Monday, July 25, 2011

क्रान्तिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी



गणेश शंकर विद्यार्थी! यह एक नाम ही नहीं बल्कि अपने आप में एक आदर्श विचार है। वह एक पत्रकार होने के साथ-साथ एक महान क्रांतिकारी और समाज सेवी भी थे। पत्रकारिता के नैतिक कर्तव्य को निभाते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। उनका समस्त जीवन पत्रकारिता जगत के लिए अनुकरणीय आदर्श है। विद्यार्थी जी का जन्म आश्विन शुक्ल 14, रविवार सं। 1947 (1890 ई.) को अपनी ननिहाल, इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले में हुआ था। उनकी माता का नाम गोमती देवी तथा पिता का नाम मुंशी जयनारायण था।

गणेश शंकर विद्यार्थी
मूलतः फतेहपुर(उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। उनके पिता ग्वालियर रियासत में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल के हेडमास्टर थे। गणेश शंकर विद्यार्थी का बाल्यकाल भी ग्वालियर में ही बीता तथा वहीँ उनकी शिक्षादीक्षा हुई। विद्यारंभ उर्दू से हुआ और 1905 ई. में भेलसा से अँगरेजी मिडिल परीक्षा पास की। 1907 ई. में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में कानपुर से एंट्रेंस परीक्षा पास करके आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला कालेज में भर्ती हुए। उसी समय से पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और इलाहाबाद के हिंदी साप्ताहिक कर्मयोगी के संपादन में सहयोग देने लगे।

सन १९०८ में गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर के करेंसी ऑफिस में ३० रुपये मासिक पर नौकरी की। लेकिन एक अंग्रेज अधिकारी से झगडा होने के पश्चात् विद्यार्थी जी ने इस नौकरी को त्याग दिया। नौकरी छोड़ने के पश्चात् सन १९१० तक विद्यार्थी जी ने अध्यापन कार्य किया, यही वह समय था जब विद्यार्थी जी ने सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य, हितवार्ता आदि पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखना प्रारंभ किया।

सन १९११ में गणेश शंकर विद्यार्थी को सरस्वती पत्रिका में महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कुछ समय बाद "सरस्वती" छोड़कर "अभ्युदय" में सहायक संपादक हुए जहाँ विद्यार्थी जी ने सितम्बर, सन १९१३ तक अपनी कलम से राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाने का कार्य किया। दो ही महीने बाद 9 नवंबर, 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक प्रताप के नाम से निकाला।

गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप के प्रथम अंक में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, राष्ट्रीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए ही उनकी पत्रकारिता समर्पित है। ''प्रताप'' पत्र में अंग्रजों की दमनपूर्ण नीति की मुखर आलोचना के कारण सरकार ने प्रताप का प्रकाशन बंद करवाकर गणेश शंकर विद्यार्थी पर राजद्रोह का मुकदमा लगाकर जेल भेज दिया। अंग्रेजों की इस दमनपूर्ण कार्रवाई के बाद भी गणेश शंकर विद्यार्थी की राष्ट्रवादी कलम की प्रखरता कम न हो सकी।

जेल से छूटने के बाद आर्थिक संकट से जूझते विद्यार्थी जी ने किसी तरह व्यवस्था जुटाई तो 8 जुलाई 1918 को फिर प्रताप की शुरूआत हो गई। प्रताप के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता प्रताप को मुक्त हस्त से आर्थिक सहयोग करने लगी। इस का परिणाम यह हुआ कि विद्यार्थी जी ने २३ नवम्बर १९१९ से साप्ताहिक प्रताप का प्रकाशन दैनिक समाचार पत्र के रूप में प्रारंभ कर दिया।

विद्यार्थी जी के दैनिक पत्र ''प्रताप'' का प्रताप ऐसा था कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध व्यापक स्तर पर जन-जागरण हुआ। कहा जाता है कि स्वाधीनता आन्दोलन की अग्नि को प्रखर करने वाले समाचार पत्रों में प्रताप का प्रमुख स्थान था। लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से प्रताप की पहचान सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन मजिस्टेट मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देकर जमानत की राशि जब्त कर ली।

अंग्रेजों का कोपभाजन बने विद्यार्थी जी को 23 जुलाई 1921, 16 अक्टूबर 1921 में भी जेल की सजा दी गई परन्तु उन्होंने सरकार के विरुद्ध कलम की धार को कम नहीं किया। विद्यार्थी जी की कलम ने स्वाधीनता आन्दोलन कि क्रांति को ही प्रखर नहीं किया, बल्कि पूँजीवाद और सामन्तवाद की जनविरोधी नीतियों का भी अपनी पत्रकारिता के माध्यम से विरोध किया।

विद्यार्थी जी वह पत्रकार थे जिन्होनें अपने प्रताप की प्रेस से काकोरी कांड के नायक रामप्रसाद बिस्मिल की जीवनी का प्रकाशन किया। गणेश शंकर विद्यार्थी का ''प्रताप'' ही वह पत्र था, जिसमें भगत सिंह ने अपने फरारी के दिनों में छद्म नाम से पत्रकारिता की थी। विद्यार्थी जी का सम्पूर्ण पत्रकार जीवन ही राष्ट्रवाद, भारतीय संस्कृति, साम्प्रदायिक सद्भाव को समर्पित रहा।

पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी साम्प्रदायिकता के भी स्पष्ट विरोधी थे। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी सुनाये जाने पर देश भर में भड़के साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में विद्यार्थी जी ने अपना जीवन भी दांव पर लगा दिया। इन्हीं दंगों के दौरान गणेश शंकर विद्यार्थी निस्सहायों को बचाते हुए शहीद हो गए।

गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या के पश्चात महात्मा गाँधी ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में उनको श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि ''मुझे यह यह जानकर अत्यंत शोक हुआ कि गणेश शंकर विद्यार्थी अब हमारे बीच नहीं हैं। उनके जैसे राष्ट्रभक्त और स्वार्थहीन व्यक्ति की मृत्यु पर किस संवेदनशील व्यक्ति को कष्ट नहीं होगा''।

पं जवाहरलाल नेहरु ने दुःख व्यक्त करते हुए कहा ''यह जानकर अत्यंत दुःख हुआ कि हमारे प्रिय मित्र और राष्ट्रभक्त गणेश शंकर विद्यार्थी की साम्प्रदायिक दंगे में हत्या कर दी गयी है। नेहरु ने कहा गणेश शंकर कि शहादत एक राष्ट्रवादी भारतीय की शहादत है, जिसने दंगों में निर्दोष लोगों को बचाते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया"। कलम का यह सिपाही असमय ही चला गया। लेकिन उनकी प्रेरणाएं पत्रकारिता जगत और समस्त देश को सदैव प्रेरित करती रहेंगी। पत्रकारिता जगत के इस अमर पुरोधा को सादर नमन.....

सत्ता नहीं ,पाठक करें मीडिया की समीक्षा : महात्मा गांधी



पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी को ऐसा लगता है जैसे पत्रकारिता जगत वर्तमान समय में संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है पत्रकारिता के बारे में उस समय भी कुछ बातों पर पत्रकार चिंतित थे जिस समय को भारतीय पत्रकारिता का उत्कृष्ट समय कहा जाता है। भारतीय पत्रकारिता का आरंभिक दौर राष्ट्रवाद के जनजागरण को समर्पित था। यह समय भारत के स्वाधीनता आन्दोलन का समय था। भारत की स्वाधीनता को प्राप्त करने की दिशा में तत्कालीन पत्रकारिता और पत्रकारों की महती भूमिका रही थी। उस समय में पत्रकारों का एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ जिनके लिए राष्ट्र की स्वाधीनता ही परम ध्येय था। लेकिन उस समय में भी पत्रकारिता में विज्ञापन, पत्रकार का कर्तव्य और पत्रकारिता पर सरकारी नियंत्रण आदि ऐसी समस्याएँ थीं। जिनके बारे में महात्मा गाँधी जैसे अग्रणी नेता और पत्रकार ने भी बहुत कुछ लिखा था। महात्मा गाँधी ने तत्कालीन समाचार पत्रों में विज्ञापन के बढ़ते दुष्प्रभाव पर लिखा था-

"मैं समझता हूँ कि समाचारपत्रों में विज्ञापन का प्रकाशन बंद कर देना चाहिए। मेरा विश्वास है कि विज्ञापन उपयोगी अवश्य है लेकिन विज्ञापन के माध्यम से कोई उद्देश्य सफल नहीं हो सकता है। विज्ञापनों का प्रकाशन करवाने वाले वे लोग हैं जिन्हें अमीर बनने की तीव्र इच्छा है। विज्ञापन की दौड़ में हर तरह के विज्ञापन प्रकाशित होने लगे हैं, जिनसे आय भी प्राप्त होती है। आधुनिक नागरिकता का यह सबसे नकारात्मक पहलू है जिससे हमें छुटकारा पाना ही होगा। हमें गैर आर्थिक विज्ञापनों को प्रकाशित करना होगा जिससे सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हो सके। लेकिन इन विज्ञापनों को भी कुछ राशि लेकर प्रकाशित करना चाहिए। इसके अलावा अन्य विज्ञापनों का प्रकाशन तत्काल बंद कर देना चाहिए"।
(इंडियन ओपिनियन, ४ सितम्बर, १९१२)

महात्मा गाँधी ने पत्रकारिता के सिद्धांत और पत्रकार के कर्तव्यों के बारे में भी लिखा था। महात्मा गाँधी ने पत्रकारिता और पत्रकार के कर्तव्यों के बारे में सविस्तार उल्लेख करते हुए लिखा था कि -
"मैं महसूस करता हूँ कि पत्रकारिता का केवल एक ही ध्येय होता है और वह है सेवा। समाचार पत्र की पत्रकारिता बहुत क्षमतावान है, लेकिन यह उस पानी के समान है जो बाँध के टूटने पर समस्त देश को अपनी चपेट में ले लेता है और समस्त फसल को नष्ट कर देता है"। (सत्य के साथ प्रयोग अथवा आत्मकथा)

समाचारपत्र लोकतंत्र के स्थायीकरण में किस प्रकार से सहायक हो सकते हैं इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा -
वास्तव में आदर्श लोकतंत्र की आवश्यकता क्या है ? तथ्यों की जानकारी या सही शिक्षा ? निश्चित तौर पर सही शिक्षा। पत्रकारिता का कार्य लोगों को शिक्षित करना है न कि आवश्यक-अनावश्यक तथ्यों अवं समाचारों से उनके विवेक को सीमित कर देना। एक पत्रकार को हमेशा इस बारे में स्वतंत्र रहना चाहिए कि उसे कब और कौन सी रिपोर्ट करनी है। इसी प्रकार से एक पत्रकार को केवल तथ्य जुटाने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। बल्कि आगे होने वाली घटनाओं का पूर्वानुमान होना भी पत्रकार के लिए आवश्यक है।
(महात्मा गाँधी- तेंदुलकर: महात्मा १९५३,पेज २४७)

महात्मा गाँधी ने समाचार में प्रकाशित समस्त जानकारियों को पूर्णतः सच मानने से भी इनकार किया है। वे समाचार पत्रों के माध्यम से राय बनाने के भी सख्त विरोधी थे। उन्होंने कहा "समाचारपत्रों को केवल तथ्यों की जानकारी के लिए पढ़ा जाना चाहिए। लेकिन समाचारपत्रों को यह आज्ञा नहीं दी जा सकती है कि वे स्वतंत्र चिंतन को समाप्त कर दें"।

उन्होंने समाचारपत्रों को पूर्णतः विश्वसनीय न मानते हुए कहा- "पश्चिमी देशों की तरह पूरब में भी समाचार पत्र को गीता,बाईबल और कुरान की तरह से माना जा रहा है। ऐसा माना जा रहा जैसे समाचार पत्रों में ईश्वरीय सत्य ही लिखा हो। मैं समाचारपत्र के माध्यम से राय बनाने का विरोधी हूँ। समाचारपत्रों को केवल तथ्यों की जानकारी के लिए ही पढ़ा जाना चाहिए। लेकिन समाचारपत्रों को यह आज्ञा नहीं दी जा सकती है कि वे स्वतंत्र चिंतन को समाप्त कर दें। मैं पत्रकार मित्रों से केवल यही कहूँगा कि वे समाचारपत्रों में केवल सत्य ही प्रकाशित करें कुछ और नहीं"।

जनसंचार माध्यमों की स्वायत्ता और सरकारी नियंत्रण एक ऐसा मुद्दा है जो हमेशा ही जीवंत रहा है। यह उस समय में भी था, जब भारत में पत्रकारिता अपने शैशव काल में थी। महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश लोगों पर समाचारपत्रों के व्यापक प्रभाव का अध्धयन किया। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि ब्रिटिश सरकार किस प्रकार से समाचार पत्रों को अपने पक्ष में माहौल तैयार करने के लिए अपने प्रभाव में लेती थी। ब्रिटिश लोगों को ध्यान में रखते हुए महात्मा गाँधी ने भारतीय पत्रकारिता जगत को चेताया कि-

"ब्रिटिश जनता के लिए उनका समाचार पत्र ही उनका बाईबल होता है। वे अपनी धारणा समाचारपत्रों के माध्यम से ही बनाते हैं। एक ही तथ्य को विभिन्न समाचार पत्रों में विभिन्न तरीकों से दिया जाता है। समाचार पत्र उस पार्टी के मुताबिक लिखते हैं जिस पार्टी का वे समर्थन करते हैं। हमें ब्रिटिश पाठकों को आदर्श मानते हुए यह देखना चाहिए कि समाचारपत्रों के अनुसार ही इनकी विचारधारा में किस प्रकार से बदलाव आता है। ऐसे लोगों के विचारों में बहुत जल्दी-जल्दी परिवर्तन होते रहते हैं। ब्रिटेन में कहा जाता है कि प्रत्येक सात वर्ष के पश्चात पाठकों की राय में परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार से लोग उनके शिकंजे में आ जाते हैं जो एक अच्छे वक्ता अथवा नेतृत्वकर्ता होते हैं। इसको संसद भी कह सकते हैं। यह लोग अपनी सत्ता को जाते हुए नहीं देख सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति उनके और सत्ता के बीच में आता है तो वे उसकी आँख भी निकाल सकते हैं। "

महात्मा गाँधी ने लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पत्रकारिता को व्यापक अधिकार देने की भी पैरोकारी की। महात्मा गाँधी ने कहा-"प्रेस की आजादी ऐसा बहुमूल्य विशेषाधिकार है जिसे कोई भी राष्ट्र भूल नहीं सकता है।"

महात्मा गाँधी ने कहा कि "ऐसी परिस्थिति में जब संपादक ने समाचार पत्र में कुछ ऐसी सामग्री प्रकाशित कर दी हो उसे क्या करना चाहिए ? क्या उसे सरकार से माफ़ी मांगनी चाहिए? नहीं, बिलकुल नहीं। यह सत्य है कि संपादक ऐसी सामग्री प्रकाशित करने के लिए बाध्य नहीं है, लेकिन एक बार प्रकाशन के पश्चात वापस लेना भी उचित नहीं है।"

किसी भी समाचारपत्र की सफलता मुख्यत संपादक की कार्यशैली और योग्यता पर ही निर्भर करती है। महात्मा गाँधी ने संपादकों के कार्य के विषय में अपने विचार स्पष्ट करते हुए लिखा-
"पत्रकारिता को चौथा स्तम्भ माना जाता है। यह एक प्रकार की शक्ति है, लेकिन इसका गलत प्रयोग एक अपराध है। मैं एक पत्रकार के नाते अपने पत्रकार मित्रों से अपील करता हूँ कि वे अपनी जिम्मेदारी को महसूस करें और बिना किसी अन्य विचार के केवल सत्य को ही प्रस्तुत करें।"

"समाचारपत्रों में लोगों को शक्तिशाली तरीके से प्रभावित करने की क्षमता है। इसलिए संपादकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई गलत रिपोर्ट न चली जाए जो लोगों को उत्तेजित करती हो।"
"संपादक और उसके सहायकों को इस बारे में हमेशा जागरूक रहना चाहिए, कि वे किस समाचार को किस तरह से प्रस्तुत करते हैं।"
"किसी स्वतंत्र राष्ट्र में सरकार के लिए प्रेस पर नियंत्रण रख पाना असंभव है। ऐसे में पाठकों का यह उत्तरदायित्व है कि वे प्रेस की समीक्षा करें और उन्हें सही रास्ता दिखाएँ। समाज का प्रबुद्ध वर्ग भड़काऊ समाचारपत्रों को नकार देगा।"

Monday, July 18, 2011

कफ़न को झंडा बनाते दिग्विजय सिंह

भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई आतंकी हमलों के मामले में कराची और काबुल की कतार में आ खड़ी हुई है. काबुल और कराची के बाद मुंबई का स्थान आता हैजहाँ आतंकी हमलों में पिछले वर्षों के दौरान सबसे ज्यादा मौतें हुई हैं. इसका कारण भारत की सुरक्षा एजेंसियों की नाकामी और केंद्र सरकार का ढुलमुल रवैया रहा है. देश की सुरक्षा एजेंसियां वर्ष भर हिन्दू आतंकवाद के शगूफे को येन-केन प्रकारेण सिद्ध करने में लगी रहीं. भारत की सत्ता  ने सुरक्षा एजेंसियों को हिन्दू आतंकवाद के शगूफे को साबित करने की जिम्मेदारी सौंपी थी. जिसके कारण जिहादी आतंकियों को एक बार फिर से मुंबई को दहलाने का अवसर हाथ लग लगा. हमने इस हमले से भी कोई सबक नहीं लियामुंबईवासियों की रोजी-रोटी कमाने की मजबूरी को हमने उनका जीवट बताना शुरू कर दिया है. समस्त विश्व यह जानता और मानता हैकि जिहादी आतंकवाद मानव सभ्यता के लिए खतरा है. जिहादी आतंक का खतरा विश्व के सबसे अशांत और आतंकी मुल्क के नजदीक भारत पर सबसे अधिक है. जिहादी आतंकी का हमला भी हमने ही सबसे अधिक झेला हैजिससे हमें स्वाभाविक ही अपनी आतंरिक सुरक्षा को मजबूत करने का सबक सीख लेना चाहिए था. दुर्भाग्य से भारत सरकार यह सबक नहीं सीख पाईइसका कारण वोट बैंक की कुटिल राजनीति है. 
दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक मुल्क की सत्ता ने वोट बैंक की खातिर इन खतरों को नजर अंदाज कर दिया. इसके उलट दिग्विजय सिंह जैसे शिखंडियों के माध्यम से भारत की सत्ता ने देश के बहुसंख्यक सहिष्णु समाज के लोगों को ही आतंकी घोषित करना शुरू कर दिया. कांग्रेस के "युवराज" ने अमेरिकी राजदूत तक को यह बताया की भारत को हिन्दू आतंकवाद से खतरा है. कैसी विडम्बना है कि समस्त विश्व को जिहादी आतंकवाद से खतरा हैऔर भारत को हिन्दू आतंकवाद से खतरा है वास्तव में देश को ऐसी नस्ल के नेताओं से खतरा हैजो आतंकी हमलों में मारे गए लोगों के कफ़न को भी अपनी पार्टी का झंडा बनाकर ऊंचा उठाने का जघन्य प्रयास करते हैं. इन नेताओं कि श्रेणी में देश के कथित "युवराज" भी शामिल हैं. मुंबई में हुए बम धमाकों में मारे गए लोगों के प्रति इन नेताओं ने संवेदना तो नहीं प्रकट की बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इन हमलों में शामिल होने का बेसुरा राग और बजा दिया. गौरतलब है कि मुंबई हमलों के अपराधियों का सुराग पाने के लिए जांच एजेंसियां अभी सीसीटीवी कैमरे ही खंगाल रही हैंलेकिन कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका तय कर दी है. यह लाशों पर राजनीति करने के अलावा और क्या है ? आतंकी हमले पर इस प्रकार की कुटिल और राष्ट्रद्रोही राजनीति यह दर्शाती है कि भारत की सत्ता अपने नागरिकों के प्रति कितना संवेदनशील है.
 जिस देश की सत्ता अपने नागरिकों के प्रति संवेदनशील नहीं हैउसे सत्ता में बने रहने का नैतिक अधिकार नहीं है. जो सरकार संसद पर हमला करने वाले और १८३ लोगों को मौत देने वाले को पोषण दे रही है. वह सत्ता देश की सुरक्षा किस प्रकार से सुनिश्चित कर सकती है. यदि देश की सुरक्षा सुनिश्चित करनी हैतो उसका केवल एक ही उपाय है जिहादी आतंकवाद को सबक सिखाया जाये. इसके लिए कफ़न को भी झंडा बनाने वाली संवेदनाहीन राजनीति की नहीं राष्ट्रनीति और समाजनीति की आवश्यकता है. जिस राष्ट्र की राजनीति राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करती हैवह राष्ट्र कैसे सुरक्षित रह सकता है ? इसलिए यह आवश्यक है की राजनेता अपने क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित की राजनीति करें. इस राजनीति का पहला कर्तव्य यही होगा की देश के बहुसंख्यक समाज की भावनाओं का सम्मान किया जाये और और वोट बैंक की खातिर उसके हितों से खिलवाड़ न किया जाये. 

                                                          
 surya

Thursday, July 14, 2011

“न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड” के बंद होने का सबक



पत्रकारिता का कर्तव्य होता है राष्ट्रीय और सामजिक महत्व की सूचनाओं का संकलन कर लोगों तक पहुँचाना. पत्रकारिता का कार्य समाज और राष्ट्र को हानि पहुँचाने वाले तत्वों की स्पष्ट जानकारी देकर समाज को जागृत करना भी है. इसके लिए खोजी पत्रकारिता भी करनी पड़ती है, जिसमें पत्रकार को जासूस जैसा काम भी करना पड़ता है. खोजी पत्रकारिता ने विभिन्न देशों में महत्वपूर्ण मामलों का पर्दाफाश कर जनता को वास्तविक सच्चाई से रूबरू कराया है. खोजी पत्रकारिता, पत्रकारिता की ऐसी विधा है. जिसका उपयोग समाज हित के लिए किया ही जाना चाहिए. लेकिन खोजी पत्रकारिता उस समय अपने उद्देश्य से भटक जाती है, जब पत्रकार किसी व्यक्ति के निजी जीवन से भी एक्सक्लूसिव स्टोरी निकलने का प्रयास करने लगता है. इसका ही एक समसामयिक उदहारण है “न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड” साप्ताहिक पत्र का बंद होना.
“न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड” ब्रिटेन का १६८ वर्ष पुराना साप्ताहिक टैबलायड है. यह टैबलायड मीडिया के बड़े कारोबारी रूपर्ट मर्डोक का है. अकेले ब्रिटेन में ही उनके “द टाइम्स” और “द सन” जैसे चार प्रतिष्ठित अखबार हैं जबकि यूरोप, अमेरिका और एशिया में उनके कई टीवी चैनल और अखबार हैं. “न्यूज ऑफ द वर्ल्ड” की प्रसार संख्या २७ लाख है और इसका मुनाफा भी मोटा है. इस पत्र की पहचान ब्रिटिश लोगों के बीच अनूठी और सनसनी वाली ख़बरों को दिखाने की रही है. इस पत्र के पत्रकार सेलिब्रिटी एवं अन्य लोकप्रिय लोगों के निजी जीवन को भी एक्सक्लूसिव स्टोरी की तरह से दिखाते थे. इन पत्रकारों से तो सेलिब्रिटी बचने के लिए भागते थे. इसी तरह से भागने के चक्कर में ब्रिटेन की राजकुमारी डायना अपने प्रेमी डोडी-अल फयाद के साथ एक कार दुर्घटना में मारी गयी थी.
रूपर्ट मर्डोक के अख़बार ने सनसनीखेज ख़बरों को दिखाने के लिए ख़बरें नहीं अश्लील मनोरंजन परोसना शुरू कर दिया. मीडिया के बाजार में टैबलायड का धंधा एक्सक्लूसिव ख़बरों और अश्लील चित्रों के बल पर चलता है. बाजार में पकड़ बनाने के इस जूनून में रूपर्ट मर्डोक ने पत्रकारिता के नैतिक कर्तव्य और उद्देश्य को ही ताक पर रख दिया. अखबार की बढ़ती प्रसार संख्या ने मर्डोक को इस कदर उत्साहित कर दिया कि वे एक्सक्लूसिव ख़बरें देने के लिए लोगों के फ़ोन भी टेप करवाने लगे. रूपर्ट मर्डोक ने इस काम को करने के लिए पत्रकार ही नहीं जासूसों की भी सहायता ली.
मर्डोक ने निजी जासूसों के माध्यम से ४,००० से अधिक लोगों के फोन टेप करवाए और उन्हें दर्ज कर ख़बरों के रूप में बाजार में बेच दिया. “न्यूज़ ऑफ़ थे वर्ल्ड” लोगों के दुखों को एक्सक्लूसिव खबर के रूप में मीडिया बाजार में बेचता रहा. इन ख़बरों कि प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए अख़बार ने फोन टेपिंग और वायस मेल हैक करना शुरू कर दिया. इस समाचारपत्र ने सेलिब्रिटी से लेकर आम लोगों तक के फोन टेप करवाए. जिन लोगों के फोन टेप किये गए उनमें लन्दन आतंकी हमले के पीड़ितों से लेकर १३ वर्षीय बालिका मिली दादलर भी शामिल थी. इसमें गौरतलब यह है कि ख़बरों के इस अनैतिक बाजार में सरकार कि भूमिका भी सन्देहास्पद रही है.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार एंडी कालसन इस समाचार पत्र के संपादक रहे हैं. जिन्हें इस मामले के तूल पकड़ने के बाद पत्र से इस्तीफा देना पड़ा. फोन टेपिंग के इस मामले में प्रधानमंत्री की भूमिका भी सवालों से परे नहीं है. प्रधानमंत्री को इसी दबाव के कारण शुक्रवार को विस्तृत न्यायिक जांच कि घोषणा करनी पड़ी. डेविड कैमरन ने बयान जारी कर कहा कि ” जो कुछ भी हुआ उसकी जांच होगी, गवाहों को एक जज के साथ शपथ लेकर बयान देना होगा. कोई कसर बाकि नहीं रखी जाएगी”. इसके साथ ही ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने यह भी स्वीकार किया है कि मीडिया के लोगों कि ओर से होने वाली गलत हरकतों को नेताओं ने नजरंदाज किया है.
डेविड कैमरन की इस स्वीकारोक्ति में सच्चाई है. दरअसल रूपर्ट मर्डोक मीडिया के वैश्विक स्तर के व्यवसायी हैं, जिनसे नेता उलझना नहीं चाहते हैं. मर्डोक भी अपनी ख़बरों की दुकान चलाने के लिए नेताओं से सांठ-गाँठ कर लेते हैं. इस प्रकार के नापाक गठबंधन में सत्तापक्ष की बात को मीडिया अपने स्वर में कहता है. इसके बदले में नेता मीडिया हाउस के वैध-अवैध धंधों को संरक्षण देते हैं. राजनीति और मीडिया के गठजोड़ की यह संस्कृति ब्रिटेन और पश्चिमी देशों लम्बे समय से चली आ रही है. इसे ध्यान में रखते हुए भारतीय मीडिया के शुभचिंतकों को इस संस्कृति से बचाव का रास्ता तैयार कर लेना चाहिए.
भारत में भी हाल ही में राजनीति और मीडिया का गठजोड़ देखने को मिलता रहा है. चाहे वह बाबा रामदेव और समर्थकों पर हमला हो या “युवराज” के दौरों की रिपोर्टिंग. इन सभी में कहीं न कहीं मीडिया पर सरकारी प्रभाव देखने को मिलता है. “न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड” के मामले से भारतीय मीडिया कारोबारियों को भी यह समझ लेना चाहिए कि दर्शक वह नहीं देखना चाहते जो मीडिया उन्हें दिखा रहा है. बल्कि दर्शक  सच्चाई से रूबरू होना चाहते हैं. जिसका विकल्प सरकार प्रायोजित और मनोरंजन प्रधान समाचार माध्यम नहीं हो सकते हैं. यह एक सच्चाई है, जिससे भारत के मीडिया को सबक लेकर आगे बढ़ना चाहिए.

समाज कल्याण में लगे वक्फ बोर्ड की संपत्ति


केरल का प्रसिद्ध पद्मनाभ स्वामी मंदिर भारत के सबसे अमीर मंदिर होने का गौरव प्राप्त कर चुका है. मंदिर के तहखानों से अब तक मिले दुर्लभ मूर्तियों, जवाहरातों और सिक्कों आदि की कीमत १ लाख करोड़ रुपये आंकी गयी है.मंदिर में मिले इस अपार खजाने के संरक्षण और इसके सदुपयोग को लेकर भी बहस चल पड़ी है. कोई इस धन को समाज कल्याण में खर्च करने की बात कह रहा है, तो कोई इस धन को संग्रहालय में रखने की बात कर रहा है. यह सही है कि देश कि बहुत बड़ी आबादी आज भी भुखमरी और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से त्रस्त है. यदि देश को आगे बढ़ना है, तो गरीब वर्गों का कल्याण भी आवश्यक है. लेकिन क्या केवल मंदिरों के खजाने से देश कि समस्याओं का हल हो जायेगा. वर्तमान समय में देश को मंदिर से प्राप्त खजाने कि अपेक्षा स्विस बैंकों में जमा काले धन की आवश्यकता है.
भारत भर में मंदिर ही नहीं वक्फ बोर्ड के पास भी अथाह संपत्ति है. विभिन्न राज्यों में करीब 4 लाख एकड़ जमीन वक्फ बोर्डों के पास है। भारतीय रेलवे और रक्षा मंत्रालय की भू-संपत्ति के बाद वक्फ बोर्ड के पास ही सर्वाधिक जमीन है। इसी तरह वक्फ बोर्ड के तहत बनी हुई कब्रगाहों के क्षेत्र निर्धारित हैं। “वक्फ” का इतिहास गरीबों के कल्याण से जुड़ा रहा है। अल्लाह के नाम पर किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा गरीबों के लिए दान की गई संपत्ति “वक्फ” मानी गई है। भारत में लगभग 800 वर्षों से “वक्फ” का प्रावधान रहा है। देश में करीब 3 लाख अचल संपत्तियाँ वक्फ संपत्ति की तरह अब भी पंजीकृत हैं। क्या वक्फ बोर्ड की संपत्ति को भी समाज कल्याण के लिए खर्च कर देना चाहिए.
भारत की सत्ता ने सम्प्रदाय विशेष को हमेशा अपनी सत्ता बचाने के लिए कवच की तरह से इस्तेमाल किया है. वोट बैंक की यह राजनीति जहाँ अमरनाथ यात्रियों की सुविधा के लिए सौ एकड़ जमीन नहीं दे सकती है. लेकिन हज यात्रियों को पासपोर्ट की अनिवार्य जांच प्रक्रिया भी नहीं करने का निर्णय किया जाता है. भारत की केंद्र और राज्य सरकारों की वोट बैंक की राजनीति ने देश के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को चोट पहुँचाने का कार्य किया है. यदि पद्मनाभम स्वामी मंदिर की संपत्ति को समाज कल्याण में खर्च किया जा सकता है, तो वक्फ बोर्ड की संपत्ति को क्यों नहीं.
एक धर्मनिरपेक्ष चरित्र वाले राष्ट्र में विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों के बीच यह दोहरा मापदंड वोट बैंक को साधने का कुटिल प्रयास है. वक्फ बोर्ड की संपत्ति रेलवे और रक्षा मंत्रालय के पश्चात् देश में सबसे अधिक है. क्या इस संपत्ति का सामाजिक कल्याण के कार्यों में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए. यदि पद्मनाभम स्वामी मंदिर का खजाना समाज कल्याण के कार्य में लग सकता है, तो वक्फ बोर्ड की अथाह संपत्ति का भी समाज कार्यों में उपयोग हो सकता है. इसलिए पद्मनाभम स्वामी मंदिर, तिरुपति बालाजी मंदिर, साईं शिर्डी मंदिर और अन्य प्रमुख तीर्थ स्थलों, प्रमुख मंदिरों एवं वक्फ बोर्ड को मिलने वाले चढ़ावे और दान के निश्चित अंश को समाज कल्याण के कार्यों में खर्च किया ही जाना चाहिए.