़ी मांगनी चाहिए? नहीं, बिलकुल नहीं। यह सत्य है कि संपादक ऐसी सामग्री प्रकाशित करने के लिए बाध्य नहीं है, लेकिन एक बार प्रकाशन के पश्चात वापस लेना भी उचित नहीं है।"

किसी भी समाचारपत्र की सफलता मुख्यत संपादक की कार्यशैली और योग्यता पर ही निर्भर करती है। महात्मा गाँधी ने संपादकों के कार्य के विषय में अपने विचार स्पष्ट करते हुए लिखा-
"पत्रकारिता को चौथा स्तम्भ माना जाता है। यह एक प्रकार की शक्ति है, लेकिन इसका गलत प्रयोग एक अपराध है। मैं एक पत्रकार के नाते अपने पत्रकार मित्रों से अपील करता हूँ कि वे अपनी जिम्मेदारी को महसूस करें और बिना किसी अन्य विचार के केवल सत्य को ही प्रस्तुत करें।"

"समाचारपत्रों में लोगों को शक्तिशाली तरीके से प्रभावित करने की क्षमता है। इसलिए संपादकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई गलत रिपोर्ट न चली जाए जो लोगों को उत्तेजित करती हो।"
"संपादक और उसके सहायकों को इस बारे में हमेशा जागरूक रहना चाहिए, कि वे किस समाचार को किस तरह से प्रस्तुत करते हैं।"
"किसी स्वतंत्र राष्ट्र में सरकार के लिए प्रेस पर नियंत्रण रख पाना असंभव है। ऐसे में पाठकों का यह उत्तरदायित्व है कि वे प्रेस की समीक्षा करें और उन्हें सही रास्ता दिखाएँ। समाज का प्रबुद्ध वर्ग भड़काऊ समाचारपत्रों को नकार देगा।"