Monday, February 21, 2011

लोकतंत्र की आवाज आई, नहीं रहेगी तानाशाही

ट्यूनीशिया से शुरू हुए जनविद्रोह की लहर का असर व्यापक पैमाने पर हुआ है. ट्यूनीशिया में २३ वर्षों से तानाशाही राज चलाने वाले जिने अल आबेदीन बेन अली को देश छोड़ सउदी अरब भागना पड़ गया है. लोकतंत्र की लहर का ही असर है की मिस्त्र में भी लोगों ने मुबारक की सत्ता पलट दी. 
            जबरदस्त आन्दोलन के फलस्वरूप मिस्त्र और ट्यूनीशिया में सत्ता परिवर्तन के बाद अरब और अफ्रीका के दर्जनों देशों में आन्दोलन ने जोर पकड़ा है. उत्तर अफ्रीकी देश लीबिया के राष्ट्रपति कर्नल गद्दाफी के खिलाफ जनता सड़कों पर है. सत्ता के खिलाफ लीबिया में हुए प्रदर्शनों में दर्जनों लोग मारे जा चुके हैं. लेकिन आन्दोलनकारियों ने लोकतंत्र की आस नहीं छोड़ी है. इसी प्रकार बहरीन की राजधानी मनामा में लोग सड़कों पर डटे हुए हैं. बहरीन और लीबिया ही नहीं लोकतंत्र की जद में दर्जनों देश आने को आतुर हैं. यमन, जिबूती, कुवैत, जोर्डन, ईरान, थाईलैंड, अल्गेरिया, अल्बानिया, बोलिविया में लोग लोकतंत्र की चाहत में संघर्षरत हैं. सशक्त राष्ट्र रूस और चीन में भी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. अरब-अफ्रीका के देशों में चली लोकतंत्र की बयार पश्चिमी देशों के भी समीकरण बिगाड़ रही है. पश्चिमी देश अमेरिका और ब्रिटेन ने इन गरीब राष्ट्रों की सरकारों को समर्थन दे रखा था. अब इनके सामने यह मुसीबत है की इन राष्ट्रों की जनता को क्या जवाब दें. अमेरिका और उसकी समर्थक ताकतों को अपनी रणनीति में परिवर्तन करते हुए, सत्ता परिवर्तन की बातें करनी पड़ रही हैं. अमेरिका ने अपने समर्थक रहे मुबारक को भी संकट के समय साथ छोड़ते हुए, सत्ता छोड़ने की सलाह दी. राष्ट्रपति ओबामा ने कहा की जनता तानाशाही से ऊब चुकी है. इससे पहले इन महाशक्तियों ने तानाशाही पर लगाम कसने पर ध्यान नहीं दिया था. इसका कारन इन राष्ट्रों के तानाशाहों का अमेरिकी नीतियों का अनुसरण करना था. अमेरिका के समर्थन से तानाशाहों का शासन चल रह था, और अमेरिका को आसानी से तेल मिल रहा था. लेकिन जब अमेरिका की पिट्ठू सरकारों के लिए खतरा उत्पन्न हो गया, तो अमेरिका ने भी लोकतंत्र का सितार बजाया. इससे पहले हितसाधक महाशक्ति अमेरिका को लोकतंत्र की जरूरत नहीं महसूस हुई थी. अब भी अमेरिका और उसकी साथी महाशक्तियों का यही प्रयास है,की सत्ता परिवर्तन तो हो लेकिन उनके इशारों पर. इसलिए अमेरिका ने शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण का सुर छेड़ा है. ताकि आने वाली सरकार उनके समर्थकों की ही बने और उनके हितों की अनदेखी न होने पाए. अमेरिका को यह भी भय है की इन राष्ट्रों में यदि लोकतान्त्रिक सरकारें बनती हैं तो वह  उनके इशारों पर नहीं चलेंगी. उनकी अपनी स्वतंत्र नीति होगी, और राष्ट्रवाद उसका प्रमुख आधार होगा. इसलिए अमेरिका अपनी समर्थक ताकतों के हाथों में ही इन राष्ट्रों की सत्ता देखना चाहता है. जिसके लिए वह प्रयासरत भी है. अमेरिका की इस दोहरी नीति से उसके कथित लोकतान्त्रिक चेहरे की पहचान होती है. भारतीय उपमहाद्वीप की यदि बात की जाए तो, अमेरिका ने पाक में मुशर्रफ शासन का भी साथ दिया था. लेकिन तख्ता पलट होने के बाद परवेज मुशर्रफ का दामन छोड़ दिया. अब भी यदि पाक में आतंकी शक्तिओं के खिलाफ और लोकतंत्र की मांग में जनता आन्दोलन करती है तो अमेरिका पाक की वर्त्तमान सत्ता के साथ भी नहीं खड़ा होगा. यह सच्चाई है. लेकिन सत्य यह भी है की विभिन्न राष्ट्रों की जनता जब तानाशाही के खिलाफ सड़कों पर उतरेगी तो तानाशाही ताकतें भी परास्त होंगी. साथ ही लोकतंत्र की स्थापना भी आसान होगी. अब देखना केवल यह है की अरब-अफ्रीकी देशों से चली यह लोकतंत्र की बयार कहाँ तक जायेगी.  

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