Wednesday, March 2, 2011

गोधरा कांड पर अदालत का तथ्यपरक निर्णय


गत १ मार्च को अहमदाबाद की विशेष सत्र अदालत ने गोधरा कांड के मामले में अपना फैसला सुनाया है. जिसमें अदालत ने ११ दोषियों को फंसी की और २० दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई है. अदालत के फैसलों पर सवाल उठाना पिछले कई मामलों के दौरान एक परंपरा बन गया है. जिसकी शुरुआत रामजन्म भूमि मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट कि लखनऊ पीठ द्वारा सुनाये गए निर्णय के बाद से हुई.  इस परंपरा का निर्वाह छद्मपंथनिरपेक्ष  लोगों ने गोधरा कांड के फैसले पर भी किया है. इन लोगों का कहना है कि इस मामले में और गहन जांच कि आवश्यकता है. अदालत के फैसले पर सवाल उठाने वाले यह वही लोग हैं, जो पूर्व में अदालत के फैसले का सम्मान करने कि बातें कर रहे थे. देश के इसी वर्ग ने ही छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट द्वारा विनायक सेन को सुनाई गयी सजा पर भी सवाल उठाया था. अब एक बार फिर इन लोगों ने लोकतंत्र कि सजग प्रहरी न्यायपालिका के फैसले पर सवाल उठाया है. इनकी दलील यह भी है कि जब अदालत ने ३१ लोगों को दोषी ठहराया है, तो फिर ६४ अन्य लोगों को किस आधार पर बरी कर दिया गया. मैं इन लोगों को इस तथ्य के बारे में बताना चाहूँगा कि अदालत ने इन ६४ लोगों को निर्दोष नहीं कहा है, बल्कि पर्याप्त सबूत न पाए जाने पर बरी किया है. विशेष अदालत के इस फैसले से इस तथ्य को भी प्रमाणिक आधार मिला है कि गोधरा कांड दुर्घटना नहीं, बल्कि एक पूर्वनियोजित  साजिश का परिणाम था. जिस साजिश के दोषी अदालत द्वारा दोषी करार दिए गए लोग थे. ऐसे में अदालत के निर्णय पर सवाल उठाना लोकतंत्र पर और भारत कि न्यायिक प्रणाली पर सवाल उठाने के समान है. एक ऐसे लोकतान्त्रिक देश में जहाँ कसाब और अफजल गुरु जैसे आतंकियों को भी अपना पक्ष रखने का पूरा मौका दिया जाता है. वहां अदालत के निर्णय पर सवाल उठाना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. जो लोग अदालत से सजा पाए दोषियों कि सजा के खिलाफ लामबंद होने का प्रयास कर रहे हैं. उनकी सहानुभूति जिन्दा जला दिए गए ५९ कारसेवकों के प्रति क्यों नहीं है. उनके आश्रितों कि समस्याओं को उठाने के लिए इन लोगों में से कोई भी आगे क्यों नहीं आया था. 
                   अदालत के फैसलों पर सवाल उठाने कि यह परिपाटी एक ऐसी संस्कृति का निर्माण कर रही है. जिसमें अदालत कि गरिमा दांव पर लग गयी है. यदि अदालती फैसलों पर सवाल उठाने का सिलसिला इसी तरह चलता रहा, तो भारत कि न्यायप्रणाली के समक्ष खतरा उत्पन्न हो जायेगा. स्वतंत्र भारत में आम नागरिकों के अधिकारों कि रक्षा करने में अदालती फैसलों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कि है. ऐसे में छद्मपंथनिरपेक्ष लोगों के अदालती फैसलों पर सवाल उठाने के कुत्सित प्रयासों से लोकतंत्र के इस महत्त्वपूर्ण स्तम्भ कि निरपेक्ष भूमिका भी सवालों के घेरे में आने लगी है. जो कि लोकतंत्र कि सेहत के लिए उचित नहीं है. इसलिए अब जरूरी हो गया है कि ऐसे लोगों के खिलाफ अदालत कि अवमानना करने का मामला दर्ज किया जाये, और आवश्यक कार्रवाई कि जाये जिससे आगे अदालतों कि गरिमा पर सवाल उठाने का कोई दुस्साहस न कर सके.   

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