Monday, February 7, 2011

ram janm bhumi andolan


  श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन
अयोध्या का ऐतिहासिक महत्व-
    भगवान राम का समय 17,50,000 वर्श पूर्व का माना जाता है। पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई से भी यह पूर्णतया सिद्ध हो चुका है। भगवान राम को मनु का वंषज माना जाता है, मनु के बाद महाराजा रघु हुए जिनके नाम से ही आगे चलकर इस वंष का नाम रघुवंष पड़ा था। जिसके बाद इसी वंष में राजा इक्ष्वाकु हुए, जिसके बाद महाराजा दषरथ हुए जिनके पु़त्र भगवान श्रीराम हुए। अयोध्या की ऐतिहासिकता और बाबरी ढांचे के नीचे बने श्रीराम मंदिर की प्रमाणिकता को कार्बन डेटिंग के माध्यम से स्पश्ट किया जा चुका है।
राममंदिर पर इस्लाम का बर्बर आक्रमण-
   सन 1526 ई में इस्लामी आक्रांता बाबर 5,000 सैनिकों को लेकर भारत की पुण्यभूमि पर आक्रमणकारी के रूप में आया था। सर्वप्रथम बाबर ने दिल्ली और आगरा को लूटा था। सन 1528 ई में बाबर की सेना अयोध्या पहुंच चुकी थी। बाबर के सेनापति मीरबाकी ने मूषाआसिकान नामक फकीर की सलाह से राम जन्मभूमि मंदिर पर आक्रमण कर ध्वस्त कर दिया था। मंदिर को ध्वस्त करने के बाद सेनापति मीर बाकी ने मंदिर के ही अवषेशों से बाबरी ढांचे का निर्माण कर दिया था। मीरबाकी द्वारा मंदिर ध्वस्त किए जाने का अयोध्या वासियों ने प्रबल विरोध किया था, जिसमें 1,60,000 लोग मारे गए थे। जिसके बाद ही बाबर के सेनापति को मंदिर ध्वस्त करने में सफलता मिल पाई थी। मंदिर गिराने की घटना के बाद भी मंदिर-मस्जिद ढांचे का संघर्श 1528 से लेकर 1856 ई तक अनवरत जारी रहा। 328 वर्शों के इस कालखण्ड के दौरान मंदिर और बाबरी ढांचे को लेकर 73 बार संघर्श हुआ। अंततः हिंदुओं को उस स्थान पर मंदिर को पुनः स्थापित करने में सफलता मिल गई थी। सन 1856 में फैजाबाद का नवाब वाजिद अली षाह था, जिसके पास मुस्लिम समुदाय मस्जिद के निर्माण के लिए पहुंचा था। नवाब ने इस मसले पर ध्यान न देते हुए कहा की-
       हम हुस्न के बंदे हैं, मजहब से नहीं वाकीफ़,
       काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या।।
जिसके बाद सन 1857 में मौलवी मीर अली और हनुमान गढ़ी के संत आपस में मिले। इस दौरान अयोध्या के मुस्लिम और मौलवी मीर अली राममंदिर की इस भूमि को अयोध्या के हिंदुओं को देने को राजी हो गए थे। लेकिन तत्कालीन ब्रिटिष षासन को यह बर्दाष्त नहीं हुआ।
अंग्रजों की फूट डालो और राज करो की राजनीति
  राममंदिर और मस्जिद विवाद में हिंदू-मुस्लिम समुदाय में बनी आपसी सहमति अंग्रेजों को रास नहीं आई। तत्कालीन ब्रिटिष अधिकारी कनिंगम को जैसे ही यह खबर लगी की इस विवादित मसले में दोनों समुदायों के बीच आपसी सहमति बन गई है तो वह बहुत ही आष्चर्यचकित हुआ। अंग्रेजों ने अयोध्या को जीतने के पष्चात हनुमान गढ़ी के महंत और मौलवी मीर अली दोनों को ही फंासी पर लटका दिया। जिसके बाद इस विवाद ने सन 1880 में एक बार फिर संघर्श का रूप ले लिया। इस संघर्श को देखते हुए तत्कालीन ब्रिटिष अदालत ने इस विशय के अध्ययन के लिए एक समिति का गठन किया। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही कोर्ट ने यह माना की विवादित भूमि पर ही श्रीराम का मंदिर था। लेकिन कोर्ट ने कहा चूंकी यह विवाद पुराना हो चुका है इसलिए अब मस्जिद को गिराकर मंदिर नहीं बनाया जा सकता है।
गुंबद के नीचे भगवान राम की मूर्तियां
23 दिसंबर सन 1949 की रात को मस्जिद के बीच वाले गुंबद के नीचे किसी रामभक्त ने भगवान राम की मूर्तियों को स्थापित कर दिया था। मूर्तियों को स्थापित करने के बाद से ही हिंदुओं ने उस स्थान पर कीर्तन करना प्रारंभ कर दिया जो लगातार चलता है और आज भी जारी है। इस घटना की रिपोर्ट होने के पष्चात तत्कालीन जिलाधिकारी ने ताला लगवा दिया और किसी के भी प्रवेष करने पर रोक लगा दी गई। सन 1950 गोंडा निवासी हिंदू महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष गोपाल सिंह विषारद ने फैजाबाद न्यायालय में याचिका दायर की। इस याचिका में उन्होंने कोर्ट से श्रीराम की पूजा करने की अनुमति मांगी। इसके कुछ ही समय बाद स्वामी रामचंद्र परमहंस नामक व्यक्ति ने भी अदालत में एक याचिका दायर की। कोर्ट ने इन याचिकाओं पर सुनवाई करने के बाद एक अधिकारी को उस विवादित परिसर में षांति व्यवस्था पर निगरानी रखने का आदेष दिया और उस अधिकारी की निगरानी में ही पूजा करने की इजाजत दी। सन 1961 में निर्मोही अखाड़े ने भी अदालत में याचिका दायर कर विवादित भूमि पर अपना हक जताया। इसके बाद सुन्नी वक्फ़ बोर्ड ने भी कोर्ट में याचिका दायर की और वक्फ़ बोर्ड ने इस भूमि को मस्जिद की भूमि बताया और बगल में स्थित भूमि को भी कब्रिस्तान की भूमि बताते हुए उस पर अपना हक जताया।
राम-जन्मभूमि आंदोलन-ः
भगवान राम की इस भूमि को मुक्त कराने के लिए अनेकों आंदोलन हुए, विभिन्न संघर्श हुए लेकिन हिंदुओं की यह आस्था की भूमि, पुण्यभूमि मुक्त न हो सकी। अंततः हिन्दू राश्ट्र के आराध्य देव भगवान श्रीराम के भक्तों को रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए आंदोलन चलाना ही पड़ा। सन 1983 में हिन्दू जागरण मंच के तत्कालीन सचिव विजय कौषल जी महाराज ने उत्तर प्रदेष के मुजफ्फरनगर में हिन्दू सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में वरिश्ठ कांग्रेसी नेता दादू दयाल खन्ना भी उपस्थित थे। उस सम्मेलन में ही दादू दयाल खन्ना ने आम समाज और तत्कालीन नेताओं से इस आंदोलन में हिस्सा लेने की अपील की थी। इस सम्मेलन के बाद ही विभिन्न राजनीतिक पार्टियों और विष्व हिन्दू परिशद का भी ध्यान इस ओर आकृश्ट हुआ। इस के बाद दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित हुई पहली ही धर्मसंसद में श्रीरामजन्म भूमि मुक्ति समिति का गठन हुआ। अक्टूबर 1984 में इस समिति ने अयोध्या से लेकर दिल्ली तक के लिए रथयात्रा निकाली। जिसमें रामजानकी की ताले में बंद मूर्तियां प्रतीक स्वरूप रखीं गई थी। 31 अक्टूबर 1984 को यह रथयात्रा गाजियाबाद पहुंच चुकी थी, और इसके बाद 1 नवंबर को इस रथयात्रा को दिल्ली पहुंचना था। लेकिन 31 अक्टूबर को ही भारतीय राजनीति में भूचाल लाने वाली घटना घट गई। भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके ही सुरक्षा कर्मियों ने हत्या कर दी। जिसके बाद रथयात्रा को अनिष्चित समय तक के लिए रदद कर दिया गया। यह विशय एक बार फिर से आलोक में आया जब सन 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने राम जन्मभूमि मंदिर परिसर का ताला खुलवाया। सन 1989 में इस मामले में विष्व हिन्दू परिशद ने ऐतिहासिक कदम उठाते हुए विवादित भूमि के बगल में ही 67 एकड़ भूमि को खरीद लिया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की विष्व हिन्दू परिशद ने इस भूमि का षिलान्यास दलित व्यक्ति रामेष्वर चौपाल के द्वारा करवाया था। हिन्दू समाज में समरसता और बंधुत्वता लाने की दृश्टि से विष्व हिन्दू परिशद द्वारा दलित व्यक्ति से षिलान्यास करवाना उल्लेखनीय कार्य था। 30 अक्टूबर 1990 को विहिप ने कारसेवा करने की योजना बनाई लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री ने इस कारसेवा पर सवाल उठाया। षासन के अवरोधों के बावजूद राम भक्तों ने अपने निर्णय को नहीं टाला और 30 अक्टूबर को 50,000 कारसेवक अयोध्या पहुंच चुके थे। कारसेवा के दौरान ही प्रदेष षासन के कारण पुलिस ने रामभक्त कारसेवकों पर फायरिंग कर दी, जिसमें दो रामभक्त बंधु षरद कोठारी और राम कोठारी षहीद हो गए। विष्व हिन्दू परिशद ने कारसेवा के दौरान षहीद हुए 80 रामभक्तों की अस्थियों के कलषों को लेकर पूरे भारत में यात्रा की और जनता तक इस विशय को ले जाने का प्रयास किया। राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन की इसी कड़ी में विभिन्न हिन्दुवादी संगठनों ने दिल्ली में रैली का आयोजन किया जो दिल्ली के इतिहास की सबसे बड़ी रैली थी। सन 1990 में ही मुस्लिमों ने भी बाबरी मस्जिद एक्षन कमेटी का गठन किया और इस कमेटी को मुस्लिमों का पक्ष रखने के लिए अधिकृत किया गया। इसी दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रषेखर ने भी इस विवाद का हल निकालने की कोषिष की, लेकिन वे किसी समाधान तक पहुंचने में असफल रहे। राम जन्म भूमि विवाद को लेकर कोर्ट के बार-बार फैसले टालने से लोगों की उत्तेजना बढ़ती जा रही थी जो किसी भी क्षण विध्वंस का रूप ले सकती थी।
6 दिसंबर 1992- बाबरी ढांचा विध्वंस
   राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन में 6 दिसंबर सन 1992 का दिन अविस्मरणीय दिन था। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की यात्रा के अयोध्या पहुंचने के बाद 6 दिसंबर को रामभक्तों का कारसेवा का कार्यक्रम था। लेकिन केन्द्र सरकार ने कारसेवा के दौरान हिंसा और बाबरी ढांचे को खतरा होने की आष्ंाका जतायी। केन्द्र ने प्रदेष सरकार से किसी भी प्रकार की हिंसा न होने देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में षपथ पत्र दाखिल करने को कहा। प्रदेष सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में षपथ पत्र दाखिल किया और कानून-व्यवस्था बनाए रखने पर प्रतिबद्धता जताई। 6 दिसंबर को एक घंटे के कारसेवा के कार्यक्रम के बाद रामभक्तों का एक जत्था विवादित ढांचे की ओर बढ़ने लगा, नेताओं द्वारा मना करने के बाद भी उत्साहित रामभक्त नहीं रूके। रामभक्तों ने विवादित बाबरी ढांचे को ढहाना षुरू कर दिया, 1130 बजे से 530 बजे तक ढांचे को ढहाकर मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ कर दिया। लेकिन तब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई, यहां तक की सुरक्षा बल भी दो दिन बाद यानि 8 दिसंबर को विवादित स्थल पर पहुंचे। लेकिन तब तक वहां पर उनके करने के लिए कुछ रह नहीं गया था। इस घटना के बाद केन्द्र सरकार ने विहिप द्वारा विवादित स्थल के नजदीक ही खरीदी गई भूमि को अपने कब्जे में ले लिया। बाबरी मस्जिद एक्षन कमेटी ने संयुक्त राश्ट्र संघ से हस्तक्षेप की मांग की।
पुरातत्व विभाग को मिले साक्ष्य
  सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व विभाग को यह आदेष दिया की विवादित स्थान की खुदाई करे जिससे की मंदिर होने की मान्यता की प्रमाणिकता का पता चल सके। पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई से यह प्रमाणित हुआ की विवादित स्थल ही भगवान राम का जन्म स्थान है और यहीं भगवान राम का भव्य मंदिर भी था। इस खुदाई के दौरान मिले एक षिलालेख में यह लिखित प्रमाण मिला की इस मंदिर को किसने और कब बनवाया था। इसी खुदाई के दौरान 67 अन्य साक्ष्य भी मिले जिनसे वहां मंदिर होने की पुश्टि होती है। कार्बन डेटिंग के माध्यम से भी उस स्थान पर राम मंदिर होने के दावे को प्रमाणिक आधार प्राप्त हुआ है।
30 सितंबर 2010- इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय
  राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद पर लंबे इंतजार के बाद हाईकोर्ट का निर्णय आया जिससे इस विवाद के समाधान की उम्मीद जगने लगी थी। 30 सितंबर 2010 सायं 330 बजे इलाहाबाद हाईकोर्ट का निर्णय आया, जिसमें कोर्ट ने हिंदुओं की उस स्थान पर मंदिर होने की मान्यता को प्रमाणित किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रामलला विराजमान के स्थान को हिंदुओं को सौंपने की बात कही, और विवादित भूमि को तीन हिस्सों में विभाजित करते हुए, दो हिस्सा हिंदुओं को और एक हिस्सा मुस्लिमों को सौंपने का निर्णय सुनाया। हाईकोर्ट के इस निर्णय में महत्वपूर्ण बात यह रही की कोर्ट ने पूर्व में वहां मंदिर होने के दावे को सही ठहराया। लेकिन  कोर्ट का यह निर्णय उन लोगों को रास नहीं आया जो वोटों की राजनीति करना चाहते थे। उन्होंने विभिन्न कुतर्कों का सहारा लेकर इस फैसले को ही गलत ठहराना षुरू कर दिया और समाज में वैमनस्यता फैलाने का प्रयास किया। कोर्ट के निर्णय के बाद महंत ज्ञानदास और हाषिम अंसारी ने समझौते के माध्यम से कोई सर्व मान्य हल निकालने का प्रयास आरंभ किया। लेकिन कटटरपंथी मुस्लिमों के दबाव में हाषिम अंसारी को पीछे हटना पड़ा और यह मुकदमा एक बार फिर अधर में लटक गया। सुन्नी वक्फ बोर्ड ने कोर्ट के इस निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी, फिर अन्य प्रतिवादियों को भी कोर्ट तक पहुंचना ही था। लेकिन इस मुकदमे बाजी ने देष में सांप्रदायिक सौहार्द की ओर बढ़ते हुए कदमों को ठिठकने पर मजबूर कर दिया। अब इसके बाद देखना यह है की मुकदमे बाजी की इस लंबी यात्रा का अंत कब होता है।    

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