Wednesday, March 16, 2011

आरक्षण कि लड़ाई की जरूरत क्या है?


 पिछले कई दिनों से उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जाटों ने आरक्षण की मांग को लेकर अपना आन्दोलन चला रखा है. जाटों ने इससे पहले आरक्षण की मांग को लेकर ही राष्ट्रमंडल खेलों के समय भी दिल्ली का पानी रोकने का प्रयास किया था. लेकिन केंद्र सरकार की अपील के बाद जाट बिरादरी ने चेतावनी के साथ अपने आन्दोलन को वापस ले लिया था. जाट बिरादरी ने उसी समय केंद्र सरकार अपनी मांग को लेकर अल्टीमेटम दिया था. अब प्रश्न यह उठता है, की सरकार ने उनके इस अल्टीमेटम पर समय रहते ही ध्यान देने की जहमत क्यों नहीं उठाई. जिसका खामियाजा अब उठाना पड़ रहा है, हरियाणा और उत्तर प्रदेश का महत्त्वपूर्ण रेल नेटवर्क बाधित है. अर्थव्यवस्था को प्रतिदिन करोड़ों का नुकसान उठाना पड़ रहा है. इसका जिम्मेदार जाटों को माना जाये,  या भारतीय गणतंत्र की व्यवस्था को ? 
                   भारत के संविधान की यदि बात की जाये तो देश के सभी नागरिकों को समान अवसर और समान प्रतिनिधित्व दिए जाने की बात है. लेकिन उसके लिए समाज के अति पिछड़ों को एक बार लोकतंत्र कि मुख्यधारा में लाना आवश्यक है. जिसका ध्यान रखते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जाति और जनजातियों को आरक्षण दिए जाने का प्रावधान दिया था. संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए  आरक्षण का प्रावधान देते हुए, दस वर्ष की समय-सीमा निर्धारित की थी. जिसका अर्थ यह था, की समाज के सभी वर्गों के मुख्यधारा में आ जाने पर आरक्षण कि कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी. लेकिन दस वर्ष बीत जाने पर भी हमारे नीति-निर्माता सभी वर्गों कि समानता का केवल नारा ही लगाते रहे. लेकिन सभी वर्गों को बराबरी पर लाने के प्रयास नहीं किये गए.
जिसके बाद आरक्षण को अगले दस वर्षों के लिए एक बार फिर बनाये रखा गया. लेकिन समानता के नारे ही लगे, राजनीतिक नारों के शोर में सामाजिक सुधर कि बात ही कहीं ग़ुम हो गयी. जिसका परिणाम यह हुआ कि समाज के कई अन्य पिछड़े वर्गों ने भी आरक्षण पाने के लिए अपनी आवाज को बुलंद किया. जिसके परिणाम स्वरुप सन १९८९ में मंडल आयोग का गठन करना पड़ा, जिसने ४,००० पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने कि सिफारिश कि थी. लेकिन उसमें आज आरक्षण कि लड़ाई लड़ रहे जाट शामिल नहीं थे. सन १९९० में मंडल आयोग कि रिपोर्ट को लागू किया गया. जिसके खिलाफ सवर्ण जातियों ने आन्दोलन भी छेड़ा था, जिससे देश में अराजकता का माहौल तैयार हो गया था. जैसे-तैसे समय बीता और देश में शांति व्यवस्था कायम हो गयी. लेकिन एक बार फिर सन २००७ में गुर्जर जाति ने अनुसूचित जाति में शामिल किये जाने कि मांग को लेकर आन्दोलन छेड़ दिया. 
 गुर्जर आन्दोलन कि लपटें बुझी भी नहीं थीं, कि जाट बिरादरी भी आरक्षण कि लड़ाई में शामिल हो गयी. जाट बिरादरी को विभिन्न राज्यों में पिछड़ी जाति के तौर पर आरक्षण मिला हुआ है, लेकिन अब उनकी मांग है कि इन्हें केंद्र में भी आरक्षण दिया जाये. जमीनी स्तर पर यदि देखा जाये तो जाट बिरादरी कि स्थिति ऐसी नहीं है, कि उन्हें आरक्षण के संरक्षण कि जरूरत हो. लेकिन राजनीतिक स्वार्थ और जातिगत दबंगई के परिणामस्वरूप जाट आन्दोलन ने एक बार फिर हमारी व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाने का काम किया है. वास्तव में यदि सरकार और व्यवस्था के खिलाफ किसी बात को लेकर, आन्दोलन करने कि आवश्यकता है तो वह आरक्षण नहीं है. बल्कि हमें सरकार से इस बात का हिसाब लेना चाहिए था कि, आरक्षण कि तय समय-सीमा के दौरान वंचित वर्गों का उत्थान क्यों नहीं किया गया. यदि व्यवस्था के स्तर पर वंचित वर्गों का उत्थान हो जाता, और आरक्षण कि लड़ाई भी वहीँ समाप्त हो जाती. 
 लेकिन आरक्षण कि यह लड़ाई का अब कोई अंत नहीं दिखाई देता है. इसका कारण यह है कि८ आरक्षण अब वंचितों के संरक्षण कि आवश्यकता नहीं, बल्कि राजनीतिक पार्टियों का हथियार बन गया है. इसलिए राजनेताओं से इस मामले के समाधान कि उम्मीद भी नहीं कि जानी चाहिए. भारतीय गणतंत्र के नागरिकों को ही आगे आना होगा, और अपनी सरकारों से यह सवाल पूछना होगा कि आरक्षण प्राप्त जातियों को तय समय में आरक्षण का लाभ क्यों नहीं मिला.
 इसके साथ ही हमें हिंदी को भारत में कामकाज कि मुख्यभाषा बनाये जाने कि लड़ाई लड़नी चाहिए. जिसके बाद ही समाज के सभी वर्गों के सामान प्रतिनिधित्व का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है. क्योंकि हिंदी ही समाज के सभी वर्गों कि आम भाषा है, इस भाषा को यदि कामकाज कि भाषा बना दिया जाये तो, आरक्षण कि लड़ाई लड़ने कि जरूरत ही नहीं रहेगी. समाज में सभी वर्गों कि समानता के लिए आवश्यक है, कि शिक्षा के स्तर पर भेद-भाव न हो. यदि शिक्षा के स्तर पर भेदभाव बरकरार रहेगा तो, संमाज में समता कि बात कि ही नहीं जा सकती है.
 समाज के सभी वर्गों को यदि मुख्यधारा में लाना है तो शिक्षा नीतियों सुधार करना ही होगा. हिंदी को राष्ट्रभाषा ही नहीं कामकाज कि भाषा कि मान्यता भी देनी होगी. यदि हमें व्यवस्था से किसी प्रकार कि लड़ाई लड़नी है, तो हमें इन मुद्दों को लेकर लड़ाई लड़नी होगी. यही लड़ाई समाज के सभी वर्गों के उत्थान कि अर्थात अन्त्योदय कि लड़ाई हो सकती है. इस लड़ाई के तत्काल लड़े जाने कि आवश्यकता है. 

1 comment:

  1. बहुत ही उम्दा सुझाव है आपका की हमें आरक्षण को छोड़ कर आम भाषा की लडाई लड़नी चाहिए !

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