Friday, August 19, 2011

वैचारिक पत्रकारिता के स्तंभ महर्षि अरविन्द



महर्शि अरविंद महान योगी, क्रान्तिकारी, राश्ट्रवाद के अग्रदूत, प्रखर वक्ता एवं पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं। महर्शि अरविंद की पत्रकारिता के बारे में देषवासियों को बहुत अधिक जानकारी नहीं रही है। जिसके बारे में जानना नवोदित पत्रकार पीढ़ी के लिए आवष्यक है। महर्शि अरविंद उन पत्रकारों में से एक थे, जिन्होंने समाचार पत्रों के माध्यम से तत्कालीन जनमानस को स्वाधीनता संग्राम के लिए तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। उनका जन्म 15 अगस्त, 1872 में कलकत्ता के एक बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता कृश्णधन घोश कलकत्ता के ख्यातिप्राप्त वकील थे, जो पूरी तरह से पष्चिमी सभ्यता के प्रभाव में थे। महर्शि अरविंद की माता का नाम स्वर्णलता देवी था, पिता के दबाव में माता को भी पष्चिम की सभ्यता के अनुसार ही रहना पड़ता था।

महर्शि अरविंद की षिक्षा-दीक्षा भी अंग्रेजी वातावरण में ही हुई थी। उनके पिता ने उन्हें पांच वर्श की अवस्था में दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में दाखिल करवा दिया, जिसका प्रबंध यूरोपीय लोग करते थे। अरविंद अपने बाल्यकाल के सात वर्शों तक ही भारत में रहे, जिसके पष्चात उनके पिताजी ने उन्हें उनके भाइयों के साथ इंग्लैण्ड भेज दिया। जहां मैनचेस्टर के एक अंग्रेज परिवार में उनका पालन-पोशण हुआ।

महर्शि अरविंद ने ब्रिटेन में अपनी षिक्षा सैंट पॉल स्कूल और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के किंग्स कॉलेज में प्राप्त की। पष्चिमी सभ्यता में पले-बढ़े महर्शि अरविंद एक दिन भारतीय संस्कृति के व्याख्याता होंगे, ऐसा षायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा। फरवरी 1893 में महर्शि अरविंद भारत लौटे, ब्रिटेन से लौटने के पष्चात उन्होंने बड़ौदा कॉलेज में अध्यापन कार्य किया। यही वह समय था, जब बंगाल विभाजन के परिणाम स्वरूप देष में 1857 के पष्चात क्रांति की ज्वाला एक बार फिर से प्रखर हो रही थी। जिसका केन्द्र कलकत्ता ही था। महर्शि अरविंद बड़ौदा से कलकत्ता भी आते-जाते रहते थे। जहां वे क्रांतिकारी गतिविधियों में सहयोग करने लगे।

सन 1907 में अरविन्द ने कांग्रेस के क्रांतिकारी संगठन नेषलिस्ट पार्टी के राश्ट्रीय अधिवेषन की अध्यक्षता की। इसी वर्श अरविंद घोश ने विपिनचंद्र पाल के अंग्रेजी दैनिक वन्दे मातरम में काम करना षुरू कर दिया। महर्शि अरविंद का पत्रकारिता के क्षेत्र में इससे पूर्व ही पदार्पण हो चुका था। उन्होंने अपनी पत्रकारिता की षुरूआत सन 1893 में मराठी साप्ताहिक ‘‘इन्दु प्रकाष‘‘ से की थी। जिसमें उनके नौ लेख प्रकाषित हुए थे, इनमें षुरूआती दो लेख उन्होंने ‘‘भारत और ब्रिटिष संसद‘‘ षीर्शक के साथ लिखे थे। इसके बाद 16 जुलाई से 27 अगस्त, 1894 के दौरान उनकी सात लेखों की एक श्रृंखला प्रकाषित हुई थी। वे लेख उन्होंने ‘‘वन्दे मातरम‘‘ के रचयिता एवं बांग्ला के महान साहित्यकार बंकिम चंद्र चटर्जी को श्रद्धांजलि देते हुए लिखे थे। इसके बाद अरविंद की लेखन प्रतिभा के दर्षन बंगाली दैनिक ‘‘युगांतर‘‘ हुए। जिसकी षुरूआत मार्च, 1906 में उनके भाई बरिन्द्र और अन्य साथियों ने की, इस पत्र के प्रकाषन पर मई, 1908 में ब्रिटिष सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया।

इसके बाद महर्शि अरविंद ने अंग्रेजी दैनिक वन्दे मातरम में कार्य किया। इस पत्र में प्रकाषित उनके लेखों ने क्रांति के ज्वार में एक नया तूफान ला दिया। वन्दे मातरम में उनके लेखों के बारे में कहा जाता है कि भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में इतने प्रखर राश्टवादी लेख कभी नहीं लिखे गए। ब्रिटिष सरकार की नीतियों के विरोध में लिखने पर वन्दे मातरम पर राजद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया गया। अरविंद को संपादक के रूप में अभियुक्त बनाया गया। इस अवसर पर विपिन चंद्र पाल

ने उनका बहुत सहयेग किया, उन्होंने अरविंद को पत्र का संपादक मानने से ही इंकार कर दिया। जिसके लिए उन्हें छह माह का कारावास भुगतना पड़ा, परंतु सरकार अरविंद को दोशी नहीं सिद्ध कर पाई। अदालत के द्वारा अरविंद को दोशमुक्त करार दिए जाने पर देष भर में जष्न मनाया गया एवं स्थान-स्थान पर संगोश्ठियां आयोजित हुईं। उनके पक्ष में संपादकीय लिखे गए तथा उन्हें सम्मानित किया गया। अरविंद की पत्रकारिता की लोकप्रियता का ही कारण था कि कलकत्ता के लालबाजार की पुलिस अदालत के बाहर हजारों युवा एकत्र होकर वन्दे मातरम के नारे लगाते थे। जहां अरविंद के मामले की सुनवाई चल रही थी। सितंबर 1908 में वन्दे मातरम का प्रकाषन बंद हो गया। जिसके बाद उन्होंने 15 जून, 1909 को कलकत्ता से ही अंग्रेजी साप्ताहिक कर्मयोगी और 23 अगस्त, 1909 को बंगााली साप्ताहिक धर्म की षुरूआत की, जिनका मूल स्वर राश्ट्रवाद ही था। महर्शि अरविंद ने इन दोनों पत्रों में राश्ट्रवाद के अलावा सामाजिक समस्याओं पर भी लिखा। उनके इन पत्रों से विचलित होकर तत्कालीन वायसराय के सचिव ने लिखा था- ‘‘सारी क्रांतिकारी हलचल का दिल और दिमाग यही व्यक्ति है, जो ऊपर से कोई गैर कानूनी कार्य नहीं करता और किसी तरह कानून की पकड़ में नहीं आता।‘‘

महर्शि अरविंद का लेखन उनके अंतिम समय तक अनवरत चलता रहा। सन 1910 में वे कर्मयोगी और धर्म को भगिनी निवेदिता को सौंप कर चन्द्रनगर चले गए। इसके बाद वे अन्तः प्रेरणा से पांडिचेरी पहुंचे। वहां भी उन्होंने ‘‘आर्य‘‘ अंग्रेजी मासिक की षुरूआत की, जिसमें उन्होंने प्रमुख रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक विशयों पर लिखा। ‘‘आर्य‘‘ मासिक में उनकी अमर रचनाएं प्रकाषित हुईं। जिनमें प्रमुख हैं लाइफ डिवाइन, सीक्रेट ऑफ योग एवं गीता पर उनके निबंध। महर्शि अरविंद का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय की पत्रकारिता में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पत्रकारिता में राश्ट्रवादी स्वर को स्थान देने वालों में अरविंद का नाम सदैव उल्लेखनीय रहेगा। 5 दिसंबर 1950 को महर्शि अरविंद देह त्याग कर अनंत में विलीन हो गए।

पूंजीपतियों के चरणों में अर्पित पत्रकारिता- माखनलाल चतुर्वेदी


वर्तमान समय में पत्रकारिता के कर्तव्य, दायित्व और उसकी भूमिका को लोग संदेह से परे नहीं मान रहे हैं। इस संदेह को वैष्विक पत्रकारिता जगत में न्यूज ऑफ द वर्ल्ड और राश्ट्रीय स्तर पर राडिया प्रकरण ने बल प्रदान किया है। पत्रकारिता जगत में यह घटनाएं उन आषंकाओं का प्रादुर्भाव हैं जो पत्रकारिता के पुरोधाओं ने बहुत पहले ही जताई थीं। पत्रकारिता में पूंजीपतियों के बढ़ते प्रभाव के बारे में पत्रकारिता के महान आदर्ष माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था-

‘‘दुख है कि सारे प्रगतिवाद, क्रांतिवाद के न जाने किन-किन वादों के रहते हुए हमने अपनी इस महान कला को पूंजीपतियों के चरणों में अर्पित कर दिया है।‘‘ (पत्रकारिताः इतिहास और प्रष्न- कृश्ण बिहारी मिश्र)

भारत की पत्रकारिता की कल्पना हिंदी से अलग हटकर नहीं की जा सकती है, परंतु हिंदी पत्रकारिता जगत में भी अंग्रेजी षब्दों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। भाशा के मानकीकरण की दृश्टि से यह उचित नहीं कहा जा सकता है माखनलाल चतुर्वेदी भाशा के इस संक्रमण से बिल्कुल भी संतुश्ट नहीं थे। उन्होंने कहा कि-

‘‘राश्ट्रभाशा हिंदी और तरूणाई से भरी हुई कलमों का सम्मान ही मेरा सम्मान है।‘‘(राजकीय सम्मान के अवसर पर)

राश्ट्रभाशा हिंदी के विशय में माखनलाल जी ने कहा था-

‘‘जो लोग देष में एक राश्ट्रभाशा चाहते हैं। वे प्रांतों की भाशाओं का नाष नहीं चाहते। केवल विचार समझने और समझाने के लिए राश्ट्रभाशा का अध्ययन होगा, बाकि सब काम मातृभाशाओं में होंगे। ऐसे दुरात्माओं की देष को जरूरत नहीं, जो मातृभाशाओं को छोड़ दें।‘‘(पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, षिवकुमार अवस्थी)

पत्रकारिता पर सरकारी नियंत्रण एक ऐसा मुददा है, जो हमेषा जीवंत रहा है। सरकारी नियंत्रण के बारे में भी माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने विचारों को स्पश्ट करते हुए अपने जीवनी लेखक से कहा था-

‘‘जिला मजिस्ट्रेट मिओ मिथाइस से मिलने पर जब मुझसे पूछा गया की एक अंग्रेजी वीकली के होते हुए भी मैं एक हिंदी साप्ताहिक क्यों निकालना चाहता हूं तब मैंने उनसे निवेदन किया कि आपका अंग्रेजी साप्ताहिक तो दब्बू है। मैं वैसा समाचार पत्र नहीं निकालना चाहता हूं। मैं एक ऐसा पत्र निकालना चाहूंगा कि ब्रिटिष षासन चलता-चलता रूक जाए।‘‘ (पत्रकारिताः इतिहास और प्रष्न- कृश्ण बिहारी मिश्र)

माखनलाल चतुर्वेदी ने पत्रकारिता के ऊंचे मानदंड स्थापित किए थे, उनकी पत्रकारिता में राश्ट्र विरोधी किसी भी बात को स्थान नहीं दिया जाता था। यहां तक कि माखनलाल जी महात्मा गांधी के उन वक्तव्यों को भी स्थान नहीं देते थे, जो क्रांतिकारी गतिविधियों के विरूद्ध होते थे। सरकारी दबाव में कार्य करने वाली पत्रकारिता के विशय में उन्होंने अपनी नाराजगी इन षब्दों में व्यक्त की थी-

‘‘मैंने तो जर्नलिज्म में साहित्य को स्थान दिया था। बुद्धि के ऐरावत पर म्यूनिसिपल का कूड़ा ढोने का जो अभ्यास किया जा रहा है अथवा ऐसे प्रयोग से जो सफलता प्राप्त की जा रही है उसे मैं पत्रकारिता नहीं मानता।‘‘ (पत्रकारिताः इतिहास और प्रष्न- कृश्ण बिहारी मिश्र)

वर्तमान समय में हिंदी समाचारपत्रों को पत्र का मूल्य कम रखने के लिए और अपनी आय प्राप्त करने के लिए विज्ञापनों पर निर्भर रहना पड़ता है, क्योंकि पाठक न्यनतम मूल्य में ही पत्र को लेना चाहते हैं। हिंदी पाठकों की इस प्रवृत्ति से क्षुब्ध होकर माखनलाल जी ने कहा-

‘‘मुफ्त में पढ़ने की पद्धति हिंदी से अधिक किसी भाशा में नहीं। रोटी, कपड़ा, षराब और षौक की चीजों का मूल्य तो वह देता है पर ज्ञान और ज्ञान प्रसाधन का मूल्य चुकाने को वह तैयार नहीं। हिंदी का सबसे बड़ा षत्रु यही है।‘‘(पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, षिवकुमार अवस्थी)

माखनलाल चतुर्वेदी पत्र-पत्रिकाओं की बढ़ती संख्या और गिरते स्तर से भी चिंतित थे। पत्र-पत्रिकाओं के गिरते स्तर के लिए उन्होंने पत्रों की कोई नीति और आदर्ष न होने को कारण बताया। उन्होंने लिखा था-

‘‘हिंदी भाशा का मासिक साहित्य एक बेढंगे और गए बीते जमाने की चाल चल रहा है। यहां बरसाती कीड़ों की तरह पत्र पैदा होते हैं। फिर यह आष्चर्य नहीं कि वे षीघ्र ही क्यों मर जाते हैं। यूरोप में हर एक पत्र अपनी एक निष्चित नीति रखता है। हिंदी वालों को इस मार्ग में नीति की गंध नहीं लगी। यहां वाले जी में आते ही, हमारे समान, चार पन्ने निकाल बैठने वाले हुआ करते हैं। उनका न कोई आदर्ष और उददेष्य होता है, न दायित्व।‘‘

(इतिहास-निर्माता पत्रकार, डा. अर्जुन तिवारी)

पत्रकारिता को किसी भी राश्ट्र या समाज का आईना माना गया है, जो उसकी समसामयिक परिस्थिति का निश्पक्ष विष्लेशण करता है। पत्रकारिता की उपादेयता और महत्ता के बारे में माखनलाल चतुर्वेदी जी ने कर्मवीर के संपादकीय में लिखा था-

‘‘किसी भी देष या समाज की दषा का वर्तमान इतिहास जानना हो, तो वहां के किसी सामयिक पत्र को उठाकर पढ़ लीजिए, वह आपसे स्पश्ट कर देगा। राश्ट्र के संगठन में पत्र जो कार्य करते हैं। वह अन्य किसी उपकरण से होना कठिन है।‘‘(माखनलाल चतुर्वेदी, ऋशि जैमिनी बरूआ)

किसी भी समाचार पत्र की सफलता उसके संपादक और उसके सहयोगियों पर निर्भर करती है। जिसमें पाठकों का सहयोग प्रतिक्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। समाचारपत्रों की घटती लोकप्रियता के लिए माखनलाल जी ने संपादकों और पाठकों को जिम्मेदार ठहराते हुए लिखा था-

‘‘इनके दोशी वे लोग ही नहीं हैं जो पत्र खरीदकर नहीं पढ़ते। अधिक अंषों में वे लोग भी हैं जो पत्र संपादित और प्रकाषित करते हैं। उनमें अपने लोकमत की आत्मा में पहुंचने का सामर्थ्य नहीं। वे अपनी परिस्थिति को इतनी गंदी और निकम्मी बनाए रखते हैं, जिससे उनके आदर करने वालों का समूह नहीं बढ़ता है।‘‘(पत्रकारिता के युग निर्माता- माखनलाल चतुर्वेदी, षिवकुमार अवस्थी)

भारतीय पत्रकारिता अपने प्रवर्तक काल से ही राश्ट्र और समाज चेतना के नैतिक उददेष्य को लेकर ही यहां तक पहुंची है। वर्तमान समय में जब पत्रकार को पत्रकारिता के नैतिक कर्तव्यों से हटकर व्यावसायिक हितों के लिए कार्य करने में ही कैरियर दिखने लगा है। ऐसे समय में पत्रकारिता के प्रकाषपुंज माखनलाल चतुर्वेदी के आदर्षों से प्रेरणा ले अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ने की आवष्यकता है।

Thursday, August 18, 2011

भ्रष्टाचार के कारण और निवारण



भारत में यह समय भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ने का है. समस्त देश में भ्रष्टाचार एक व्यापक मुद्दा है जिसके लिए जनता के जनजागरण की आवश्यकता है. यह जनजागरण सरकार बदलने के लिए नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए होना चाहिए. हमने इससे पहले भ्रष्टाचार को लेकर सरकारें बदली भी है और सरकार बनाई भी है. हमने भ्रष्टाचार एवं आपातकाल के मुद्दे को लेकर सन १९७७ में सरकार बनाने में सफलता पाई थी, लेकिन हम भ्रष्टाचार को रोकने में सफल नहीं हो पाए. इसका कारण यह है कि भ्रष्टाचार सरकारों की खामियों से ही नहीं बल्कि व्यवस्था की खामियों से भी है.

हमारे यहाँ लोकतंत्र की परिभाषा ही विकृत हो गयी है. लोकतंत्र का अर्थ होता है लोगों का तंत्र, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में तंत्र लोक पर हावी हो गया है. तंत्र लोगों पर नियंत्रण करने लगा है, लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि तंत्र लोगों के द्वारा निर्देशित हो और उनकी आवश्यकताओं के अनुसार कार्य करे. लोकतंत्र में तंत्र की भूमिका केवल प्रबंधन के स्तर तक और प्रतिनिधित्व के स्तर तक सीमित रहनी चाहिए. व्यवस्था परिवर्तन को लेकर आन्दोलन करने और लड़ाई छेड़ने से पहले हमें भ्रष्टाचार को समझने की आवश्यकता है. हमें भ्रष्टाचार की परिभाषा तय करनी होगी तथा उसकी मात्रा का भी पता लगाना होगा. इसके बाद भ्रष्टाचार से निपटने का समाधान और यह समाधान कौन करेगा यह भी हमें तय करना होगा. इसके बाद हमको भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ने की ओर बढ़ना होगा.



भ्रष्टाचार की परिभाषा- जो कार्य मालिक से छिपाकर किया जाये (इसमें घूस लेना भी शामिल) वह भ्रष्टाचार है. अब यदि मालिक की बात करें तो मालिक तो तथाकथित सरकार है और उससे छिपाकर किया जाये वह भ्रष्टाचार है. यह तो सरकार और भ्रष्टाचारी के बीच का मामला हुआ, इसे सामाजिक भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है. यह केवल व्यवस्था के अंतर्गत भ्रष्टाचार है. अब इसमें भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम नियुक्त हुए व्यक्ति से नहीं बल्कि उसको नियुक्त करने वाली संस्था के विरुद्ध लड़ाई लड़ें अर्थात नियुक्तिकर्ता से लड़ाई लड़ें. हमारे समाज में प्रमुख समस्या यह है कि भ्रष्टाचार करने वालों ने भ्रष्टाचार की परिभाषा ही बदल दी है. हमें यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार अपराध नहीं गैरकानूनी कृत्य है. दरअसल भारत के तंत्र ने यह अनुभव किया कि यदि नागरिक स्वयं को निर्दोष समझेगा तो तंत्र को चुनौती देगा. इसलिए इतने क़ानून बना दिए जाएँ कि उनका पालन न कर पाने के कारण वह स्वयं को अपराधी मानने लगे. यह स्थिति अधिक कानून बनाने से उत्पन्न हुई. इसलिए भ्रष्टाचार और क़ानून व्यवस्था पर नियंत्रण करने के लिए हमें अपराधों का वर्गीकरण करना होगा.

अपराधों का वर्गीकरण आवश्यक- भारत में नागरिकों को तीन प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं- मूलभूत अधिकार, संवैधानिक अधिकार एवं सामाजिक अधिकार. यदि कोई व्यवस्था या व्यक्ति किसी व्यक्ति के मूल अधिकारों का हनन करता है तो यह अपराध की श्रेणी में आएगा और किसी के संवैधानिक अधिकारों का यदि हनन किया जाता है तो यह गैरकानूनी की श्रेणी में आएगा. इसी प्रकार से यदि किसी व्यक्ति के सामाजिक अधिकारों का हनन होता है तो यह अनैतिक कि श्रेणी में आएगा. इन तीनों का वर्गीकरण करने पर देश भर में अपराधियों की संख्या केवल २% ही रह जाती है. ऐसे में हमारी व्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि वह केवल २% अपराधों पर ही नियंत्रण का कार्य करे, बाकी की चिंता छोड़ दे. अब प्रश्न यह उठता है कि हमारे मूलभूत अधिकारों का हनन करने वाला कौन है? हमारे अधिकारों का हनन करने वाले वह लोग हैं, जिनको हमने अपने अधिकार अमानत में दिए हैं और उनको अपने अधिकारों की रक्षा का दायित्व दिया है. हमारे द्वारा दी गयी अमानत में खयानत करने वाले ही मुख्य रूप से अपराधी हैं और वह हैं हमारे राजनेता. अब हमें इन अपराधों पर नियंत्रण करने के उपायों के बारे में विचार करना होगा.

भ्रष्टाचार एवं अपराध रोकने के उपाय- भारत में अपराध रोकने की शक्ति केवल २% है, यदि अपराध २% से अधिक हो जायेगा तो सरकार उसको नियंत्रित नहीं कर पायेगी. इसलिए सरकार को केवल २% अपराधों के नियंत्रण पर ध्यान देने की आवश्यकता है. यदि इससे अधिक अपराधों पर नियंत्रण करने का प्रयास सरकार करेगी तो व्यवस्था पंगु हो जाएगी. अपनी क्षमताओं से अधिक कार्य करने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी ही नहीं चाहिए. इसलिए यह आवश्यक है कि सरकार २% अपराधों पर पूरी शक्ति से नियंत्रण करने का प्रयास करे. अब सवाल यह भी उठता है कि क्या गलत लोगों को पकड़वाकर भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है. ऐसा संभव ही नहीं है, इस व्यवस्था के अंतर्गत तो बिल्कुल भी संभव नहीं है. इसका उपाय यह हो सकता है कि हम भ्रष्टाचार के अवसर ही पैदा न होने दें, लेकिन सरकार ऐसा करने के बजाय अधिकाधिक कानूनों के माध्यम से जनता को ही दोषी ठहराने के प्रयास में लगी हुई है. इसमें धर्मगुरु भी पीछे नहीं हैं. राजनेता और धर्मगुरु जनता को ही दोषी ठहराने में लगे हैं, लेकिन यह लोग तंत्र को दोषी नहीं बताते हैं. इसलिए आवश्यकता है कि तंत्र में व्याप्त विसंगतियों को दूर करते हुए इन समस्याओं से निपटने का प्रयास किया जाये.

कानून एवं नीतियों में विसंगतियां- भारत में कानूनों में भी असमानता है. जैसे बिना लाइसेंस के हथियार रखने का केस तो लोअर कोर्ट में चलेगा और गांजा की तस्करी का केस सेशन कोर्ट में चलेगा. इसी प्रकार से हमारी आर्थिक नीतियों में भी भारी असमानता है. हमारे यहाँ साईकिल पर तो ४०० रुपये का टैक्स है और गैस पर सब्सिडी है. विचारणीय प्रश्न यह है कि ३३% गरीब ५% गैस की खपत करता है और ३३% अमीर ७०% ऊर्जा की खपत करता है. इसी प्रकार से छत्तीसगढ़ सरकार ने कानून बनाया है कि २५ गन्ना किसानों को २५ किलोमीटर के दायरे में ही अपनी फसल को बेचना होगा, अर्थात मेहनत किसान की और लाभ मिलों का. इस प्रकार के कानून जनहितकारी नहीं हैं.

काले धन की समस्या और उसका निवारण- काला धन भारत में वापस आये यह अच्छा है लेकिन इससे पहले हमें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि क्या काला धन बनना बंद हुआ? क्या काला धन बाहर जाना बंद हुआ है? इसलिए जरूरी यह है कि काला धन बनना रुके और देश से बाहर जाना रुके. काले धन की लड़ाई में हमें एक और मुद्दे को जोड़ देना चाहिए, वह मुद्दा है जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार. लोक और तंत्र के अधिकार घोषित होने चाहिए, वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत जनता अधिकार शून्य है.

सत्ता के विकेंद्रीकरण की आवश्यकता- यदि किसी व्यक्ति या संस्था को असीमित अधिकार दिए जाते हैं तो भ्रष्टाचार की आशंका बढ़ जाती है. यदि मुख्यमंत्री, सांसद या विधायक का पद महंगा होगा तो उस पर सुशोभित व्यक्ति अपने आप ही भ्रष्ट हो जायेगा. इसलिए यह आवश्यक है कि उनके अधिकारों का विकेंद्रीकरण किया जाये. हमें ग्राम पंचायतों को भी अधिक अधिकार देने होंगे, जिससे सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा. यदि इस व्यवस्था में भी भ्रष्टाचार आंशिक रूप से रह जाता है तो भी वह वर्तमान व्यवस्था से कम ही होगा. विकेंद्रीकरण किये जाने से जनभागीदारी भी बढ़ेगी और व्यवस्था में शामिल लोगों की स्पष्ट रूप से जवाबदेही भी तय हो सकेगी.

अंत में मैं यही कहूँगा कि भ्रष्टाचार की वर्तमान लड़ाई केवल एक शुरुआत या प्रतीक भर है. जिसके आगामी चरणों में हमें व्यवस्था परिवर्तन, सत्ता का विकेंद्रीकरण और जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार जैसे मुद्दों को सम्मिलित करना होगा. तभी भ्रष्टाचार मुक्त, सुदृढ़ लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अंतर्गत भारत की आगे की राह तय हो पायेगी.

(सुप्रसिद्ध चिन्तक बजरंग मुनि से बातचीत पर आधारित)

Tuesday, August 9, 2011

हिंद स्वराज की अनंत यात्रा



महात्मा गाँधी की अमर कृति हिंद स्वराज की विभिन्न लेखकों और विद्वानों ने समय-समय पर समीक्षा की है. हिंद स्वराज वह ग्रन्थ है, जिसमें महात्मा गाँधी ने तत्कालीन समय में भविष्य के भारत का खाका प्रस्तुत किया था. लेकिन स्वतंत्रता के उपरांत भारत की राजसत्ता ने हिंद स्वराज की नैतिकता और नीति को नकार दिया. वर्तमान समय का भारत उसी परिस्थिति में जा पहुंचा है जिसे महात्मा गाँधी भारत के स्थायी विकास के लिए उपयुक्त नहीं मानते थे. ऐसी परिस्थिति में जब उच्चतर मूल्यों का अँधेरा ही अँधेरा है, तब हिंद स्वराज इस अँधेरे में प्रकाश पुंज के समान है. हिंद स्वराज की प्रासंगिकता को जीवंत बनाये रखने का प्रयास करते हुए अजय कुमार उपाध्याय ने हिंद स्वराज की अनंत यात्रा पुस्तक की रचना की है. इस पुस्तक में हिंद स्वराज की समीक्षा के साथ-साथ तत्कालीन घटनाक्रम का भी वर्णन किया गया है. जिसके माध्यम से हमें तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और स्वाधीनता आन्दोलन के घटनाक्रम को समझने में सहायता मिलती है.

हिंद स्वराज की अनंत यात्रा के माध्यम से लेखक ने लन्दन में महात्मा गाँधी और क्रांतिकारियों के संबंधों के बारे में बताया है. लन्दन के घटनाक्रम ने ही महात्मा गाँधी को हिंद स्वराज लिखने के लिए प्रेरित किया था. इस पुस्तक में हिंद स्वराज की उस अनंत यात्रा का वर्णन है जो महात्मा गाँधी के भारत आने के बाद अनवरत चलती रही. इसमें महात्मा गाँधी द्वारा सत्याग्रह, असहयोग, हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रयासों और उसके इतिहास तथा पृष्ठभूमि का स्पष्ट वर्णन है. तत्कालीन कांग्रेस की स्वतंत्रता आन्दोलन में भूमिका, बंग-भंग और राष्ट्रीय पुनर्जागरण पर भी इस पुस्तक में प्रकाश डाला गया है. खिलाफत आन्दोलन के माध्यम से मुस्लिमों के बढ़ते तुष्टिकरण और उसके दुष्प्रभावों पर भी इस पुस्तक में प्रकाश डाला गया है. हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयासों के असफल होने के पश्चात् महात्मा गाँधी की निराशा के बारे में भी लेखक ने तथ्यपूर्ण जानकारी दी है. सविनय अवज्ञा आन्दोलन, द्वितीय गोलमेज सम्मलेन के घटनाक्रम का भी पुस्तक में तथ्यपूर्ण वर्णन है. द्वितीय विश्व युद्ध का भारत के स्वाधीनता आन्दोलन पर क्या प्रभाव पड़ा इसकी भी इस पुस्तक में तथ्यपूर्ण जानकारी है.

हिंद स्वराज को लेकर महात्मा गाँधी और पंडित नेहरु के मतभेदों की भी इस पुस्तक में अकाट्य तथ्यों के माध्यम से जानकारी दी गयी है. भारत की स्वाधीनता से पूर्व भारत विभाजन की पटकथा लिखे जाने की भी सटीक जानकारी इस पुस्तक से मिलती है. विभाजन के समय के समय भड़के दंगों के समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सेवा कार्यों की भी इस पुस्तक में जानकारी दी गयी है. लेखक ने हिंद स्वराज की अनंत यात्रा के माध्यम से महात्मा गाँधी के लन्दन प्रवास से लेकर उनकी हत्या तक के काल के घटनाक्रम को प्रस्तुत किया है. यह पुस्तक वर्तमान परिस्थितियों में हिंद स्वराज और महात्मा गाँधी के अनंत सन्देश को प्रचारित और प्रसारित करने का एक सुन्दर प्रयास है.