Tuesday, March 29, 2011

जीवन दर्शन की प्रणेता.... भगवदगीता


भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म में गीता का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है. गीता को भारतीय जीवन दर्शन का प्रणेता कहा जा सकता है. विश्व के सबसे लोकप्रिय ग्रन्थ भगवदगीता में प्रकृति के तीन गुणों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है. 
             सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः.
             निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम.
            गीता में कहा गया है की प्रकृति तीन गुणों से युक्त है. सतो, रजो तथा तमोगुण. जब शाश्वत जीव प्रकृति के संसर्ग में आता है, तो वह इन गुणों से बंध जाता है. दिव्य होने के कारण जीव को इस भौतिक प्रकृति से कुछ भी लेना-देना नहीं है. फिर भी भौतिक जगत में आने के कारण वह प्रकृति के तीनों गुणों के वशीभूत होकर कार्य करता है. यही मनुष्य के भौतिक जगत में सुख और दुःख का कारण है.
             तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम.
             सुखसंगें बध्नाति ज्ञानसंगें चानघ .
सतोगुण अन्य गुणों की अपेक्षा प्रकाश प्रदान करने वाला और मनुष्यों को सभी पापकर्मों से मुक्त करने वाला है. सतोगुणी लोग सुख तथा ज्ञान के भाव से बंध जाते हैं. सतोगुणी पुरुष को भौतिक कष्ट उतना पीड़ित नहीं करते और उसमें भौतिक ज्ञान की प्रगति करने की सूझ होती है. वास्तव में वैदिक साहित्य में कहा गया है की सतोगुण का अर्थ ही है अधिक ज्ञान तथा सुख का अधिकाधिक अनुभव. सतोगुण को प्रकृति के तीनों गुणों में प्रधान गुण माना गया है.
           रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवं.
           तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसंगें देहिनम.
 रजोगुण की उत्पत्ति असीम आकांक्षाओं तथा तृष्णा से होती है. इसी के कारण से यह देहधारी जीव सकाम कर्मों से बंध जाता है. रजोगुण की विशेषता है, पुरुष तथा स्त्री का पारस्परिक आकर्षण. रजोगुण में वृद्धि के कारण मनुष्य विषयों के भोग के लिए लालायित रहता है. वह इन्द्रियतृप्ति चाहता है. रजोगुण के फलस्वरूप ही मनुष्य संतान, स्त्री सहित सुखी घर परिवार चाहता है. यह सब रजोगुण के ही प्रतिफल हैं. लेकिन आधुनिक सभ्यता में रजोगुण का मानदंड ऊंचा है. अर्थात समस्त संसार ही न्यूनाधिक रूप से रजोगुणी है. प्राचीन काल में सतोगुण को उच्च अवस्था माना जाता था. लेकिन आधुनिक सभ्यता में रजोगुण प्रधान हो गया है. इसका कारण भौतिक भोग की लालसा में वृद्धि होना है.
         तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम.
        प्रमादालास्य निद्राभिस्तन्निबध्नाती भारत.
 अज्ञान से उत्पन्न तमोगुण समस्त देहधारी जीवों का मोह है. इस गुण के प्रतिफल पागलपन, आलस तथा नींद हैं, जो बद्धजीव को बांधते हैं. तमोगुण देहधारी जीव का अत्यंत विचित्र गुण है. यह गुण सतोगुण के सर्वथा विपरीत है.सतोगुण के विकास से मनुष्य यह जान सकता है की कौन क्या है, लेकिन तमोगुण इसके सर्वथा विपरीत है. जो तमोगुण के फेर में पड़ता है वह पागल सा हो जाता है और वह नहीं समझ पता है की कौन क्या है. वह प्रगति के बजाय अधोगति को प्राप्त हो जाता है. अज्ञान के वशीभूत होने पर मनुष्य किसी वस्तु को यथारूप नहीं समझ पाता है. तमोगुणी व्यक्ति जीवन भर लगातार विषयों की और दौड़ता है. और सत्य को जाने बिना पागल की तरह धन का संग्रह करता है. ऐसा व्यक्ति सदैव निराश प्रतीत होता है और भौतिक विषयों के प्रति व्यसनी बन जाता है. यह सभी तमोगुणी व्यक्ति के लक्षण हैं.
      सत्त्वं सुखे संच्यति रजः कर्मणि भारत.
      ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संचयत्युत.
भगवदगीता गीता के उपदेश में श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं की हे भरतपुत्र! सतोगुण मनुष्य को सुख से बांधता है, रजोगुण सकाम कर्म से बांधता है. वहीँ तमोगुण मनुष्य के ज्ञान को ढक कर उसे पागलपन से बांधता है. भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं की सतोगुणी पुरुष अपने कर्म या बौद्धिक वृत्ति से उसी तरह संतुष्ट रहता है, जिस प्रकार दार्शनिक, वैज्ञानिक अपनी विद्याओं में निरत रहकर संतुष्ट रहते हैं. रजोगुणी व्यक्ति सकाम कर्म में लग सकता है, वह यथासंभव धन प्राप्त करके उत्तम कार्यों में खर्च करता है. अस्पताल आदि खोलता है और धर्मार्थ के कार्यों में व्यय करता है. ये रजोगुणी व्यक्ति के लक्षण हैं. 
लेकिन तमोगुण तो व्यक्ति के ज्ञान को ही ढक लेता है. तमोगुण में रहकर मनुष्य जो भी करता है, वह न तो उसके लिए, न किसी अन्य के लिए हितकर होता है. इसलिए सतोगुण ही व्यक्ति के जीवन को सफल बना सकता है, और मोक्ष की प्राप्ति का रास्ता भी सतोगुण से होकर ही जाता है.






Wednesday, March 23, 2011

शहीदों की अमर प्रेरणा


शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मिटने वालों का यही बाकि निशान होगा...

आज २३ मार्च है, २१वीं सदी में जी रहे भारत के युवाओं को क्या कुछ याद है. शायद नहीं, क्योंकि उनके आदर्श अब राष्ट्रवाद के प्रणेता नहीं बल्कि फ़िल्मी हीरो और क्रिकेट सितारे हो गए हैं. वर्ल्ड कप के दौरान २३ मार्च राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव का बलिदान दिवस कब चुपके से आ गया शायद किसी को यह पता ही नहीं चला. या कहें कि हमने अपनी स्मरण शक्ति पर जोर देना ही छोड़ दिया है. सन १९३१ में २३ मार्च के ही दिन भारत मां के तीन सपूतों ने राष्ट्रयज्ञ में अपनी पूर्णाहुति दे दी थी. इस राष्ट्रभक्ति के पीछे उनका यही जज्बा काम कर रह था, कि हमारे बलिदान से देश को आजादी और जागृति मिलेगी. उनके इस बलिदान से देश को आजादी तो मिली है, लेकिन शायद हमें जागृति नहीं मिली.
यदि हमें जागृति मिली होती और हमारा राष्ट्रवाद पूर्णतया जागृत होता तो हम इनको भूलने का प्रयास न करते. देश के पूर्व प्रधानमंत्री के नाम से विभिन्न आयोजन और कार्यक्रम करने वाली सरकार ने इन शहीदों को सलामी देने का क्या कोई प्रयास किया है? इसमें अन्य राजनीतिक दल भी पीछे नहीं हैं, जो अपनी पार्टी के भ्रष्ट नेताओं के भी जन्मदिवस या पुण्य तिथि पर तो जोरदार जलसों का आयोजन करते हैं. लेकिन राष्ट्र के इन अमर नायकों की पुण्यस्मृति में कोई कार्यक्रम नहीं करते हैं. क्या इन राष्ट्र नायकों का बलिदान इन तथाकथित बलिदानी नेताओं से किसी मायने में कम था?
स्वतंत्रता की देवी के चरणों में स्वयं को न्यौछावर करने वाले शिवराम राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव थापर के जीवन से प्रेरणा लेने के लिए हमारे पास बहुत कुछ है. शहीद भगत सिंह का जन्म २८ सितम्बर १९०७ को  तत्कालीन पंजाब के लयाल पुर जिले में हुआ था. भगत सिंह बाल्यकाल से ही प्रखर राष्ट्रभक्त थे, जिसका उदाहरण मै एक प्रसंग के माध्यम से देना चाहूँगा.
यह बात उस समय की है जब भगत तीसरी कक्षा के विद्यार्थी थे. भगत सिंह अपने पिता किशन सिंह जी के साथ आम के बगीचे में गए. वहां भगत सिंह जमीन में जगह-जगह पर तिनके गाड़ने लगे, पिता ने पूछा भगत ये क्या कर रहे हो तो भगत का उत्तर था कि पिताजी मैं बंदूकें बो रहा हूँ. यह प्रसंग इतना समझने के लिए पर्याप्त है कि भगत बाल्यावस्था से ही कितने क्रांतिकारी विचारों के थे.
भारतभूमि की स्वतंत्रता के लिए समर्पित होने वाले दूसरे नायक थे शिवराम हरी राजगुरु जिनका जन्म २४ अगस्त १९०८ को महाराष्ट्र में हुआ था. राजगुरु ने अंग्रेज पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, उन्होंने काकोरी कांड में भी बहुमूल्य योगदान दिया था. शिवराम राजगुरु सांडर्स की हत्या के बाद पुलिस से बचते हुए नागपुर में संघ के एक स्वयंसेवक के घर आकर ठहरे थे. राजगुरु इसी दौरान संघ संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार से भी मिले थे. लेकिन कुछ ही दिनों बाद वे पुणे चले गए जहां उनको गिरफ्तार कर लिया गया और अंततः उन्होंने २३ मार्च १९३१ को अपना सर्वस्व बलिदान करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया.
राष्ट्रयज्ञ की बलिवेदी पर स्वयं को समर्पित करने वाले तीसरे अमर बलिदानी थे सुखदेव थापर. इनका जन्म १५ मई १९०७ को लुधियाना के नौगढ़ा में हुआ था. इनके पिताजी का नाम रामलाल था. सुखदेव के हृदय में किशोरावस्था से ही राष्ट्र प्रेम हिलोरे लेने लगा था. युवावस्था में सुखदेव नौजवान भारत सभा से जुड़े और ब्रिटिश सरकार को सबक सिखाने के प्रयासों में तन-मन से जुट गए. सुखदेव अमर क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल (१८९७-१९२७) से विशेष प्रभावित थे. सुखदेव सन १९२९ में लाहौर जेल में क्रांतिकारियों द्वारा की गयी भूख हड़ताल में भी शामिल रहे थे. सुखदेव थापर ने भी अंततः २३ मार्च १९३१ को अपने अमर साथियों के साथ अमरत्व को प्राप्त किया था. राष्ट्रकवि दिनकर की यह पंक्तियाँ इन अमर शहीदों की याद में बरबस ही याद आ जाती हैं.
चले गए जो बलिवेदी पर, लिए बिना गर्दन का मोल.
कलम आज उनकी जय बोल...........
इन अमर बलिदानियों का अमर बलिदान हमें आज भी प्रेरणा देता है. जिस प्रकार से महाराष्ट्र के राजगुरु  और पंजाब के भगत सिंह और सुखदेव थापर ने एक होकर देश प्रेम की अलख जगाई थी. उसी प्रकार से हम सभी देशवासियों को अपने क्षुद्र स्वार्थों को भूलकर देश की वर्तमान समस्याओं से लड़ने के लिए एक हो जाना चाहिए. तभी हम अमर शहीदों के सपनों के भारत को साकार रूप दे पाएंगे.

Wednesday, March 16, 2011

आरक्षण कि लड़ाई की जरूरत क्या है?


 पिछले कई दिनों से उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जाटों ने आरक्षण की मांग को लेकर अपना आन्दोलन चला रखा है. जाटों ने इससे पहले आरक्षण की मांग को लेकर ही राष्ट्रमंडल खेलों के समय भी दिल्ली का पानी रोकने का प्रयास किया था. लेकिन केंद्र सरकार की अपील के बाद जाट बिरादरी ने चेतावनी के साथ अपने आन्दोलन को वापस ले लिया था. जाट बिरादरी ने उसी समय केंद्र सरकार अपनी मांग को लेकर अल्टीमेटम दिया था. अब प्रश्न यह उठता है, की सरकार ने उनके इस अल्टीमेटम पर समय रहते ही ध्यान देने की जहमत क्यों नहीं उठाई. जिसका खामियाजा अब उठाना पड़ रहा है, हरियाणा और उत्तर प्रदेश का महत्त्वपूर्ण रेल नेटवर्क बाधित है. अर्थव्यवस्था को प्रतिदिन करोड़ों का नुकसान उठाना पड़ रहा है. इसका जिम्मेदार जाटों को माना जाये,  या भारतीय गणतंत्र की व्यवस्था को ? 
                   भारत के संविधान की यदि बात की जाये तो देश के सभी नागरिकों को समान अवसर और समान प्रतिनिधित्व दिए जाने की बात है. लेकिन उसके लिए समाज के अति पिछड़ों को एक बार लोकतंत्र कि मुख्यधारा में लाना आवश्यक है. जिसका ध्यान रखते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जाति और जनजातियों को आरक्षण दिए जाने का प्रावधान दिया था. संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए  आरक्षण का प्रावधान देते हुए, दस वर्ष की समय-सीमा निर्धारित की थी. जिसका अर्थ यह था, की समाज के सभी वर्गों के मुख्यधारा में आ जाने पर आरक्षण कि कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी. लेकिन दस वर्ष बीत जाने पर भी हमारे नीति-निर्माता सभी वर्गों कि समानता का केवल नारा ही लगाते रहे. लेकिन सभी वर्गों को बराबरी पर लाने के प्रयास नहीं किये गए.
जिसके बाद आरक्षण को अगले दस वर्षों के लिए एक बार फिर बनाये रखा गया. लेकिन समानता के नारे ही लगे, राजनीतिक नारों के शोर में सामाजिक सुधर कि बात ही कहीं ग़ुम हो गयी. जिसका परिणाम यह हुआ कि समाज के कई अन्य पिछड़े वर्गों ने भी आरक्षण पाने के लिए अपनी आवाज को बुलंद किया. जिसके परिणाम स्वरुप सन १९८९ में मंडल आयोग का गठन करना पड़ा, जिसने ४,००० पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने कि सिफारिश कि थी. लेकिन उसमें आज आरक्षण कि लड़ाई लड़ रहे जाट शामिल नहीं थे. सन १९९० में मंडल आयोग कि रिपोर्ट को लागू किया गया. जिसके खिलाफ सवर्ण जातियों ने आन्दोलन भी छेड़ा था, जिससे देश में अराजकता का माहौल तैयार हो गया था. जैसे-तैसे समय बीता और देश में शांति व्यवस्था कायम हो गयी. लेकिन एक बार फिर सन २००७ में गुर्जर जाति ने अनुसूचित जाति में शामिल किये जाने कि मांग को लेकर आन्दोलन छेड़ दिया. 
 गुर्जर आन्दोलन कि लपटें बुझी भी नहीं थीं, कि जाट बिरादरी भी आरक्षण कि लड़ाई में शामिल हो गयी. जाट बिरादरी को विभिन्न राज्यों में पिछड़ी जाति के तौर पर आरक्षण मिला हुआ है, लेकिन अब उनकी मांग है कि इन्हें केंद्र में भी आरक्षण दिया जाये. जमीनी स्तर पर यदि देखा जाये तो जाट बिरादरी कि स्थिति ऐसी नहीं है, कि उन्हें आरक्षण के संरक्षण कि जरूरत हो. लेकिन राजनीतिक स्वार्थ और जातिगत दबंगई के परिणामस्वरूप जाट आन्दोलन ने एक बार फिर हमारी व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाने का काम किया है. वास्तव में यदि सरकार और व्यवस्था के खिलाफ किसी बात को लेकर, आन्दोलन करने कि आवश्यकता है तो वह आरक्षण नहीं है. बल्कि हमें सरकार से इस बात का हिसाब लेना चाहिए था कि, आरक्षण कि तय समय-सीमा के दौरान वंचित वर्गों का उत्थान क्यों नहीं किया गया. यदि व्यवस्था के स्तर पर वंचित वर्गों का उत्थान हो जाता, और आरक्षण कि लड़ाई भी वहीँ समाप्त हो जाती. 
 लेकिन आरक्षण कि यह लड़ाई का अब कोई अंत नहीं दिखाई देता है. इसका कारण यह है कि८ आरक्षण अब वंचितों के संरक्षण कि आवश्यकता नहीं, बल्कि राजनीतिक पार्टियों का हथियार बन गया है. इसलिए राजनेताओं से इस मामले के समाधान कि उम्मीद भी नहीं कि जानी चाहिए. भारतीय गणतंत्र के नागरिकों को ही आगे आना होगा, और अपनी सरकारों से यह सवाल पूछना होगा कि आरक्षण प्राप्त जातियों को तय समय में आरक्षण का लाभ क्यों नहीं मिला.
 इसके साथ ही हमें हिंदी को भारत में कामकाज कि मुख्यभाषा बनाये जाने कि लड़ाई लड़नी चाहिए. जिसके बाद ही समाज के सभी वर्गों के सामान प्रतिनिधित्व का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है. क्योंकि हिंदी ही समाज के सभी वर्गों कि आम भाषा है, इस भाषा को यदि कामकाज कि भाषा बना दिया जाये तो, आरक्षण कि लड़ाई लड़ने कि जरूरत ही नहीं रहेगी. समाज में सभी वर्गों कि समानता के लिए आवश्यक है, कि शिक्षा के स्तर पर भेद-भाव न हो. यदि शिक्षा के स्तर पर भेदभाव बरकरार रहेगा तो, संमाज में समता कि बात कि ही नहीं जा सकती है.
 समाज के सभी वर्गों को यदि मुख्यधारा में लाना है तो शिक्षा नीतियों सुधार करना ही होगा. हिंदी को राष्ट्रभाषा ही नहीं कामकाज कि भाषा कि मान्यता भी देनी होगी. यदि हमें व्यवस्था से किसी प्रकार कि लड़ाई लड़नी है, तो हमें इन मुद्दों को लेकर लड़ाई लड़नी होगी. यही लड़ाई समाज के सभी वर्गों के उत्थान कि अर्थात अन्त्योदय कि लड़ाई हो सकती है. इस लड़ाई के तत्काल लड़े जाने कि आवश्यकता है. 

Tuesday, March 15, 2011

चित्तौड़ की होली का ऐतिहासिक महत्व



फाल्गुन आते ही समस्त भारत के लोग होली के विभिन्न रंगों से सराबोर हो जाते हैं. भारत के विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों में विभिन्न तरीकों से होली का पर्व मनाया जाता है. लेकिन वीर भूमि राजस्थान के उदयपुर जिले की झाडौल तहसील में मनाई जाने वाली होली का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है. उदयपुर की झाडौल तहसील स्वाभिमानी झाला राजाओं की जागीर थी. भारतीय स्वाभिमान के प्रतीक महाराणा प्रताप के सेनापति भी झाला ही थे.  
झाला राजाओं की जागीर झाडौल से १५ किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर आज भी एक किला मौजूद है. जिसे महाराणा प्रताप के दादा के दादा महाराजा कुम्भा ने बनवाया था, यह किला आवरगढ़ के किले के नाम से विख्यात है. 
जब मुग़ल शासक अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, तब आवरगढ़ का किला ही चित्तौड़ की सेनाओं के लिए सुरक्षित स्थान था. सन १५७६ में महाराणा प्रताप और अकबर की सेनाओं के मध्य हल्दी घाटी का संग्राम हुआ था. हल्दी घाटी के समर में घायल सैनिकों को आवरगढ़ के इसी किले में उपचार के लिए लाया जाता था. हल्दी घाटी के युद्ध के पश्चात झाडौल जागीर में स्थित पहाड़ी पर जहाँ आवरगढ़ का किला स्थित है, वहीँ पर सन १५७७ में  महाराणा प्रताप ने होली जलाई थी. उसी समय से झाडौल जागीर के लोग होली के अवसर पर इस पहाड़ी पर एकत्र होकर होलिका दहन करते हैं. इसी पहाड़ी पर प्राचीन कमलनाथ महादेव मंदिर भी स्थित है. स्थानीय लोगों की ऐसी मान्यता है  कि यही वह मंदिर है जहाँ रावण महादेव शिव की पूजा किया करता था. कहा जाता है की रावण भगवान शिव के चरणों में सौ कमल चढ़ाया करता था. लेकिन भगवान ब्रह्मा ने रावण की तपस्या को विफल करने के लिए एक कमल चुरा लिया था. महाबली रावण ने एक कमल कम होने की दशा में अपने सिर को ही आशुतोष भगवान् के चरणों में अर्पित कर दिया था. चित्तौड़  में होली के अवसर पर कमलनाथ महादेव मंदिर का पुजारी ही पहाड़ी पर जाकर होलिका दहन करता है. इसके बाद ही समस्त चित्तौड़ और झाडौल क्षेत्र में होलिका दहन किया जाता है. प्रतिवर्ष होली पर महाराणा के अनुयायी चित्तौड़ और झाडौल के स्वाभिमानी लोग इसी पहाड़ी पर एकत्र होकर होलिका दहन करते हैं . झाडौल के लोगों की होली देश के अन्य लोगों को प्रेरणा देती है, कि कैसे हम अपने त्यौहारों को मानते हुए अपने देश के गौरवशाली अतीत को याद रख सकते हैं. झाडौल और चित्तौड़ की वीर भूमि पर आज भी महाराणा प्रताप की यादें यहाँ के लोगों के जेहन में हैं. आज भी वे भारत गौरव महाराणा प्रताप की विरासत को सहेजे हुए हैं. जिसका एक जीवंत उदहारण यहाँ पर विशेष रूप से मनाई जाने वाली होली है.  
  

Thursday, March 10, 2011

महाराणा प्रताप की सेना थारू जनजाति

 भारत में जनजातीय समुदायों की जनसंख्या ८ करोड़ के करीब है. इनमें से एक है महाराणा प्रताप की सेना थारू जनजाति. भारत जनजातीय समुदायों ने मानव जीवन की एक सामानांतर सभ्यता को कायम किया है. जनजातीय समुदायों ने भारतीय परंपरा और सभ्यता को बचाने का सफल प्रयास किया है. इनमें से ही प्रमुख है हिमालय की तलहटी में रहने वाली ''थारू जनजाति''. 
 ''थारू जनजाति'' उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती नेपाल और उत्तराँचल के उधमसिंह नगर जनपद में मुख्य रूप से बसी हुई है. प्रत्येक जनजाति अपनी उत्पत्ति इतिहास के किसी श्रेष्ठ व्यक्ति से मानती है. ''थारू जनजाति'' के लोग स्वयं को भारतीय संस्कृति के स्वाभिमान के प्रतीक महाराणा प्रताप की सेना मानते हैं. थारू जनजातीय समुदाय के लोग पांच शताब्दी पूर्व गंगा की इस तलहटी में आकर बसे थे. जब मुगलों ने राजस्थान के राजपूताना राज्यों पर आक्रमण किया, और भारतीय सभ्यता को नष्ट करने के भरसक प्रयत्न किये. तब महाराणा प्रताप ने ही मुग़लों से लोहा लेने का काम किया था. जब जयपुर के राजा मानसिंह ने मुग़ल राजा अकबर से संधि कर ली. महाराणा प्रताप का छोटा भाई भी, मुग़लों से जा मिला. राजा मानसिंह ने मुग़लों का सेनापति बन राणा पर आक्रमण किया. महाराणा प्रताप और मानसिंह के बीच १५७६ में हल्दीघाटी का ऐतिहासिक संग्राम हुआ. इस संग्राम में महाराणा की समस्त सेना मारी गयी. सेना के मारे जाने के पश्चात् महाराणा को स्थान-स्थान पर भटकना पड़ा. यही वह समय था जब मुग़लों से त्रस्त राजपूताना राज्यों के १२ राजपरिवार हिमालय के तराई क्षेत्र में आकर बस गए. यहीं से थारू जनजाति की व्युत्पत्ति मानी जाती है.
            थारू जनजाति की विशेषता- थारू जनजाति को सन १९६७ में भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया था. थारू जनजाति के अंतर्गत ७ उपसमूह आते हैं राणा(थारू),बुक्सा, गडौरा, गिरनामा, जुगिया दुगौरा, सौसा, एवं पसिया. इन जनजातीय समुदायों के १२ गाँव उधमसिंह नगर जिले में हैं. थारू जनजाति के लोग स्वयं को थार भूमि का मूल निवासी मानते हैं. थारू जनजातीय लोगों ने उधमसिंह नगर जिले में अपने राजाओं के नाम से १२ गांवों को बसाया था. जिनमें से प्रमुख हैं सिसौदिया राजा के नाम से सिसौना गाँव, रतन सिंह के नाम से रतनपुर इसी प्रकार से पूरनपुर, प्रतापपुर, वीरपुर आदि गाँव इन जनजातीय लोगों ने बसाए. 
         थारू जनजाति की भाषा- थारू लोगों की अपनी एक पृथक भाषा है. यह भाषा लगभग हिंदी के ही समान है. इस भाषा पर राजस्थानी भाषा का भी व्यापक प्रभाव देखने को मिलता है. थारू लोगों की इस भाषा की कोई लिपि नहीं है. 
        थारू जनजाति में परिवार व्यवस्था- थारू जनजाति के लोगों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था देखने को मिलती है. थारू जनजाति पुरुष प्रधान जाति है. थारू जनजाति की संयुक्त परिवार व्यवस्था ही इस जनजाति की विशेषता है. थारू जनजाति के प्रत्येक गाँव में एक मुखिया(प्रधान) होता है. थारू जनजाति में समाज के वयोवृद्ध व्यक्ति को ही मुखिया बनाने की परंपरा रही है. गाँव का मुखिया ही झगड़ों का निपटारे और विवाह आदि मामलों का निर्णय लेते हैं. 
       पहनावा और रहन-सहन- थारू जनजाति की स्त्रियों की वेश-भूषा राजपूत रानियों के समान होती है. थारू स्त्रियाँ रानियों के संमान ही गहने पहनती हैं. थारू पुरुषों की भी वेश-भूषा राजपूत राजाओं के समान ही होती है. 
थारू जनजाति में बाल-विवाह की प्रथा रही है. थारू जनजाति में इस कुप्रथा का चलन मुग़ल आतताइयों के अत्याचारों के कारण हुआ था. मुग़ल आतताइयों से कन्याओं की रक्षा की खातिर इस समुदाय में बाल-विवाह की कुप्रथा ने जन्म ले लिया था. थारू समुदाय के लोग अब तक कच्चे मकानों में रहते थे, जो मिटटी की ईंटों, बांस, खरिया, छप्पर आदि से बनाये जाते थे. लेकिन समय बीतने के साथ ही थारू लोगों पर अजनजातीय प्रभाव पड़ना आरंभ हुआ, और थारू लोगों  ने भी आधुनिक शैली से बने पक्के मकानों में रहना आरंभ कर दिया. 
    थारू जनजाति की संयुक्त परिवार व्यवस्था और विधवा विवाह की परंपरा आज के आधुनिक लोगों को भी कुछ सीख देने का काम करती है. थारू जनजातीय समुदाय आज भी भारतीय संस्कृति के स्वाभिमानी प्रतीक-पुरुष महाराणा प्रताप की जयंती को प्रतिवर्ष बड़े ही धूमधाम से मनाता है. थारू लोगों को गर्व है की वे महाराणा प्रताप के सैनिक हैं. सही अर्थों में कहा जाये तो थारू समुदाय ने महाराणा प्रताप की विरासत को बखूबी सहेजने का काम किया है. यह समुदाय आज भी महाराणा प्रताप के आदर्शों से प्रेरणा लेते हुए भारतीय संस्कृति को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है.   
      

Tuesday, March 8, 2011

पर्यावरण संरक्षण के उपायों पर अमल की जरूरत


    पिछले कई वर्षों से पर्यावरण को लेकर वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर बहस चल रही है. पर्यावरण संरक्षण के उपायों और क्रियान्वयन को लेकर, प्रतिवर्ष संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सम्मलेन आयोजित किये जाते हैं. इन सम्मेलनों में भी वैश्विक स्तर पर कोई व्यापक सहमति नहीं बन पाई है. जिससे पर्यावरण संरक्षण को लेकर कोई पहल की जा सके. पर्यावरण संरक्षण, ओज़ोन परत की चिंता अभी तक केवल बहस का ही विषय रहे हैं. इनका हल निकालने की दिशा में कोई प्रगति नहीं हो पाई है. या कहें की इच्छाशक्ति के अभाव के कारण पर्यावरण संरक्षण के उपायों पर अमल नहीं किया जा सका है. शायद हम लोग पर्यावरण को लेकर तभी चेतना में लौटेंगे, जब हमारे पास प्रकृति की प्रलय से बचने का समय ही नहीं रह जायेगा. 
        पर्यावरण संरक्षण को लेकर यदि भारत की बात की जाये तो हमने भी इस मसले को लेकर कोई ख़ास संजीदगी नहीं दिखाई है. भारत में पर्यावरण की स्थिति चिंताजनक है, साथ ही सरकार के लचर रवैये ने इस चिंता को और बढ़ाने का काम किया है. पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने अपने कार्यकाल की शुरुआत में जरूर पर्यावरण संरक्षण के उपायों को लेकर संजीदगी दिखाई थी. लेकिन जयराम रमेश अपने प्रयासों को परवान नहीं चढ़ा सके. औद्योगिक लॉबी की मांगों और सरकार की नीतियों के समक्ष पर्यावरण मंत्री को समझौता करना ही पड़ा. पर्यावरण मंत्रालय ने तो समझौता कर लिया है, लेकिन ध्यान रहे की प्रकृति कभी समझौता नहीं करती है. जयराम रमेश ने सरकारी नीतियों के दबाव में आकर पिछले दिनों कई विवादित प्रोजेक्टों को मंजूरी देने का काम किया है. जो की देश के पर्यावरणीय सेहत को भारी नुक्सान पहुंचा सकते हैं. हालिया समय में कई विवादित प्रोजेक्टों को पर्यावरण मंत्रालय ने मंजूरी दी है, जो आने वाले समय में पर्यावरण की सेहत को बिगाड़ने का काम करेंगे. इनमें से उड़ीसा में लगने वाली पोस्को परियोजना, नवी मुंबई एअरपोर्ट, गिरनार वन विहार में रोप वे, आंध्र का पोलावरम बाँध और उत्तरांचल की स्वर्णरेखा परियोजना. इन परियोजनाओं से पर्यावरण को बड़े पैमाने पर नुकसान होने वाला है. 
   पोस्को परियोजना- पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने उड़ीसा में दक्षिण कोरिया की कंपनी पोस्को को इस्पात कारखाना लगाने की अनुमति दे दी है. यह परियोजना ३,०९६ एकड़ भूमि में लगे जाएगी. इसके विरोध में आदिवासी समुदाय पांच वर्षों से अहिंसक प्रदर्शन कर रहे  थे. लेकिन भारत की व्यवस्था ने शायद अहिंसक प्रदर्शनों की आवाज सुनना ही बंद कर दिया है. यह भारत में इस्पात उत्पादन का सबसे बड़ा कारखाना होगा. इस कारखाने में इस्पात उत्पादन के लिए बड़े पैमाने पर लौह अयस्क का खनन होगा जो पोस्को को रियायती दरों पर दिया जायेगा. जिससे आने वाले समय में भारत को लौह अयस्क की कमी का भी सामना करना पद सकता है. यह भारत की अनमोल प्राकृतिक विरासत की खुली लूट है. यहाँ होने वाले इस्पात उत्पादन को निर्यात किया जायेगा, तथा निर्यात के लिए बंदरगाह बनाने की भी योजना प्रस्तावित है. जिससे समुद्र तट और डेल्टा क्षेत्रों का पर्यावरण तेजी से बदलेगा. पर्यावरण के साथ-साथ मछुवारों की आजीविका पर भी संकट आ जायेगा, जिनकी संख्या २,५०० से भी अधिक है. बंदरगाह बनाये जाने से विभिन्न प्रजाति के समुद्री जीवों का जीवन भी संकटग्रस्त हो जायेगा. इतने लोगों के विस्थापन और आजीविका छिनने के बाद, इस परियोजना से केवल ७,००० लोगों को ही रोजगार मिलने वाला है. पोस्को परियोजना से सम्बंधित इन आंकड़ों के माध्यम से, हम यह जान सकते हैं की यह परियोजना कितनी विनाशकारी सिद्ध हो सकती है. पोस्को ही नहीं कई अन्य परियोजनाएं भी हैं, जिन्हें पर्यावरण मंत्रालय ने लोगों के विरोध के बावजूद मंजूरी दी है. 
    पर्यावरण मंत्रालय द्वारा पोस्को परियोजना को दी गयी मंजूरी ने गलत परंपरा की शुरुआत कर दी है. जिससे आने वाले समय में पर्यावरण संरक्षण के उपायों को ठेस लग सकती है| पोस्को जैसी परियोजनाओं ने अतुल्य भारत की प्राकृतिक सौन्दर्य को बर्बाद करने का काम किया है. यह भारत के अनुपम प्राकृतिक संसाधनों का अनुचित दोहन है. इसे तत्काल रोके जाने की जरूरत है. 

Sunday, March 6, 2011

करूणानिधि का सियासी पैंतरा

   तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करूणानिधि की पार्टी द्रमुक ने ५ मार्च को यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने का ऐलान कर दिया. करूणानिधि ने सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा करते हुए, अपनी पार्टी के छह मंत्रियों द्वारा इस्तीफा दिए जाने का भी ऐलान कर दिया. करूणानिधि के इस सियासी पैंतरे ने यूपीए सरकार की मुसीबतें बढ़ा दी हैं. कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के पास द्रमुक के २१ सांसदों द्वारा समर्थन वापस लिए जाने के बाद जरूरी २७२ सीटों के मुकाबले, २५६ सीटें ही रह जायेंगी. जो सरकार की सेहत के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता है. वर्तमान में यूपीए सरकार को कोई खतरा नहीं है, लेकिन द्रमुक के इस पैंतरे के बाद सरकार की निर्भरता सपा, बसपा और राजद जैसे दलों पर बढ़ जाएगी. कांग्रेस को अगले ही वर्ष राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण राज्य उत्तरप्रदेश में भी चुनावों का सामना करना है. इसलिए कांग्रेस भी नहीं चाहती है की उसकी निर्भरता इन दलों पर बढे. लिहाजा द्रमुक के समर्थन वापस लिए जाने से, सरकार की स्थिरता और विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़ा हो गया है. करूणानिधि ने समर्थन वापस लेने का ऐलान करते हुए, कांग्रेस पर गठबंधन धर्म का पालन न करने का आरोप लगाया है. लेकिन करूणानिधि के समर्थन वापसी के फैसले के पीछे कई अन्य महत्वपूर्ण कारण भी मौजूद हैं. द्रमुक के समर्थन वापसी के फैसले के पीछे राजा के खिलाफ की गयी कार्रवाई ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. द्रमुक को इस बात की शिकायत थी की कांग्रेस ने राजा को ही बलि का बकरा बनाया है. 
                       ध्यान रहे की द्रमुक ने यूपीए सरकार को उस वक़्त भी ब्लैकमेल करने कि कोशिश की थी, जब उसने सरकार से बाहर रहने का फैसला लिया था. द्रमुक कि इस ब्लैकमेलिंग कि वजह से ही कांग्रेस को झुकते हुए राजा को दूरसंचार मंत्रालय सौंपने का फैसला लेना पड़ा था. करूणानिधि ने राजा पर कार्रवाई किये जाने को लेकर कई बार ऐतराज जताया था, लेकिन अंततः उन्हें राजा के खिलाफ कार्रवाई कि मजूरी देनी ही पड़ी थी. 
कांग्रेस पार्टी ने भी करूणानिधि को सबक सिखाने  का मौका पा लिया. जिसके बाद कांग्रेस पार्टी के दबाव में सीबीआई ने करुणा परिवार के स्वामित्व वाले चैनल कलैग्नर टीवी के कार्यालय पर भी छापेमारी की थी. 
कांग्रेस पार्टी ने यह सभी कदम द्रमुक को दबाव में लाने के लिए और तमिलनाडु में चुनावों में अधिकतम सीटें हथियाने के लिए उठाये थे. लेकिन कांग्रेस कि रणनीति का जवाब देते हुए राजनीति के माहिर खिलाड़ी करूणानिधि ने समर्थन वापसी का नया दांव चला है. करूणानिधि के इस सियासी पैंतरे ने कांग्रेस को निश्चित ही दबाव में ला दिया है. अब तक विपक्ष के हमलों से परेशान कांग्रेस के लिए यह एक नयी सियासी मुसीबत है. जिससे पार पाना कांग्रेस रणनीतिकारों के लिए आसान नहीं होगा. तमिलनाडु  में अपने जनाधार को बढ़ाने कि आस लगाये बैठी कांग्रेस के लिए अब चुनावों कि राह आसान नहीं रहने वाली है. कांग्रेस पार्टी को तमिलनाडु   ही नहीं अन्य राज्यों में भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. अब देखना यह है कि कांग्रेस पार्टी के रणनीतिकार करुणा के इस सियासी दांव से निपटने का क्या समाधान निकाल पाते हैं?
   

Thursday, March 3, 2011

अराजकता के चरम पर पाकिस्तान

  
हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में अराजकता और आतंकवाद अपने चरम पर है. पाकिस्तान के हाथ उसी आग में जलने लगे हैं जो उसने भारत के लिए लगाई थी. पाकिस्तान की सेना और तानाशाहों के प्रश्रय पर पलने वाले आतंकी संगठन अब पाक सरकार के लिए खतरा बनकर उभरे हैं. २ मार्च को पाकिस्तान के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शहबाज भट्टी की तालिबानी आतंकियों ने गोली मारकर हत्या कर दी. इससे दो महीने पहले ही आतंकियों ने पंजाब प्रान्त के गवर्नर सलमान तासीर की भी जघन्य हत्या कर दी थी. ये पाकिस्तान में चरम पंथियों के बढ़ते प्रभाव का उदहारण हैं. पाकिस्तान में बढती आतंकी और चरमपंथी घटनाओं से सबसे ज्यादा अल्पसंख्यक वर्ग प्रभावित हुआ है. पाकिस्तान में रह रहे अल्पसंख्यकों में इस कदर भय व्याप्त है की, सिंध प्रान्त की विधानसभा के एक सदस्य को भारत में शरण लेनी पड़ी है. पाकिस्तान में आतंक की स्थिति यह है की ३ वर्ष पूर्व देश की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की भी रैली के दौरान हत्या कर दी गयी थी. जिसके बाद शहबाज भट्टी पीपीपी के तीसरे नेता हैं, जिन्हें आतंकी हमले में अपनी जान गंवानी पड़ी है. हालिया समय में पाकिस्तान में बढती चरमपंथी घटनाओं का प्रमुख कारण पाक में लागू ईशनिंदा कानून है. जिसके कारण वहां अल्पसंख्यकों को झूठे मामलों में फंसाकर प्रताड़ित किया जा रहा है. पाकिस्तान में अराजकता इस स्थिति में पहुँच चुकी है की, प्रतिदिन एक हिन्दू पाक से पलायन करने के बारे में सोच रहा है. पाक में इससे पहले चर्चों पर भी सुनियोजित हमले किये गए थे. और अल्पसंख्यक सिखों से भी तालिबानी संगठनों ने जजिया कर की मांग की थी. पाकिस्तान में बढ़ते चरमपंथी प्रभाव का आकलन करने के लिए यह कुछ उदाहरण ही पर्याप्त हैं. पाकिस्तान के लिए उसके द्वारा ही तैयार किया गया तालिबान भस्मासुर के समान हो गया है. जो पाकिस्तान के विकास और शांति के लिए खतरा बन गया है. इसके लिए कोई और नहीं बल्कि पाक की सरकारें ही जिम्मेदार रही हैं जिन्होनें इन संगठनों को भारत के विरुद्ध इस्तेमाल करने की योजना बनायीं थी. लेकिन अब ये संगठन उनके लिए ही खतरा बनकर उभरे हैं.
 पाकिस्तान के इतिहास का यदि अवलोकन किया जाये तो, पाक अपने जन्म से ही इस्लामी राष्ट्र रहा है. पाकिस्तान की इसी विशेषता ने पाक में धर्मनिरपेक्ष माहौल को विकसित होने ही नहीं दिया. जिसके कारण वहां कट्टरता ने जन्म लेना प्रारंभ किया, जिसे समय-समय पर आई विभिन्न सरकारों ने प्रश्रय दिया.  पाक सरकारों द्वारा मिले संरक्षण के फलस्वरूप ये आतंकी संगठन इतने ताकतवर बनकर उभरे की इन्होनें सत्ता को नियंत्रित करना प्रारंभ कर दिया. पाक सरकारों ने इन आतंकी संगठनों ने जब तक इन पर लगाम लगाने की सोची तब तक देर हो चुकी थी. बल्कि अब ये संगठन सत्ता पर ही कब्ज़ा ज़माने की फ़िराक में हैं. जिसका विरोध करने पर पाक नेताओं को या उदार चेहरों को मौत का सामना करना पड़ रहा है. पाकिस्तान की घटनाएँ यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं की कट्टरता किसी भी समुदाय या राष्ट्र के लिए सही नहीं है. लेकिन धर्मनिरपेक्षता में सभी के लिए सहअस्तित्व की भावना रहती है. जो किसी भी लोकतंत्र के लिए आदर्श स्थिति है. जिसका विकल्प कट्टरता कभी नहीं हो सकता है, भारत इसका एक सशक्त उदाहरण है. 

Wednesday, March 2, 2011

गोधरा कांड पर अदालत का तथ्यपरक निर्णय


गत १ मार्च को अहमदाबाद की विशेष सत्र अदालत ने गोधरा कांड के मामले में अपना फैसला सुनाया है. जिसमें अदालत ने ११ दोषियों को फंसी की और २० दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई है. अदालत के फैसलों पर सवाल उठाना पिछले कई मामलों के दौरान एक परंपरा बन गया है. जिसकी शुरुआत रामजन्म भूमि मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट कि लखनऊ पीठ द्वारा सुनाये गए निर्णय के बाद से हुई.  इस परंपरा का निर्वाह छद्मपंथनिरपेक्ष  लोगों ने गोधरा कांड के फैसले पर भी किया है. इन लोगों का कहना है कि इस मामले में और गहन जांच कि आवश्यकता है. अदालत के फैसले पर सवाल उठाने वाले यह वही लोग हैं, जो पूर्व में अदालत के फैसले का सम्मान करने कि बातें कर रहे थे. देश के इसी वर्ग ने ही छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट द्वारा विनायक सेन को सुनाई गयी सजा पर भी सवाल उठाया था. अब एक बार फिर इन लोगों ने लोकतंत्र कि सजग प्रहरी न्यायपालिका के फैसले पर सवाल उठाया है. इनकी दलील यह भी है कि जब अदालत ने ३१ लोगों को दोषी ठहराया है, तो फिर ६४ अन्य लोगों को किस आधार पर बरी कर दिया गया. मैं इन लोगों को इस तथ्य के बारे में बताना चाहूँगा कि अदालत ने इन ६४ लोगों को निर्दोष नहीं कहा है, बल्कि पर्याप्त सबूत न पाए जाने पर बरी किया है. विशेष अदालत के इस फैसले से इस तथ्य को भी प्रमाणिक आधार मिला है कि गोधरा कांड दुर्घटना नहीं, बल्कि एक पूर्वनियोजित  साजिश का परिणाम था. जिस साजिश के दोषी अदालत द्वारा दोषी करार दिए गए लोग थे. ऐसे में अदालत के निर्णय पर सवाल उठाना लोकतंत्र पर और भारत कि न्यायिक प्रणाली पर सवाल उठाने के समान है. एक ऐसे लोकतान्त्रिक देश में जहाँ कसाब और अफजल गुरु जैसे आतंकियों को भी अपना पक्ष रखने का पूरा मौका दिया जाता है. वहां अदालत के निर्णय पर सवाल उठाना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. जो लोग अदालत से सजा पाए दोषियों कि सजा के खिलाफ लामबंद होने का प्रयास कर रहे हैं. उनकी सहानुभूति जिन्दा जला दिए गए ५९ कारसेवकों के प्रति क्यों नहीं है. उनके आश्रितों कि समस्याओं को उठाने के लिए इन लोगों में से कोई भी आगे क्यों नहीं आया था. 
                   अदालत के फैसलों पर सवाल उठाने कि यह परिपाटी एक ऐसी संस्कृति का निर्माण कर रही है. जिसमें अदालत कि गरिमा दांव पर लग गयी है. यदि अदालती फैसलों पर सवाल उठाने का सिलसिला इसी तरह चलता रहा, तो भारत कि न्यायप्रणाली के समक्ष खतरा उत्पन्न हो जायेगा. स्वतंत्र भारत में आम नागरिकों के अधिकारों कि रक्षा करने में अदालती फैसलों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कि है. ऐसे में छद्मपंथनिरपेक्ष लोगों के अदालती फैसलों पर सवाल उठाने के कुत्सित प्रयासों से लोकतंत्र के इस महत्त्वपूर्ण स्तम्भ कि निरपेक्ष भूमिका भी सवालों के घेरे में आने लगी है. जो कि लोकतंत्र कि सेहत के लिए उचित नहीं है. इसलिए अब जरूरी हो गया है कि ऐसे लोगों के खिलाफ अदालत कि अवमानना करने का मामला दर्ज किया जाये, और आवश्यक कार्रवाई कि जाये जिससे आगे अदालतों कि गरिमा पर सवाल उठाने का कोई दुस्साहस न कर सके.