Friday, February 25, 2011

स्वातंत्र्य वीर सावरकर को शत-शत नमन ...



 यह धरा मेरी यह गगन मेरा,
इसके वास्ते शरीर का कण-कण मेरा.                                                                                                                      इन पंक्तियों को चरितार्थ करने वाले क्रांतिकारियों के आराध्य देव स्वातंत्र्य वीर सावरकर की २६ फरवरी को पुण्यतिथि है. लेकिन लगता नहीं देश के नीति-निर्माता या मीडिया इस हुतात्मा को श्रद्धांजलि देने की रस्म अदा करेंगे. लेकिन चलिए हम तो उनके आदर्शों से प्रेरणा लेने का प्रयास करें. भारतभूमि को स्वतंत्र कराने में जाने कितने ही लोगों ने अपने जीवन को न्योछावर किया था. लेकिन उनमें से कितने लोगों को शायद हम इतिहास के पन्नों में ही दफ़न रहने देना चाहते हैं. इन हुतात्माओं में से ही एक थे विनायक दामोदर सावरकर. जिनकी पुण्य तिथि के अवसर आज मैं उनको शत-शत नमन करता हूँ. 
                  क्रांतिकारियों के मुकुटमणि और हिंदुत्व के प्रणेता वीर सावरकर का जन्म २८ मई, सन १८८३ को नासिक जिले के भगूर ग्राम में हुआ था. इनके पिता श्री दामोदर सावरकर एवं माता राधाबाई दोनों ही धार्मिक और हिंदुत्व विचारों के थे. जिसका विनायक दामोदर के जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ा. वीर सावरकर के ह्रदय में छात्र जीवन से ही ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह के विचार उत्पन्न हो गए थे. छात्र जीवन के समय में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से वीर सावरकर ने मातृभूमि को स्वतंत्र कराने की प्रेरणा ली. सावरकर ने दुर्गा की प्रतिमा के समय यह प्रतिज्ञा ली कि- ''देश कि स्वाधीनता के लिए अंतिम क्षण तक सशस्त्र क्रांति का झंडा लेकर जूझता रहूँगा.''
    वीर सावरकर ने लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में पूना में विदेशी वस्त्रों कि होली जलाकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार कि घोषणा की. इसके बाद वे लोकमान्य तिलक की ही प्रेरणा से लन्दन गए. वीर सावरकर ने अंग्रेजों के गढ़ लन्दन में भी  क्रांति की ज्वाला को बुझने नहीं दिया. उन्हीं की प्रेरणा से क्रांतिकारी मदन लाल धींगरा ने सर लोर्ड कर्जन की हत्या करके प्रतिशोध लिया. लन्दन में ही वीर सावरकर ने अपनी अमर कृति ''१८५७ का स्वातंत्र्य समर की रचना'' की. उनकी गतिविधिओं से लन्दन भी काँप उठा. १३ मार्च,१९१० को सावरकर जी को लन्दन में गिरफ्तार कर लिया गया. उनको आजीवन कारावास की सजा दी गयी. कारावास में ही २१ वर्षों बाद वीर सावरकर की मुलाकात अपने भाई से हुई. दोनों भाई २१ वर्षों बाद आपस में मिले थे, जब वे कोल्हू से तेल निकालने के बाद वहां जमा कराने के लिए पहुंचे. उस समय जेल में बंद क्रांतिकारियों को वहां पर कोल्हू चलाना पड़ता था. 
    वर्षों देश को स्वतंत्र देखने की छह में अनेकों यातनाएं सहने वाले सावरकर ने ही हिंदुत्व का सिद्धांत दिया था.      स्वातंत्र्य वीर सावरकर के बारे में लोगों के मन में कई भ्रांतियां भी हैं. लेकिन इसका कारण उनके बारे में सही जानकारी न होना है. उन्होंने हिंदुत्व की तीन परिभाषाएं दीं-
(१)- एक हिन्दू के मन में सिन्धु से ब्रहमपुत्र तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक संपूर्ण भौगौलिक देश के प्रति अनुराग होना चाहिए. 
(२)- सावरकर ने इस तथ्य पर बल दिया कि सदियों के ऐतिहासिक जीवन के फलस्वरूप हिन्दुओं में ऐसी जातिगत विशेषताएँ हैं जो अन्य देश के नागरिकों से भिन्न हैं. उनकी यह परिभाषा इस बात कि परिचायक है कि वे किसी एक समुदाए या धर्म के प्रति कट्टर नहीं थे. 
(३)- जिस व्यक्ति को हिन्दू सभ्यता व् संस्कृति पर गर्व है, वह हिन्दू है. 
          स्वातंत्र्य वीर सावरकर हिंदुत्व के प्रणेता थे. उन्होंने कहा था कि जब तक हिन्दू नहीं जागेगा तब तक भारत कि आजादी संभव नहीं है. हिन्दू जाति को एक करने के लिए उन्होंने अपना समस्त जीवन लगा दिया. समाज में व्याप्त जातिप्रथा जैसी बुराइओं से लड़ने में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया. सन १९३७ में सावरकर ने कहा था कि- 
   ''मैं आज से जातिओं कि उच्चता और नीचता में विश्वास नहीं करूँगा, मैं विभिन्न जातियों के बीच में विभेद नहीं करूँगा, मैं किसी भी जाति के व्यक्ति के साथ भोजन करने को तत्पर रहूँगा. मैं अपने आपको केवल हिन्दू कहूँगा ब्राह्मन, वैश्य या क्षत्रिय नहीं कहूँगा''. विनायक दामोदर सावरकर ने कई अमर रचनाओं का लेखन भी किया. जिनमें से प्रमुख हैं हिंदुत्व, उत्तर-क्रिया, १८५७ का स्वातंत्र्य समर आदि. वे हिन्दू महासभा के कई वर्षों तक अध्यक्ष भी रहे थे. उनकी मृत्यु २६ फरवरी,१९६६ को २२ दिनों के उपवास के पश्चात हुई. वे मृत्यु से पूर्व भारत सरकार द्वारा ताशकंद समझौते में युद्ध में जीती हुई भूमि पकिस्तान को दिए जाने से अत्यंत दुखी थे. इसी दुखी मन से ही उन्होंने संसार को विदा कह दिया. और क्रांतिकारियों की दुनिया से वह सेनानी चला गया. लेकिन उनकी प्रेरणा आज भी हमारे जेहन में अवश्य होनी चाहिए केवल इतने के लिए मेरा यह प्रयास था कि उनके पुण्यतिथि पर उनके आदर्शों से प्रेरणा ली जाये. स्वातंत्र्य वीर सावरकर को उनकी पुण्य तिथि पर उनको शत-शत नमन...     

Thursday, February 24, 2011

राजनीति के लपेटे में बाबा


   कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने अब बाबा रामदेव को भी सियासी दलदल में घसीट लिया है. उन्होंने कहा है कि बाबा रामदेव दूसरों पर आरोप लगाने से पहले अपने ट्रस्टों कि आय सार्वजनिक करें. बाबा पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि बाबा यह सुनिश्चित करें कि उन्होंने भ्रष्टाचार में संलिप्त लोगों से धन नहीं लिया है. दिग्विजय सिंह ने बाबा को यह भी नसीहत दी कि, वे धार्मिक मंच से राजनीति न करें.दिग्विजय सिंह का बाबा पर आरोप लगाना कांग्रेस पार्टी कि खीझ का परिणाम है. क्योंकि बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान जो चला रखा है. लेकिन इन सभी आरोप-प्रत्यारोपों के बीच एक बात जो रह जाती है, वह यह है कि बाबा रामदेव से राजनेताओं को अपनी राजनीतिक जमीन खतरे में दिखाई देती है. इसके अलावा बाबा रामदेव पर आरोप लगाने का कोई कारण नहीं है. बाबा रामदेव ऐसे पहले बाबा नहीं है, जो राजनीति में या राजनीतिक मसलों में सक्रिय होने का प्रयास कर रहे हैं. बाबा रामदेव से पहले सतपाल महाराज ने भी राजनीति में पर्याप्त सक्रियता दिखाई है. सतपाल महाराज तो उत्तराखंड से कांग्रेस के सांसद भी हैं. बाबा रामदेव पूरी तरह सही हैं ऐसा भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है. लेकिन बाबा रामदेव के अलावा सभी बाबा या पार्टी विशेष को समर्थन देने वाले बाबा भी पूरी तरह पाक-साफ़ नहीं कहे जा सकते हैं. बाबा सतपाल महाराज के आश्रम में ४०० लोग फलों एवं सब्जिओं कि खेती में लगे हुए हैं. जो अपने घरों को छोड़ कर निशुल्क बाबा कि सेवा करते हैं. इन लोगों कि मेहनत से तैयार फसल से होने वाली आय बाबा सतपाल महाराज की होती है. सतपाल महाराज के इस कार्य को भी उचित नहीं कहा जा सकता है. उन्होंने इन लोगों को दास-प्रथा कि भांति रखा हुआ है. जो लोग बाबा कि सेवा में लगे हैं, उनके घर वालों को इससे क्या राहत मिलने वाली है. बाबा का भरण-पोषण तो हो जाएगा लेकिन इनकी रक्षा कौन करेगा. लेकिन सतपाल महाराज जी पर कोई आरोप नहीं है क्योंकि वे कांग्रेस पार्टी का हाथ थाम कर राजनीति के मैदान में उतरे हैं. इसी प्रकार से संत गुरमीत रामरहीम सिंह जिनके ऊपर २००९ लोकसभा चुनाव  से पहले हत्या जैसे गंभीर मामले का आरोप भी लगा था. लेकिन वे मामले कब रफा-दफा कर दिए गए इसका पता भी नहीं चला. इसका कारण यह था कि बाबा रामरहीम ने अपने भक्तों से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को वोट देने कि अपील की थी. इसी प्रकार से अन्य कई बाबा भी राजनीतिक संरक्षण से अपनी दुकानें चलाते रहें है. लेकिन इसकी शर्त केवल यह है कि इनकी आध्यात्मिक दुकान राजनेताओं कि आलोचना करने पर नहीं चलने दी जायेगी. अगर बाबा लोग कुछ करना चाहते हैं तो उन्हें नेताओं का हाथ थामना ही पड़ेगा. यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो उनकी राजनीतिक या आध्यात्मिक राह आसान नहीं रहने वाली है. दरअसल बाबा लोग भी दलगत राजनीति के शिकंजे में हैं, और पार्टी विशेष का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रचार करने में लगे हैं. कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि बाबा रामदेव को कथित तौर पर भाजपा और संघ का समर्थन प्राप्त है. दिग्विजय सिंह का बाबा पर वार करने का यह भी एक बड़ा कारण हो सकता है. लेकिन यह तो सत्य ही है कि यदि बाबा को राजनीति करनी है तो किसी न किसी दल के साथ चलना ही होगा. अन्यथा राजनेता उनको राजनीति का पाठ पढ़ा कर ही दम लेंगे.   

Wednesday, February 23, 2011

नैनो फमिली का जमाना

  आज के समय में आधुनिकता और तरक्की के कई पैमाने हैं. जिसमें से एक है नैनो फैमिली. 'बच्चे दो ही अच्छे' और 'छोटा परिवार सुखी परिवार' के जुमलों के बीच ही आज की दुनिया सिमट कर रह गयी है. बच्चे कम तो हुए ही दिल में जगह भी कम हो गयी. अब तो बूढ़े माँ-बाप भी नैनो फैमिली के दायरे में नहीं आते हैं. उन्हें संयुक्त परिवार के खाते में डाल दिया गया है. संयुक्त परिवार में रहना लोगों को पसंद नहीं, सो माँ-बाप हो गए उनके छोटे परिवार से दूर. संचार क्रांति के युग में यूँ तो लोग हर वक़्त संपर्क में रहते हैं. लेकिन संवेदनाओं से परे ही रहते हैं. माता-पिता की आवश्यकता और अपेक्षाएं क्या हैं अब इससे मतलब नहीं है. जब माता-पिता से ही मतलब नहीं है, तो यदि दादा-दादी हैं तो उन्हें कौन पूछे. ऐसे में इस नैनो फैमिली का चलन बुजुर्गों पर लगता है कुछ ज्यादा ही भारी पड़ा है. आए दिन वृद्ध जनों को प्रताड़ित करने की घटनाएँ सामने आती ही रहती हैं. इस नैनो फैमिली के अनेकों दुष्प्रभाव हैं. नैनो फैमिली में रहने के कारण ही बच्चे भी गलत आदतों का शिकार हो रहे हैं. इसका कारण घर में बच्चों की संख्या कम होने की वजह से उनको दिया जाने वाला अत्यधिक लाड़-प्यार है. जिसके कारण बच्चो में आत्मनिर्भरता की भावना विकसित नहीं हो पा रही है. संयुक्त परिवार में ऐसा नहीं होता था, क्योंकि सभी सदस्यों को मिलने वाली सुविधाएँ और उनके काम आपस में बंटे होते थे. जिससे लोगों में सामूहिक जीवन जीने के कारण, सामजिक भावना रहती थी. आज ऐसा नहीं रह गया है. किसी को कुछ बर्दाश्त नहीं है, गुस्से का प्रदर्शन तो जैसे अनिवार्य हो गया है. इसकी वजह यह है कि लोगों ने परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करना ही भुला दिया है. 
                    बुजुर्गों और बच्चों के बारे में बात करने के बाद, अब करते हैं युवाओं और प्रौढ़ों की बात. माता-पिता और बड़े जनों से दूर होने के कारण युवाओं के पास यह मौका ही नहीं है कि अपनी समस्याएँ उनसे  बताएं. इस कमी के कारण वे हमेशा तनाव में ही रहते हैं. यही तनाव उनकी दिनचर्या बन गया है और चिड़चिड़ापन  उनका स्वभाव. यही कारण है की सहनशीलता को अब कमजोरी का पर्याय माना जाने लगा है. लेकिन फिर भी नैनो फैमिली का क्रेज है और बड़प्पन है. बड़प्पन यहाँ तक है कि यदि कोई लड़की के लिए वर तलाशता है तो एक लड़के वाले घर को ही तलाशता है. यदि माँ-बाप में से कोई एक न हो तो वह घर सबसे बेहतर है. लड़की सास-बहु के सीरियल से मुक्ति पा जाएगी. जहाँ परिवार बसने से पहले ही यह भावना वहां परिवार उजड़ते कितनी देर लगेगी. विवाह होते ही हमसफ़र निकल पड़ते हैं, अपने जीवन सफ़र पर. पीछे रह जाते हैं उन पर आश्रित माता और पिता. जो कि उनकी नैनो फैमिली के दायरे से ही बाहर हैं. माता-पिता को पता ही नहीं लगता उनकी लाठी कब उनसे छिटककर दूर चली गयी. अब तो नैनो फैमिली को ध्यान में रखते हुए नैनो कार और नैनो फ्लैट भी बाजार में उतार दिए गए हैं. 
            अर्थात नैनो फैमिली के गहरे दुष्प्रभाव हैं. मैं तो यही कहूँगा की जिस नैनो फैमिली के कारण बच्चे,युवा से लेकर बुजुर्ग तक परेशान हों उससे क्या लाभ. तो फिर लौट आते हैं, अपनी दादी माँ के परिवार में जहाँ की सबकी समस्याओं का समाधान है. किसी की लाइफ में नहीं कोई व्यवधान है. बच्चा है या जवान है संयुक्त परिवार में ही सबकी शान है.  

Tuesday, February 22, 2011

वैश्वीकरण की भारतीय अवधारणा

  वैश्वीकरण तथा भूमंडलीकरण वर्तमान दौर में सबसे चर्चित विषय है. सामान्य अर्थों में समस्त विश्व का एक मंच पर आना, वैश्विक ग्राम की संकल्पना, व्यापारिक प्रतिबंधों का हटना ही वैश्वीकरण का पर्याय माना जाता है. इन सभी में आज जो वैश्वीकरण का सबसे प्रभावी अर्थ समझा जाता है,वह है विश्व के सभी देशों का व्यापारिक रूप से जुड़ना. वैश्वीकरण के सन्दर्भ में बहस का विषय यह है की वैश्वीकरण का जन्म पश्चिमी देशों द्वारा विभिन्न देशों को अपना उपनिवेश बनाने से होता है. या वैश्वीकरण की प्रक्रिया पहले भी अस्तित्व में थी. यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में वैश्वीकरण की चर्चा करें, तो ज्ञात होता है की वैश्वीकरण की प्रक्रिया हमारी संस्कृति का ही एक अंग है. हमारे धर्म-शास्त्रों में वैश्वीकरण को कई जगह स्पष्ट भी किया गया है जैसे-
                 अयं निज परोवेति गणना लघुचेतसाम.
                उदार चरिताम तु वसुधैव कुटुम्बकम. 
   अर्थात यह तेरा यह मेरा है ऐसी बातें छोटे ह्रदय के लोग करते हैं. उदार चरित्र वाले व्यक्ति के लिए संपूर्ण वसुधा ही एक परिवार के समान है. लेकिन वैश्वीकरण का यह अर्थ आज के वैश्वीकरण से मेल नहीं खाता है. आज के समय में वैश्वीकरण का अर्थ विशुद्ध व्यापारिक संबंधों से है, और केवल अपने उत्पादों के लिए बाजार ढूंढने तक ही सीमित है. जिसके सुखद परिणाम कम ही देखने को मिले हैं. बल्कि इस वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण के कारण ही विश्व को अनेक समस्याओं का सामना भी करना पड़ रहा है. 
         भारतीय अर्थों में वैश्वीकरण का अर्थ धार्मिकता और नैतिकता के वैश्विक प्रचार और प्रसार से है. इसी प्रकार से भारतीय संस्कृति में यह भी कहा गया है कि -
             सर्वे भवन्तु सुखिनः,
             सर्वे सन्तु निरामयाः ,
             सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,
             माँ कश्चित् दुःख भागभवेत.
  अर्थात- संसार में सभी सुखी हों, निरोग हों, सभी जनों का कल्याण हो और समाज के किसी भी व्यक्ति को दुःख न भोगना पड़े. भारतीय दृष्टि में वैश्वीकरण का अर्थ धार्मिकता और नैतिकता को विश्व-पटल पर प्रसार करने से है. भारतीय दृष्टि वैश्वीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत समस्त विश्व के मंगल की कामना करती है. लेकिन वैश्वीकरण के सन्दर्भ में पाश्चात्य चिंतन केवल अपने व्यापारिक, साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, और छोटे देशों के शोषण को वैश्वीकरण की संज्ञा देता है. निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है की भारतीय और पश्चिमी देशों के चिंतन में वैश्वीकरण को लेकर मतभिन्नता है. लेकिन वैश्वीकरण की भारतीय परिभाषा जनकल्याण और विश्वकल्याण की दृष्टि से सर्वथा उपयुक्त और प्रभावी है.    

एग्रीकल्चर फ्रैंडली नीतियों कि आवश्यकता. . . .


आगामी २८ फरवरी को वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी आम बजट पेश करेंगे. इस आम बजट से आम लोगों को बहुत सी उम्मीदें हैं. उम्मीद है प्रणव मुखर्जी का यह बजट लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरेगा. लेकिन दादा के बजट का गौरतलब पहलू यह रहेगा की इसमें किसानों के लिए क्या सहूलियत रहती है. कृषि प्रधान देश भारत में, कृषि ही सरकार को सबसे महत्वहीन क्षेत्र दिखाई देता है. सरकार की इस उपेक्षा का ही परिणाम है कि अन्नदाता, आज मौत को गले लगाने पर मजबूर है. बुंदेलखंड से लेकर विदर्भ और दक्षिण भारत तक किसान बदहाल दिखाई पड़ता है. इसका कारण कृषि को मुनाफे का सौदा न बनाना है. जिस दिन कृषि मुनाफे का सौदा हो जाएगी किसान मौत की नींद सोने को विवश नहीं होगा. तेजी से घटती कृषि योग्य भूमि और उतनी ही तेजी से बढती औद्योगिकीकरण की नीतियाँ किसानों के गले की फाँस बन गयी हैं. यदि सरकार खाद्य के मामले में आत्मनिर्भरता चाहती है तो उसे किसान हित में कदम उठाने ही होंगे. 
          किसानों की हितों की रक्षा के लिए जरूरी है की किसानों की आय को बढाने का प्रयास किया जाए. इसके लिए हमें उन्हें सस्ता लोन मुहैया कराने की जरूरत नहीं है, बल्कि फसलों पर लगने वाली लागत घटाने की आवश्यकता है. किसानों की आय में वृद्धि के लिए दलहन की सरकारी खरीद की व्यवस्था करनी चाहिए. जिससे हमारी आयात पर निर्भरता कम होगी और किसान को भी फसल का उचित दाम मिल सकेगा. फलों और सब्जिओं के क्षेत्र में फसल बीमा की नीति को व्यापक पैमाने पर लागू करना होगा. इस कड़ी में जो सबसे महत्वपूर्ण कदम हो सकता वह यह है की प्रत्येक गाँव में खाद्यान्न बैंकों की स्थापना की जाए. जिससे स्थानीय आधार पर राशन की खरीद हो सके, और भंडारण हो सके. जिससे गरीबों में राशन का वितरण आसान हो सके. यह ग्रामीण भारत की सफलता की तस्वीर हो सकता है. हरित क्रांति के बजाय यदि परंपरागत खेती पर निवेश किया जाये तो खेती पर लागत भी घटेगी. साथ ही जमीन की उर्वरकता का क्षरण भी होने से बचेगा. किसानों को कर्ज में छूट से ज्यादा फसलों के समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी की आवश्यकता है. जिस तरह से सरकार औद्योगिक-फ्रैंडली नीति के तहत विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना कर रही है, उसी तरह से विशेष कृषि क्षेत्र की स्थापना करनी होगी. यदि हम देश की अर्थव्यवस्था और किसान को खुशहाल देखना चाहते हैं तो उपजाऊ भूमि का अधिग्रहण हमें तत्काल रोकना होगा,. कृषि के क्षेत्र की विकास गति को यदि बढ़ाना है तो कृषि को रोजगार से जोड़ना होगा. इसके बाद मनरेगा की आवश्यकता ही ख़त्म हो जायेगी. कृषि को रोजगार से जोड़ने के बाद हमें कुशल श्रमिक प्राप्त होंगे, जो कृषि में संलग्न होंगे. इसके बाद ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन की गति ही थम जायेगी. लेकिन यह सब तभी संभव है जब हम अपनी आर्थिक नीतियों को औद्योगिक नहीं एग्रीकल्चर फ्रैंडली बनायें. तभी वर्त्तमान केंद्र सरकार आम आदमी की सरकार कहलाने की हकदार होगी. अब देखना यह है की दादा के खजाने से किसानों के लिए कौन सी सहूलियतें निकलकर आती हैं ? 

Monday, February 21, 2011

लोकतंत्र की आवाज आई, नहीं रहेगी तानाशाही

ट्यूनीशिया से शुरू हुए जनविद्रोह की लहर का असर व्यापक पैमाने पर हुआ है. ट्यूनीशिया में २३ वर्षों से तानाशाही राज चलाने वाले जिने अल आबेदीन बेन अली को देश छोड़ सउदी अरब भागना पड़ गया है. लोकतंत्र की लहर का ही असर है की मिस्त्र में भी लोगों ने मुबारक की सत्ता पलट दी. 
            जबरदस्त आन्दोलन के फलस्वरूप मिस्त्र और ट्यूनीशिया में सत्ता परिवर्तन के बाद अरब और अफ्रीका के दर्जनों देशों में आन्दोलन ने जोर पकड़ा है. उत्तर अफ्रीकी देश लीबिया के राष्ट्रपति कर्नल गद्दाफी के खिलाफ जनता सड़कों पर है. सत्ता के खिलाफ लीबिया में हुए प्रदर्शनों में दर्जनों लोग मारे जा चुके हैं. लेकिन आन्दोलनकारियों ने लोकतंत्र की आस नहीं छोड़ी है. इसी प्रकार बहरीन की राजधानी मनामा में लोग सड़कों पर डटे हुए हैं. बहरीन और लीबिया ही नहीं लोकतंत्र की जद में दर्जनों देश आने को आतुर हैं. यमन, जिबूती, कुवैत, जोर्डन, ईरान, थाईलैंड, अल्गेरिया, अल्बानिया, बोलिविया में लोग लोकतंत्र की चाहत में संघर्षरत हैं. सशक्त राष्ट्र रूस और चीन में भी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. अरब-अफ्रीका के देशों में चली लोकतंत्र की बयार पश्चिमी देशों के भी समीकरण बिगाड़ रही है. पश्चिमी देश अमेरिका और ब्रिटेन ने इन गरीब राष्ट्रों की सरकारों को समर्थन दे रखा था. अब इनके सामने यह मुसीबत है की इन राष्ट्रों की जनता को क्या जवाब दें. अमेरिका और उसकी समर्थक ताकतों को अपनी रणनीति में परिवर्तन करते हुए, सत्ता परिवर्तन की बातें करनी पड़ रही हैं. अमेरिका ने अपने समर्थक रहे मुबारक को भी संकट के समय साथ छोड़ते हुए, सत्ता छोड़ने की सलाह दी. राष्ट्रपति ओबामा ने कहा की जनता तानाशाही से ऊब चुकी है. इससे पहले इन महाशक्तियों ने तानाशाही पर लगाम कसने पर ध्यान नहीं दिया था. इसका कारन इन राष्ट्रों के तानाशाहों का अमेरिकी नीतियों का अनुसरण करना था. अमेरिका के समर्थन से तानाशाहों का शासन चल रह था, और अमेरिका को आसानी से तेल मिल रहा था. लेकिन जब अमेरिका की पिट्ठू सरकारों के लिए खतरा उत्पन्न हो गया, तो अमेरिका ने भी लोकतंत्र का सितार बजाया. इससे पहले हितसाधक महाशक्ति अमेरिका को लोकतंत्र की जरूरत नहीं महसूस हुई थी. अब भी अमेरिका और उसकी साथी महाशक्तियों का यही प्रयास है,की सत्ता परिवर्तन तो हो लेकिन उनके इशारों पर. इसलिए अमेरिका ने शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण का सुर छेड़ा है. ताकि आने वाली सरकार उनके समर्थकों की ही बने और उनके हितों की अनदेखी न होने पाए. अमेरिका को यह भी भय है की इन राष्ट्रों में यदि लोकतान्त्रिक सरकारें बनती हैं तो वह  उनके इशारों पर नहीं चलेंगी. उनकी अपनी स्वतंत्र नीति होगी, और राष्ट्रवाद उसका प्रमुख आधार होगा. इसलिए अमेरिका अपनी समर्थक ताकतों के हाथों में ही इन राष्ट्रों की सत्ता देखना चाहता है. जिसके लिए वह प्रयासरत भी है. अमेरिका की इस दोहरी नीति से उसके कथित लोकतान्त्रिक चेहरे की पहचान होती है. भारतीय उपमहाद्वीप की यदि बात की जाए तो, अमेरिका ने पाक में मुशर्रफ शासन का भी साथ दिया था. लेकिन तख्ता पलट होने के बाद परवेज मुशर्रफ का दामन छोड़ दिया. अब भी यदि पाक में आतंकी शक्तिओं के खिलाफ और लोकतंत्र की मांग में जनता आन्दोलन करती है तो अमेरिका पाक की वर्त्तमान सत्ता के साथ भी नहीं खड़ा होगा. यह सच्चाई है. लेकिन सत्य यह भी है की विभिन्न राष्ट्रों की जनता जब तानाशाही के खिलाफ सड़कों पर उतरेगी तो तानाशाही ताकतें भी परास्त होंगी. साथ ही लोकतंत्र की स्थापना भी आसान होगी. अब देखना केवल यह है की अरब-अफ्रीकी देशों से चली यह लोकतंत्र की बयार कहाँ तक जायेगी.  

Saturday, February 19, 2011

राजनीति ने रोकी विकास की रेल


   आगामी २५ फरवरी को रेल बजट संसद में पेश होने वाला है. जिसे रेल मंत्री ममता बनर्जी पेश करेंगी. जिनका लक्ष्य बंगाल की सत्ता को प्राप्त करना है. जिसकी राह रेल मंत्रालय से होकर भी गुजरती है. इसी के चलते ममता ने बंगाल को लेकर कुछ ज्यादा ही ममता दिखाई है. रेल मंत्रालय से जुडी सभी बड़ी परियोजनाओं को ममता ने बंगाल के लिए ही अधिक जरूरी पाया है. आगामी बजट में भी लगता नहीं ममता का बंगाल मोह दूर हो पायेगा. देश के सभी हिस्सों को एक करने वाली रेल, के पहिये समस्त देश में सामान रूप से नहीं दौड़ पा रहे हैं. इसका कारण रेल मंत्रालय की कमान क्षेत्रीय दलों के हाथ में होना है. राम विलास पासवान, नितीश कुमार, लालू यादव, जार्ज फ़र्नान्डिस आदि नेताओं के हाथ में रही है जो क्षेत्रीय दलों के नेता रहे हैं. गठबंधन राजनीति का लाभ रेल मंत्रियों ने बखूबी उठाया है. इसी का कारण है की छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों में रेल नेटवर्क अन्य राज्यों की अपेक्षा के कमजोर है. गठबंधन सरकार में क्षेत्रीय दलों का जोर रेल मंत्रालय की मलाई को कब्जाना ही होता है. इसी के कारण रेल मंत्रालय अपने लक्ष्य को किसी भी पंचवर्षीय योजना में पूरा नहीं कर पाया है. देश से अंग्रेजों के जाने के बाद से केवल १०,००० किलोमीटर रेलमार्ग का विस्तार हो पाया है. जबकि ६०,००० किलोमीटर  का रेल नेटवर्क तो  हमें विरासत में ही मिला था. इस आंकड़े से हम जान सकते हैं की हमारी रेल की गति क्या रही है. अब हमें इस विचार करना होगा की रेल मंत्रालय केवल सफ़ेद हाथी बनकर ना रह जाए. यदि रेल मंत्रालय को घाटे से उबारना है तो इसको गठबंधन राजनीति का हथियार बनने से बचाना ही होगा. रेल मंत्रालय का अलग बजट होना भी, मंत्रियों को आकर्षित करता रहा है. रेल बजट को अलग करके इसे भी आम बजट में ही शामिल करना होगा. तभी इसका विकास संभव है. तभी भारतीय रेल राजनीतिक बाधा से हटकर विकास की पटरी पर दौड़ सकेगी.  

Friday, February 18, 2011

साख बचाने की असफल कोशिश

 भारत के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के शासनकाल में हुए अनर्थों का जवाब देने के लिए, प्रधानमंत्री १६ फरवरी को  मीडिया से मुखातिब हुए. प्रधानमंत्री ने कहा की भ्रष्टाचार से लोगों का सरकार से भरोसा उठ गया है. महंगाई की समस्या जरूर है और इससे निजात पाने के प्रयास किये जा रहे हैं. प्रधानमंत्री ने देश की जनता को विश्वास में लेने का प्रयास करते हुए यह सब बातें कहीं. लेकिन सबसे गौरतलब और विवादस्पद विषय यह रहा की उन्होंने गरीब लोगों को दी जाने वाली सब्सिडी और राजा के महाघोटाले की तुलना कर दी. अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को गरीबों की अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी और अनर्थकारी राजा के टू जी स्पेक्ट्रुम घोटाले में कोई अंतर नजर नहीं आता है. सरकार के रणनीतिकारों ने सरकार की साख को बचाने के लिए पूरी तैयारियां कर रखी थीं . इसी को ध्यान में रखते हुए केवल सरकार समर्थक इलेक्ट्रानिक मीडिया को ही प्रधानमंत्री से मुखातिब होने की अनुमति दी गयी. लेकिन इस सारी रणनीति पर पानी फिर गया जब मनमोहन सिंह ने सब्सिडी और घोटाले को एक ही सिक्के के दो पहलू बता दिया. प्रधानमंत्री ने मीडिया से को भी यह नसीहत दी की वह ऐसी खबरें न बनाये जिससे देश की छवि ख़राब हो. प्रधानमंत्री ने कहा की कुछ गड़बड़ियाँ जरूर हुईं लेकिन प्रयास किये जा रहे हैं. प्रधानमंत्री की यह शिकायत की मीडिया की वजह से भ्रष्टाचार की ब्रांडिंग हो रही है, यह समस्या से दूर भागने का एक असफल प्रयास है. प्रधानमंत्री को यह ध्यान रहना चाहिए की मीडिया के ही कारण राजा कुछ हद तक शिकंजे में फंसते नजर आ रहे हैं. कलमाड़ी के खिलाफ जांच चल रही है. सच्चाई यह भी है की मीडिया जब तक इन मामलों को लेकर हो हल्ला मचाएगा तभी तक इन पर कुछ दिखावे की कार्रवाई होगी. उस के बाद तो यह दिखावे की कार्रवाई भी नहीं होनी है. इसलिए प्रधानमंत्री को चाहिए को वो मीडिया को आइना दिखाने के बजाए अपनी सरकार को आइना दिखाएँ . घोटालेबाजों की पूरी लॉबी के चंगुल से देश की अर्थव्यवस्था को बचाने का प्रयास करें. प्रधानमंत्री यदि सरकार की छवि को बचाना चाहते हैं तो उन्हें अपने मंत्रिमंडल की सर्जरी करनी होगी. केवल फेरबदल से काम अब चल पायेगा ऐसा लगता नहीं है. इसलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को यदि जनता के मन को मोहना है, तो गंभीरता से प्रयास करने होंगे. यह उनकी जिम्मेदारी है जिसे किसी और पर नहीं डाला जा सकता है.

Wednesday, February 16, 2011

आदिवासी सम्मलेन से मिशनरी भयभीत क्यों. . . .

आदिवासी सम्मलेन से मिशनरी भयभीत क्यों. . . .
        ९ और १० फरवरी को मंडला में हुए नर्मदा सामाजिक कुम्भ का मिशनरी के लोगों ने प्रबल विरोध किया था. मिशनरी वालों ने मध्य प्रदेश सरकार से सुरक्षा कि गुहार भी लगाई थी. मिशनरी के लोगों को सुरक्षा से ज्यादा, अपने मतान्तरण के एजेंडे कि चिंता सता रही है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आह्वान पर मंडला में हुए सामाजिक कुम्भ से आदिवासिओं को हिन्दू समाज कि मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास किया गया है. आदिवासी क्षेत्रों में संघ के कार्यकर्ता अब तक वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम से सेवा कार्य करते आये हैं. लेकिन इतने बड़े पैमाने पर आदिवासिओं का सम्मलेन संघ ने पहली बार आयोजित किया है. इस सम्मलेन के माध्यम से संघ का प्रयास है कि मतांतरित आदिवासिओं को पुनः हिन्दू धरम में वापसी दिलाई जाये. यह किसी मायने में सही भी है क्योंकि लालच वश ईसाई बने लोग हिन्दू धर्म में यदि पुनः वापसी करते हैं तो मतान्तरण ही नहीं राष्ट्रान्तरण होने से बच सकेगा.
कोई व्यक्ति जब हिन्दू धर्म से ईसाई मत में मतांतरित हो जाता है, तो वह अपनी जड़ें भारत भूमि से ज्यादा वैटिकन सिटी में तलाशने लगता है. मतांतरित हुए लोगों के लिए भारत पुण्यभूमि नहीं रह जाता है, उनकी आस्था हरिद्वार से ज्यादा वैटिकन सिटी और येरुशलम में हो जाती है. मतान्तरण कि सबसे बड़ी बुराई यही है, जब मतान्तरण कि आड़ में राष्ट्रान्तरण कि साजिश होने लगती है. इसीलिए मिशनरी के लोगों ने सुरक्षा जैसा कुतर्क देकर सामाजिक कुम्भ पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है. दलित ईसाई और दलित मुसलमान कि परिभाषा देकर आरक्षण कि मांग करना भी मतांतरण के प्रयासों में तेजी लाने का ही काम है. क्योंकि आरक्षण से दलितों और आदिवासिओं को आर्थिक संरक्षण मिलता है, और सामाजिक प्रोत्साहन उनको मतान्तरण के माध्यम से मिल जाता है. सामाजिक समता का आश्वासन देकर मतान्तरण करवाने वाले लोग उनको दलित का ही दर्जा देकर अपने समाज में रखते हैं. इसीलिए उनको भय है कि यदि संघ अपनी मुहीम में कामयाब हो जाता है, तो आदिवासिओं का मिशनरी वालों से मोहभंग हो जाएगा. जिसके कारण उनकी मतान्तरण के माध्यम से भारत का राष्ट्रान्तरण करने के प्रयासों को सफलता नहीं मिल पाएगी. मिशनरी वालों का संघ द्वारा आयोजित नर्मदा सामजिक कुम्भ पर सवाल खड़े करने का केवल यही एक पहला और आखिरी कारण था.

Tuesday, February 15, 2011

माओवादी हिंसा के प्रतिनिधि

 जिन लोगों को प्रधानमंत्री देश कि आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते हैं. जिनकी विचारधारा बन्दूक कि नली से सत्ता तक पहुँचने कि बात करती है. इस अंधी हिंसात्मक विचारधारा के प्रतिनिधि विनायक सेन को लेकर देश के स्वयंभू बुद्धिजीवी लोग लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगा रहे हैं. क्या इन बुद्धिजीविओं को माओवादी हिंसा में मारे गए जवानों कि माताओं के आसुओं पर तरस नहीं आता है. क्या इन्हें आदिवासिओं कि निर्मम हत्या होने पर दुःख नहीं होता है. जिस विचारधारा ने लोकतान्त्रिक नेता लिऊ श्यबाओ को नजरबन्द कर रखा है. म्यांमार में लोकतंत्र समर्थक नेता आन सां सूकी  वर्षों से जेल में बंद हैं. माओवादी और कथित तौर पर मार्क्सवादी विचारधारा कि इस वैश्विक हिंसा का पता नहीं है. सन २०५० में भारत में भी सत्ता पर पह्नुचने का स्वप्न देखने वाले माओवादी हमें कैसा भारत देंगे, यह इन बुद्धिजीविओं को सोचना ही चाहिए. क्या हमें चीन जैसा शासन चाहिए, या म्यांमार जैसा यह हमें ही विचार करना होगा. यह भारत ही है जहाँ विनायक सेन जैसे लोगों कि भी मुफ्त में पैरवी कि जा रही है. अजमल कसाब को भी सुनवाई का मौका दिया जा रहा है, ऐसा किसी माओवादी शासित देश से कल्पना भी नहीं कि जा सकती है. आज भी लोगों को चीन में थ्येन मेन चौक पर हुई सरकारी हिंसा एक त्रासदी के रूप में याद आती है. जिस चीन का औद्योगिक विकास श्रमिकों के शोषण के बल पर टिका है. जहाँ जनसँख्या
नियंत्रण के लिए सख्त प्रावधान लागू हैं. उस देश को अपना आदर्श मानने वाले लोगों को यह समझना चाहिए कि, दिल्ली कि तरह मनमानी कि आजादी उन्हें माओवादी शासन में नहीं मिल सकती है. देश के लिए सुरक्षा बलों के जवान अमूल्य संसाधन के समान हैं. उन जवानों का रक्त बहाने वाले माओवादी देश द्रोहियों से किसी मायने में भी कम नहीं है. आदिवासिओं की लाशों , देश के जवानों के शहीद होने पर और आश्रितों के आसुओं और दर्द से राजनीति नहीं कि जानी चाहिए. पिछड़ों कि आवाज उठाने के नाम पर पिछड़ों को ही मौत का द्वार दिखाने वाले मओवादिओं पर कोई कोताही नहीं बरती जानी चाहिए. इन देश द्रोही मओवादिओं कि आवाज उठाने वाले भी देश द्रोही कि ही भूमिका में हैं. किसी भी कार्य के पीछे एक विचारधारा होती है. इसी तरह इन स्वयंभू बुद्धिजीविओं ने मओवादिओं को वैचारिक पोषण देने का ठेका ले रखा है. यही भूमिका विनायक सेन कि भी थी. जिसकी जमानत याचिका को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने भी खारिज कर दिया है. अब इन बुद्धिजीविओं को कोर्ट पर भी विश्वास नहीं और अब इन्होनें ने अदालत पर सवाल उठाने का प्रयास करना शुरू कर दिया है. अब यही लोग बताएं कि उनको जब देश कि लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ही विश्वास नहीं है तो यह लोग कैसे शान्ति समर्थक हैं.

Saturday, February 12, 2011

भ्रष्टाचार का महाकुम्भ

  भारत में इन दिनों भ्रष्टाचार का महाकुम्भ चल रहा है. जिस तरह महाकुम्भ में ज्यादा से ज्यादा लोग पहुँच कर डुबकी लगाते हैं, उसी प्रकार से देश में भ्रष्टाचार का महाकुम्भ चल रहा है. इस कुम्भ में नेता,अभिनेता,न्यायाधीश,नौकरशाह, व्यापारी सभी डुबकी लगा रहे हैं. इसकी वजह यह है कि उन्हें इसका दुबारा मौका मिलेगा या नहीं यह निश्चित नहीं है. इसलिए पीढ़ियों के लिए धन जोड़ने में जल्दी कर रहे हैं. देश में बेरोजगारी बढती जा रही ऐसे में इनके बच्चों को रोजगार के लिए न भटकना पड़े,इसलिए बेचारे उनकी व्यवस्था करे जा रहे हैं. खैर इसमें उनकी कोई गलती भी नहीं है, यह तो माता-पिता का कर्त्तव्य होता है. फिर जनता तो आखिर जनता ही है, वह तो अपना कमा ही लेगी. लेकिन इनकी फाईव स्टार जिंदगी कैसे कटेगी,इसके लिए तो घोटाला परम आवश्यक है. फिर आम जनता के लिए भारतीय संस्कृति में बताया गया संतोषम परम सुखं का मंत्र तो है ही है. अर्थात संतोष ही सबसे बड़ा सुख है. जब संतोष ही सबसे बड़ा सुख है,तो फिर धन-दौलत का क्या करना है. लेकिन उनके लिए तो धन ही सुख का साधन है, इसलिए उनको ही इसकी सबसे अधिक आवश्यकता है. यह तो अब हमको-आपको समझ ही लेना चाहिए, कि राजसत्ता जाने का दुःख क्या होता है. राम के वनवास जाने का बड़ा दुखमय वर्णन आज भी किया जाता है,फिर ये तो साधारण मनुष्य ही हैं. अपने देश में यह भी कहा जाता है कि जिसके पास खोने को कुछ नहीं होता है, वह सबसे सुखी इन्सान होता है. इस कथन के आधार पर भी हमें शांत ही रहना चाहिए. नाहक क्यों किसी का जलूस निकाले जा रहे हैं. जब संतोष ही सबसे बड़ा सुख है तो फिर संतोष करिए. इससे भी मन नहीं मानता है तो,अख़बार पढ़ते वक्त चिंता व्यक्त कीजिये. क्योंकि यही अब हम लोगों का स्वभाव जो बन गया है. हमें अपने काम से ही समय नहीं है तो फिर हम कुछ कर कैसे सकते हैं.
यह मेरा कहना नहीं है, ऐसा इस देश के वातावरण को देख कर लग रहा है. जीडीपी का ५० प्रतिशत धन स्विस बैंक में जमा है.अब तक करीब चार लाख करोड़ के घोटाले सामने आ चुके हैं, लेकिन आम लोग, हम लोग इस मुद्दे को लेकर कितनी बार सड़क पर उतरे हैं, शायद एक भी बार नहीं. शायद हम लोगों के लिए संतोष ही परम सुख हो गया है. नहीं तो जातिगत आरक्षण के लिए आगजनी करने वाले हम लोग इन घोटालों के ठेकदारों के विरोध में क्यों नहीं सड़क पर आते हैं. सगोत्र विवाह हमें बर्दाश्त नहीं है, प्यार करने वाले हमारे दुश्मन हैं, लेकिन यह भ्रष्ट व्यवस्था हमें कैसे बर्दाश्त है. युवा पीढ़ी के कदम थामने को, दलितों पर अत्याचार को स्वीकृति देने को पंचायतें आये दिन लगती रहती हैं, लेकिन इन राष्ट्रव्यापी मुद्दों पर क्यों जुबान नहीं खुलती है. समाज के आम लोगों के लिए तो देवबंद से भी फतवे आ रहे हैं, लेकिन देश को हुए भ्रष्टाचार रुपी लकवे से कौन बचाएगा. यह हमारी नहीं तो किसकी जिम्मेदारी है, इसकी भी निगरानी अमेरिका तो नहीं करने वाला है. या शायद हमारी मानसिकता इतनी संकीर्ण हो गयी है, कि हमें देश हित सबसे आखिरी में भी नहीं दिखता है. हमारी लड़ाई हमें लड़नी होगी, अपना तहरीर चौक हमें ढूंढना होगा, तभी देश कि लुंज-पुंज व्यवस्था में कुछ सुधार हो सकता है. यदि संतोष ही सबसे बड़ा सुख होता है तो, तो भय बिना प्रीत भी नहीं होती है इसलिए हमें निरंकुश शासन को सुधरने के लिए आगे आना ही होगा. इससे पहले कि यह राष्ट्र मिस्त्र,यमन,जोर्डन, ट्यूनीशिया कि राह पर चला जाये. हमें यहाँ कि मुबारक सत्ता को आईना दिखाना ही होगा. यही भारत में लोकतंत्र कि रक्षा के लिए, अराजकता से देश को बचाने के लिए आवश्यक हो चुका है. किसी भी बुराई का अंत लड़ाई से होता है, तो हो जाइये तैयार इस लड़ाई के लिए, देश को बचाने के लिए. भ्रष्टाचार पर हमारी विजय ही, लोकतंत्र कि विजय होगी.

Friday, February 11, 2011

पाक में अमेरिका विरोधी लहर

 पाकिस्तान में इन दिनों अमेरिका विरोधी लहर चल रही है. पाकिस्तानी नेताओं पर इस्लामी कट्टरपंथी लोगों का दबाव है की वे अमेरिकी सेनाओं द्वारा की जा रही कार्रवाई को समर्थन देना बंद करें. इसी दबाव के चलते पाक नेताओं ने अमेरिकी राजनयिक डेविस को रिहा नहीं किया है. जिसके फलस्वरूप अमेरिकी संसद में भी पाक को दी जाने वाली मदद में कटौती की मांग उठी है. इस पूरे प्रकरण को यदि भारतीय नजरिये से देखा जाये तो भारत के लिहाज से यह अच्छा ही रहा है. पाक द्वारा अमेरिकी राजनयिक को रिहा न किये जाने की वजह २६\११ मामले में अमेरिका की सक्रियता है. पाक सेना और कट्टरपंथियों को अमेरिकी अदालत द्वारा जनरल शुजा पाशा को समन भेजना बहुत ही नागवार गुजरा है. जिसके जवाब में पाक ने उसके राजनयिक को रिहा नहीं किया. जिससे लम्बे समय से पाक को दी जाने वाली आर्थिक मदद को रोकने की मांग ने जोर पकड़ा है. भारत के लिहाज से यह बहुत ही अच्छा है की पाक और अमेरिका आमने-सामने हैं, अब भारत को केवल यह देखना है की पाक इस स्थिति से कैसे निपटता है. लेकिन इसमें ध्यान देने वाली बात यह है की अमेरिका मुंबई हमलों को लेकर पाक पर शिकंजा नहीं कस रहा, बल्कि इसका कारण उसके राजनयिक की रिहाई नहीं होना है. इससे पहले भी अमेरिकी अदालत ने भारत की शिकायत पर शुजा पाशा को समन नहीं भेजा था. उसने अमेरिकी नागरिकों की याचिका पर शुजा पाशा को समन भेजा था. पाक पर कसता अमेरिकी शिकंजा भारत की शिकायतों का नतीजा नहीं बल्कि अमेरिका के अपने हितों की वजह से है. ध्यान रहे की अमेरिका ने कभी भारत की शिकायतों पर ध्यान नहीं दिया जब तक उसमें उसके हित न हों. इसलिए हमें भी अमेरिका की ओर कभी नहीं देखना चाहिए बल्कि अपने हितों को अधिक महत्व देना चाहिए. अमेरिका से मित्रता हमारी कूटनीति का परिणाम नहीं है, बल्कि इसमें भी अमेरिका के ही हितों की पूर्ति होती है. इसलिए भारत को ध्यान रहना चाहिए की अमेरिका मित्र नहीं बल्कि हित साधक है. जिसके मित्र समय-समय पर बदलते रहते हैं. अमेरिका द्वारा भारतीय राजनयिकों से किया गया व्यवहार, और ताजा प्रकरण जिसमें छात्रों के पैरों में रेडियो टैग बांधने का मामला इसकी ताजा मिसालें हैं. हमें सदा यह ध्यान रखना चाहिए की अमेरिकी हितों के समक्ष हम भी अपने हितों का बलिदान न करें. अपने फैसले अपने हितों को ध्यान में रखते हुए ही लें न की अमेरिकी हस्तक्षेप और मार्गदर्शन से. यही भारत की दीर्घकालिक कूटनीति होनी चाहिए, जिसमे हमारी कूटनीतिक विजय का लक्ष्य छुपा हुआ है.

Tuesday, February 8, 2011

राश्ट्रवाद पर भारी सांप्रदायिक राजनीति


‘‘भारतभूमि विभिन्न धर्मों के लोगों को सहोदर के रूप में मानती है और उसी रूप में उनका लालन-पालन करती है‘‘
  आचार्य चाणक्य का यह वाक्य नैतिकता और विष्वबंधुत्वता की दृश्टि से बिल्कुल सत्य है। परंतु राजसत्ता को बचाने की चुनौती और उसके फलस्वरूप की जाने वाली सांप्रदायिक राजनीति विभिन्न मतों एवं धर्मों के बीच भेद का और राश्ट्र के विखण्डन का कारण बनती है। सांप्रदायिकता की इस राजनीति का इतिहास पुराना है, जिस पर दृश्टि डालना हमारे लिए आवष्यक है।
सांप्रदायिक राजनीति का प्रारंभ-
दो ध्रुवों को साधने की कला को ही सांप्रदायिक राजनीति भी कहा जा सकता है। चाणक्य के समय में जब भारत में नंद वंष का षासन चल रहा था, तभी से इस प्रकार की राजनीति का प्रारंभ माना जाता है। नंद वंष के षासक घनानंद ने जब अपनी सत्ता को खतरे में देखा तो उन्होंने उस समय में नवीन दर्षन और मान्यताओं वाले महावीर और तथागत के संप्रदायों का तुश्टिकरण प्रारंभ कर दिया। जिसके कारण व्यक्ति-व्यक्ति में भेद उत्पन्न हो गया और वैदिक संस्कृति को मानने वाले तथा राजसत्ता के संरक्षण में रहने वाले महावीर और तथागत के संप्रदाय आमने-सामने आ गए। यही वह समय था जब भारत में धार्मिक एवं सांप्रदायिक सौहार्द में कमी आनी प्रारंभ हो गई। जो आज तक अनवरत जारी है।
सर्वधर्म समभाव की परंपरा पर आघात
जिस भारत में ‘‘सर्वधर्म समभाव‘‘ और ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम‘‘ की भावना प्राचीन समय से ही विद्यमान थी। उसी राश्ट्र में चाणक्य के समय से इस विचार का संस्कृति का लोप होना षुरू हो गया। या कहें की भारतीय संस्कृति पर हमले इतने हुए की, यह आदर्ष विचार उसी में धूमिल हो गया। भारत की सर्वधर्म परंपरा पर सबसे बड़ा आघात इस भूमि पर हुए बाहरी आक्रमण और उनका षासन रहा। मुगल षासन में सत्ता के कारण समाज प्रभावित हुआ। मुगल काल में कुछ आततायी षासकों ने हिंदू मंदिरों को तोड़ा और गोहत्या को भी मौन स्वीकृति दी। जिससे समाज बुरी तरह प्रभावित हुआ और समाज में षासन का दखल बहुत बढ़ गया। मुगलों के द्वारा ही तोड़ा गया राममंदिर का विवाद आज भी कायम है। जो समय-समय पर संघर्श का कारण बनता रहता है। मुगलों के काल से चली आ रही इस राजनीति का और भी वीभत्स रूप ब्रिटिष काल में समाज के सामने आता है।
अंग्रेजों का मुस्लिमों को संरक्षण
ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में व्यापार के लिए आए अंग्रेजों ने षासन को प्रभावित करना आरंभ किया। कुछ समय बाद ही उन्होंने षासन पर कब्जा भी जमा लिया। अंग्रेजों को भी अपनी सत्ता बचाने के लिए यह आवष्यक था की भारतीय एक न होने पाएं। इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने मुस्लिमों को वरीयता देते हुए सत्ता को बचाए रखने का प्रयास किया। अंग्रेजों की इस नीति को खाद-पानी द्विराश्ट्रवाद के जनक सर सैयद अहमद खां ने दिया। उन्होंने कहा की -
  ‘‘बेषक हिंदू और मुस्लिम एक ही षहर में रहते हैं और एक ही हवा और पानी का उपभोग करते हैं परंतु यह दोनों ही आपस में साथ रहते हुए भी अपने आप में अलग-अलग राश्ट्र के समान हैं।‘‘
उन्होंने ही समाज में विभाजन को बढ़ावा देने की अंग्रेजी साजिष का प्रतिपादन किया जिसका उदाहरण उनका यह कथन है-
 ‘‘ईसाई और मुस्लिम दोनों ही किताबी मजहब हैं लेकिन हिंदू बुत परस्त मजहब है, इसलिए ईसाई और मुस्लिम तो एक हो सकते हैं लेकिन हिंदू और मुस्लिम कभी एक नहीं हो सकते हैं।‘‘
इससे भी आगे बढ़कर उन्होंने तो अंग्रेजों को खिलाफतुल्लाह घोशित कर दिया। जिसका अर्थ होता है धरती पर अल्लाह का प्रतिनिधि। सर सैयद के इन कुत्सित प्रयासों का ईनाम ब्रिटिष सरकार ने उन्हें ‘‘सितारे-हिंद की उपाधि देकर दिया।
सर सैयद की प्रेरणा का ही यह परिणाम था कि षुरू में राश्ट्रवादी मुसलमान कहलाने में गर्व करने वाले जिन्ना ने राश्ट्र के विखण्डन का स्वप्न देखना प्रारंभ कर दिया। इसी विचारधारा से प्रेरित होकर  राम को ‘‘इमामे हिंद‘‘ की उपाधि देने वाले भारत भक्त इकबाल मोहम्मद ने पाकिस्तान की अवधारणा प्रस्तुत की। जिन्ना और इकबाल के इन कटटर विचारों का कारण भी केवल राजसत्ता प्राप्ति की महत्वकांक्षा ही थी। इसी पाकिस्तानी विचार के कारण ही डायरेक्ट एक्षन में हुई हिंसा में लाखों हिंदू और मुस्लिमों की हत्याएं हुई। जिसके फलस्वरूप भारत भूमि के आजाद होने से पहले ही उसके विभाजन की पटकथा लिख दी गई। परंतु इस राजनीति का अंत फिर भी नहीं हुआ और इसके खतरे आज भी हमारे समक्ष मौजूद हैं।
स्वतंत्रता के पष्चात तुश्टिकरण की राजनीति
भारत भूमि विभाजित रूप में स्वतंत्र हो गई, लेकिन विभाजन के लिए जिम्मेदार सांप्रदायिक तत्व नहीं समाप्त हुए। इसी का परिणाम था कि लाखों हत्याएं और देष का विभाजन होने के बाद भी कष्मीर की नई समस्या विकसित कर दी गई। कष्मीर मामले का अंतर्राश्ट्रीयकरण कर दिया गया। इससे समस्या का समाधान तो नहीं हुआ, लेकिन भारत को और टुकड़ों में विभाजित करने की रणनीति अवष्य बनने लगी। केवल इस तुश्टिकरण की राजनीति का ही परिणाम था की 555 रियासतों का पटेल ने आसानी से विलय भारतीय संघ में करवा लिया। लेकिन पंडित नेहरू की कुटिल नीतियों के कारण कष्मीर की समस्या विकसित हो गई। इसके बाद भी यह सिलसिला समाप्त नहीं होता है, और षाहबानो प्रकरण के रूप में हमारे सामने आता है। अर्थात जब-जब राजसत्ता पर खतरा महसूस हुआ है, ऐसी राजनीति का पासा फेंका गया है चाहे वह राजतंत्र का दौर रहा हो या फिर लोकतंत्र का। भारत के संविधान में धार्मिक आरक्षण का प्रावधान न होते हुए भी विभिन्न राज्यों में आरक्षण दिया गया। जैसे- केरल, आंध्र प्रदेष, कर्नाटक, एवं पष्चिम बंगाल में 10 प्रतिषत आरक्षण का ऐलान। यह आरक्षण केवल तब दिया गया जब कुर्सी को हिलता हुआ देखा गया, इसलिए समाज में एक वर्ग को विषेश संरक्षण देने की रणनीति पर काम किया गया। लेकिन कष्मीर से पलायन करने को मजबूर हुए कष्मीरी पंडितों का ध्यान नहीं किया गया क्योंकि वे वोटों के समीकरण पर खरा नहीं उतर पाते। आजादी के पष्चात इस प्रकार की राजनीति का सबसे वीभत्स रूप सन 1984 में देखने को मिला। जब राजधानी की सड़कों पर 5,000 सिखों का कत्ल कर दिया गया। इसके भी आगे जाते हुए वर्तमान यूपीए सरकार ने कष्मीर के आतंकी को पदम श्री से पुरस्कृत किया। देष के प्रधानमंत्री ने लालकिले की प्राचीर से देष के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला हक बताया। वहीं आतंकियों से जूझते हुए षहीद होने वाले मोहन चंद षर्मा की षहादत पर सवाल उठाया गया। उनके परिवार वालों से मिलने तो कोई नहीं गया लेकिन उन आतंकियों के यहां सभा अवष्य आयोजित की गई। जब इतने से भी मंसूबे पूरे नहीं हुए तो राममंदिर के अदालती फैसले पर प्रष्न चिन्ह लगाने का प्रयास किया गया। हिंदू आतंकवाद रूपी हौव्वा खड़ा किया गया और अल्पसंख्यक वोटों को लामबंद करने का प्रयास किया गया।
वास्तविक धर्मनिरपेक्ष लोग आगे आएं
यदि हमें इस विखण्डनकारी राजनीति में बदलाव लाना है तो वास्तविक धर्मनिरपेक्ष लोगों को आगे आना होगा। तभी धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़े सांप्रदायिक तत्वों से देष का विखण्डन होने से रोका जा सकेगा। तभी महान संत स्वामी दादूदयाल की यह पंक्तियां चरितार्थ हो पाएंगी-ः
        दोनों भाई हाथ-पग, दोनों भाई कान।
        दोनों भाई नैन हैं, हिन्दू मुसलमान।।
वास्तव में भारत में यदि सर्वधर्म समभाव की भावना को कायम रखना है तो हमें इन तत्वों से सावधान रहना होगा। तभी भारत मां के आंचल में एक ही षरीर के विभिन्न अंगों की तरह एक साथ रह पाएंगे। अन्यथा वह देव भूमि जिसके लिए कहा गया है कि-
     उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रेष्चैव दक्षिणम।
     वर्श तद भारतं, नाम भारती यत्र संतति।।
सुरक्षित नहीं रह पाएगी, और न ही उसमें रहने वाली संतति ही सुरक्षित रह पाएगी। यदि हम वास्तव में देषभक्त हैं, भारतभक्त हैं तो हमें इन सांप्रदायिक खतरों से सावधान रहना होगा। साथ ही यह ध्यान भी रखना होगा कि कहीं हम इनके बहकावे में न आ जाएं। हमें ऐसे ही संयम एवं सद्भावना का परिचय देना होगा, जैसे राममंदिर फैसले के वक्त दिया था। यही इन सांप्रदायिक तत्वों से देष के बचाव का सबसे अच्छा तरीका होगा।  

yuva bharat aage kaise badhe

युवा भारत आगे कैसे बढे |
भारत एक युवा राष्ट्र है. यहाँ की ७० प्रतिशत आबादी युवा है . इतनी भारी-भरकम युवा आबादी के देश भारत में सबसे अधिक उत्पादक क्षमता मौजूद है . हमारे पास उत्पादन की क्षमता तो मौजूद है पर उसके लिए पर्याप्त अवसर नहीं हैं . जहाँ अवसर हैं भी सीमित हैं और कई जगह हमारे युवाओं में वह कुशलता नहीं है की अपनी जगह वह बना सकें . जहाँ ४१७ सफाई कर्मचारियों की आवश्यकता है, वहां ४२००० लोग आवेदन करतें हैं. जिनमें से कई तो परास्नातक डिग्री धारक हैं. जिस जगह ४०० जवानों की भर्ती है, वहां ३ लाख युवाओं का हुजूम उमड़ता है. उनको अपेक्षित रोजगार तो नहीं मिलता है, लेकिन कइओं को मौत की सौगात अवश्य मिल जाती है. जिस देश में रोजगार की स्थिति यह है, वहां के नीति-निर्माता घोटालों का ठेका लेने लगे हैं. अब इन घोटालों के ठेकेदारों और सरदारों के इस देश में युवाओं को दिशा क्या और कैसे मिले. क्या युवा भी भ्रष्ट और आचारहीन लोगों को अपना आदर्श मानकर आगे बढें. यदि ऐसी स्थिति हो गई तो, हमारे देश की स्थिति क्या होगी हम सोच भी नहीं सकते हैं. यदि हम अपने ढांचें में आमूल-चूल परिवर्तन करें. युवाओं को कुशल श्रमिक एवं अधिकारी बनाने के लिए बजट बढाएं और उन्हें उचित प्रशिक्षण दें. तभी यह संभव है की उन्हें उनका अपेक्षित रोजगार मिल सके. उनको प्रशिक्षित करना जितना आवश्यक है, उससे कहीं अधिक आवश्यक है रोजगार के अवसरों का सृजन करना. तब हम उनको सही अवसर दे पाएंगे और उनकी क्षमताओं होकर देश को नै गति मिल पायेगी. यहाँ युवाओं का कोई लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य तो अवसर नहीं है, तो वे अपना योगदान कैसे दे पाएंगे. यदि इसी तरह चलता रहा तो हमारा यह युवा भारत एक दिन बुजुर्ग भारत हो जायेगा. और समय हमारे हाथ से मुट्ठी की तरह फिसल जायेगा. जब युवाओं को हम एक लक्ष्य देंगें तो देश की समस्त समस्याएं अपने आप समाप्त हो जायेंगी. इस युवा भारत का भविष्य युवाओं के ही हाथों में है और वे देश की दशा और दिशा को तय करेंगे. इसलिए यह आवश्यक है की हम उन्हें मनरेगा जैसी योजनायें नहीं बल्कि उचित अवसर देकर मुख्यधारा में लाने का प्रयास करें. जिससे वे स्वयं को और देश के विकास को गति दे सकें. यही भारत की असली तस्वीर और बढती विकास दर का आईना होगा. 

Monday, February 7, 2011

ram janm bhumi andolan


  श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन
अयोध्या का ऐतिहासिक महत्व-
    भगवान राम का समय 17,50,000 वर्श पूर्व का माना जाता है। पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई से भी यह पूर्णतया सिद्ध हो चुका है। भगवान राम को मनु का वंषज माना जाता है, मनु के बाद महाराजा रघु हुए जिनके नाम से ही आगे चलकर इस वंष का नाम रघुवंष पड़ा था। जिसके बाद इसी वंष में राजा इक्ष्वाकु हुए, जिसके बाद महाराजा दषरथ हुए जिनके पु़त्र भगवान श्रीराम हुए। अयोध्या की ऐतिहासिकता और बाबरी ढांचे के नीचे बने श्रीराम मंदिर की प्रमाणिकता को कार्बन डेटिंग के माध्यम से स्पश्ट किया जा चुका है।
राममंदिर पर इस्लाम का बर्बर आक्रमण-
   सन 1526 ई में इस्लामी आक्रांता बाबर 5,000 सैनिकों को लेकर भारत की पुण्यभूमि पर आक्रमणकारी के रूप में आया था। सर्वप्रथम बाबर ने दिल्ली और आगरा को लूटा था। सन 1528 ई में बाबर की सेना अयोध्या पहुंच चुकी थी। बाबर के सेनापति मीरबाकी ने मूषाआसिकान नामक फकीर की सलाह से राम जन्मभूमि मंदिर पर आक्रमण कर ध्वस्त कर दिया था। मंदिर को ध्वस्त करने के बाद सेनापति मीर बाकी ने मंदिर के ही अवषेशों से बाबरी ढांचे का निर्माण कर दिया था। मीरबाकी द्वारा मंदिर ध्वस्त किए जाने का अयोध्या वासियों ने प्रबल विरोध किया था, जिसमें 1,60,000 लोग मारे गए थे। जिसके बाद ही बाबर के सेनापति को मंदिर ध्वस्त करने में सफलता मिल पाई थी। मंदिर गिराने की घटना के बाद भी मंदिर-मस्जिद ढांचे का संघर्श 1528 से लेकर 1856 ई तक अनवरत जारी रहा। 328 वर्शों के इस कालखण्ड के दौरान मंदिर और बाबरी ढांचे को लेकर 73 बार संघर्श हुआ। अंततः हिंदुओं को उस स्थान पर मंदिर को पुनः स्थापित करने में सफलता मिल गई थी। सन 1856 में फैजाबाद का नवाब वाजिद अली षाह था, जिसके पास मुस्लिम समुदाय मस्जिद के निर्माण के लिए पहुंचा था। नवाब ने इस मसले पर ध्यान न देते हुए कहा की-
       हम हुस्न के बंदे हैं, मजहब से नहीं वाकीफ़,
       काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या।।
जिसके बाद सन 1857 में मौलवी मीर अली और हनुमान गढ़ी के संत आपस में मिले। इस दौरान अयोध्या के मुस्लिम और मौलवी मीर अली राममंदिर की इस भूमि को अयोध्या के हिंदुओं को देने को राजी हो गए थे। लेकिन तत्कालीन ब्रिटिष षासन को यह बर्दाष्त नहीं हुआ।
अंग्रजों की फूट डालो और राज करो की राजनीति
  राममंदिर और मस्जिद विवाद में हिंदू-मुस्लिम समुदाय में बनी आपसी सहमति अंग्रेजों को रास नहीं आई। तत्कालीन ब्रिटिष अधिकारी कनिंगम को जैसे ही यह खबर लगी की इस विवादित मसले में दोनों समुदायों के बीच आपसी सहमति बन गई है तो वह बहुत ही आष्चर्यचकित हुआ। अंग्रेजों ने अयोध्या को जीतने के पष्चात हनुमान गढ़ी के महंत और मौलवी मीर अली दोनों को ही फंासी पर लटका दिया। जिसके बाद इस विवाद ने सन 1880 में एक बार फिर संघर्श का रूप ले लिया। इस संघर्श को देखते हुए तत्कालीन ब्रिटिष अदालत ने इस विशय के अध्ययन के लिए एक समिति का गठन किया। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही कोर्ट ने यह माना की विवादित भूमि पर ही श्रीराम का मंदिर था। लेकिन कोर्ट ने कहा चूंकी यह विवाद पुराना हो चुका है इसलिए अब मस्जिद को गिराकर मंदिर नहीं बनाया जा सकता है।
गुंबद के नीचे भगवान राम की मूर्तियां
23 दिसंबर सन 1949 की रात को मस्जिद के बीच वाले गुंबद के नीचे किसी रामभक्त ने भगवान राम की मूर्तियों को स्थापित कर दिया था। मूर्तियों को स्थापित करने के बाद से ही हिंदुओं ने उस स्थान पर कीर्तन करना प्रारंभ कर दिया जो लगातार चलता है और आज भी जारी है। इस घटना की रिपोर्ट होने के पष्चात तत्कालीन जिलाधिकारी ने ताला लगवा दिया और किसी के भी प्रवेष करने पर रोक लगा दी गई। सन 1950 गोंडा निवासी हिंदू महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष गोपाल सिंह विषारद ने फैजाबाद न्यायालय में याचिका दायर की। इस याचिका में उन्होंने कोर्ट से श्रीराम की पूजा करने की अनुमति मांगी। इसके कुछ ही समय बाद स्वामी रामचंद्र परमहंस नामक व्यक्ति ने भी अदालत में एक याचिका दायर की। कोर्ट ने इन याचिकाओं पर सुनवाई करने के बाद एक अधिकारी को उस विवादित परिसर में षांति व्यवस्था पर निगरानी रखने का आदेष दिया और उस अधिकारी की निगरानी में ही पूजा करने की इजाजत दी। सन 1961 में निर्मोही अखाड़े ने भी अदालत में याचिका दायर कर विवादित भूमि पर अपना हक जताया। इसके बाद सुन्नी वक्फ़ बोर्ड ने भी कोर्ट में याचिका दायर की और वक्फ़ बोर्ड ने इस भूमि को मस्जिद की भूमि बताया और बगल में स्थित भूमि को भी कब्रिस्तान की भूमि बताते हुए उस पर अपना हक जताया।
राम-जन्मभूमि आंदोलन-ः
भगवान राम की इस भूमि को मुक्त कराने के लिए अनेकों आंदोलन हुए, विभिन्न संघर्श हुए लेकिन हिंदुओं की यह आस्था की भूमि, पुण्यभूमि मुक्त न हो सकी। अंततः हिन्दू राश्ट्र के आराध्य देव भगवान श्रीराम के भक्तों को रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए आंदोलन चलाना ही पड़ा। सन 1983 में हिन्दू जागरण मंच के तत्कालीन सचिव विजय कौषल जी महाराज ने उत्तर प्रदेष के मुजफ्फरनगर में हिन्दू सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में वरिश्ठ कांग्रेसी नेता दादू दयाल खन्ना भी उपस्थित थे। उस सम्मेलन में ही दादू दयाल खन्ना ने आम समाज और तत्कालीन नेताओं से इस आंदोलन में हिस्सा लेने की अपील की थी। इस सम्मेलन के बाद ही विभिन्न राजनीतिक पार्टियों और विष्व हिन्दू परिशद का भी ध्यान इस ओर आकृश्ट हुआ। इस के बाद दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित हुई पहली ही धर्मसंसद में श्रीरामजन्म भूमि मुक्ति समिति का गठन हुआ। अक्टूबर 1984 में इस समिति ने अयोध्या से लेकर दिल्ली तक के लिए रथयात्रा निकाली। जिसमें रामजानकी की ताले में बंद मूर्तियां प्रतीक स्वरूप रखीं गई थी। 31 अक्टूबर 1984 को यह रथयात्रा गाजियाबाद पहुंच चुकी थी, और इसके बाद 1 नवंबर को इस रथयात्रा को दिल्ली पहुंचना था। लेकिन 31 अक्टूबर को ही भारतीय राजनीति में भूचाल लाने वाली घटना घट गई। भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके ही सुरक्षा कर्मियों ने हत्या कर दी। जिसके बाद रथयात्रा को अनिष्चित समय तक के लिए रदद कर दिया गया। यह विशय एक बार फिर से आलोक में आया जब सन 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने राम जन्मभूमि मंदिर परिसर का ताला खुलवाया। सन 1989 में इस मामले में विष्व हिन्दू परिशद ने ऐतिहासिक कदम उठाते हुए विवादित भूमि के बगल में ही 67 एकड़ भूमि को खरीद लिया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की विष्व हिन्दू परिशद ने इस भूमि का षिलान्यास दलित व्यक्ति रामेष्वर चौपाल के द्वारा करवाया था। हिन्दू समाज में समरसता और बंधुत्वता लाने की दृश्टि से विष्व हिन्दू परिशद द्वारा दलित व्यक्ति से षिलान्यास करवाना उल्लेखनीय कार्य था। 30 अक्टूबर 1990 को विहिप ने कारसेवा करने की योजना बनाई लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री ने इस कारसेवा पर सवाल उठाया। षासन के अवरोधों के बावजूद राम भक्तों ने अपने निर्णय को नहीं टाला और 30 अक्टूबर को 50,000 कारसेवक अयोध्या पहुंच चुके थे। कारसेवा के दौरान ही प्रदेष षासन के कारण पुलिस ने रामभक्त कारसेवकों पर फायरिंग कर दी, जिसमें दो रामभक्त बंधु षरद कोठारी और राम कोठारी षहीद हो गए। विष्व हिन्दू परिशद ने कारसेवा के दौरान षहीद हुए 80 रामभक्तों की अस्थियों के कलषों को लेकर पूरे भारत में यात्रा की और जनता तक इस विशय को ले जाने का प्रयास किया। राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन की इसी कड़ी में विभिन्न हिन्दुवादी संगठनों ने दिल्ली में रैली का आयोजन किया जो दिल्ली के इतिहास की सबसे बड़ी रैली थी। सन 1990 में ही मुस्लिमों ने भी बाबरी मस्जिद एक्षन कमेटी का गठन किया और इस कमेटी को मुस्लिमों का पक्ष रखने के लिए अधिकृत किया गया। इसी दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रषेखर ने भी इस विवाद का हल निकालने की कोषिष की, लेकिन वे किसी समाधान तक पहुंचने में असफल रहे। राम जन्म भूमि विवाद को लेकर कोर्ट के बार-बार फैसले टालने से लोगों की उत्तेजना बढ़ती जा रही थी जो किसी भी क्षण विध्वंस का रूप ले सकती थी।
6 दिसंबर 1992- बाबरी ढांचा विध्वंस
   राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन में 6 दिसंबर सन 1992 का दिन अविस्मरणीय दिन था। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की यात्रा के अयोध्या पहुंचने के बाद 6 दिसंबर को रामभक्तों का कारसेवा का कार्यक्रम था। लेकिन केन्द्र सरकार ने कारसेवा के दौरान हिंसा और बाबरी ढांचे को खतरा होने की आष्ंाका जतायी। केन्द्र ने प्रदेष सरकार से किसी भी प्रकार की हिंसा न होने देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में षपथ पत्र दाखिल करने को कहा। प्रदेष सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में षपथ पत्र दाखिल किया और कानून-व्यवस्था बनाए रखने पर प्रतिबद्धता जताई। 6 दिसंबर को एक घंटे के कारसेवा के कार्यक्रम के बाद रामभक्तों का एक जत्था विवादित ढांचे की ओर बढ़ने लगा, नेताओं द्वारा मना करने के बाद भी उत्साहित रामभक्त नहीं रूके। रामभक्तों ने विवादित बाबरी ढांचे को ढहाना षुरू कर दिया, 1130 बजे से 530 बजे तक ढांचे को ढहाकर मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ कर दिया। लेकिन तब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई, यहां तक की सुरक्षा बल भी दो दिन बाद यानि 8 दिसंबर को विवादित स्थल पर पहुंचे। लेकिन तब तक वहां पर उनके करने के लिए कुछ रह नहीं गया था। इस घटना के बाद केन्द्र सरकार ने विहिप द्वारा विवादित स्थल के नजदीक ही खरीदी गई भूमि को अपने कब्जे में ले लिया। बाबरी मस्जिद एक्षन कमेटी ने संयुक्त राश्ट्र संघ से हस्तक्षेप की मांग की।
पुरातत्व विभाग को मिले साक्ष्य
  सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व विभाग को यह आदेष दिया की विवादित स्थान की खुदाई करे जिससे की मंदिर होने की मान्यता की प्रमाणिकता का पता चल सके। पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई से यह प्रमाणित हुआ की विवादित स्थल ही भगवान राम का जन्म स्थान है और यहीं भगवान राम का भव्य मंदिर भी था। इस खुदाई के दौरान मिले एक षिलालेख में यह लिखित प्रमाण मिला की इस मंदिर को किसने और कब बनवाया था। इसी खुदाई के दौरान 67 अन्य साक्ष्य भी मिले जिनसे वहां मंदिर होने की पुश्टि होती है। कार्बन डेटिंग के माध्यम से भी उस स्थान पर राम मंदिर होने के दावे को प्रमाणिक आधार प्राप्त हुआ है।
30 सितंबर 2010- इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय
  राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद पर लंबे इंतजार के बाद हाईकोर्ट का निर्णय आया जिससे इस विवाद के समाधान की उम्मीद जगने लगी थी। 30 सितंबर 2010 सायं 330 बजे इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय आया, जिसमें कोर्ट ने हिंदुओं की उस स्थान पर मंदिर होने की मान्यता को प्रमाणित किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रामलला विराजमान के स्थान को हिंदुओं को सौंपने की बात कही, और विवादित भूमि को तीन हिस्सों में विभाजित करते हुए, दो हिस्सा हिंदुओं को और एक हिस्सा मुस्लिमों को सौंपने का निर्णय सुनाया। हाईकोर्ट के इस निर्णय में महत्वपूर्ण बात यह रही की कोर्ट ने पूर्व में वहां मंदिर होने के दावे को सही ठहराया। लेकिन  कोर्ट का यह निर्णय उन लोगों को रास नहीं आया जो वोटों की राजनीति करना चाहते थे। उन्होंने विभिन्न कुतर्कों का सहारा लेकर इस फैसले को ही गलत ठहराना षुरू कर दिया और समाज में वैमनस्यता फैलाने का प्रयास किया। कोर्ट के निर्णय के बाद महंत ज्ञानदास और हाषिम अंसारी ने समझौते के माध्यम से कोई सर्व मान्य हल निकालने का प्रयास आरंभ किया। लेकिन कटटरपंथी मुस्लिमों के दबाव में हाषिम अंसारी को पीछे हटना पड़ा और यह मुकदमा एक बार फिर अधर में लटक गया। सुन्नी वक्फ बोर्ड ने कोर्ट के इस निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी, फिर अन्य प्रतिवादियों को भी कोर्ट तक पहुंचना ही था। लेकिन इस मुकदमे बाजी ने देष में सांप्रदायिक सौहार्द की ओर बढ़ते हुए कदमों को ठिठकने पर मजबूर कर दिया। अब इसके बाद देखना यह है की मुकदमे बाजी की इस लंबी यात्रा का अंत कब होता है।