Friday, August 19, 2011

वैचारिक पत्रकारिता के स्तंभ महर्षि अरविन्द



महर्शि अरविंद महान योगी, क्रान्तिकारी, राश्ट्रवाद के अग्रदूत, प्रखर वक्ता एवं पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं। महर्शि अरविंद की पत्रकारिता के बारे में देषवासियों को बहुत अधिक जानकारी नहीं रही है। जिसके बारे में जानना नवोदित पत्रकार पीढ़ी के लिए आवष्यक है। महर्शि अरविंद उन पत्रकारों में से एक थे, जिन्होंने समाचार पत्रों के माध्यम से तत्कालीन जनमानस को स्वाधीनता संग्राम के लिए तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। उनका जन्म 15 अगस्त, 1872 में कलकत्ता के एक बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता कृश्णधन घोश कलकत्ता के ख्यातिप्राप्त वकील थे, जो पूरी तरह से पष्चिमी सभ्यता के प्रभाव में थे। महर्शि अरविंद की माता का नाम स्वर्णलता देवी था, पिता के दबाव में माता को भी पष्चिम की सभ्यता के अनुसार ही रहना पड़ता था।

महर्शि अरविंद की षिक्षा-दीक्षा भी अंग्रेजी वातावरण में ही हुई थी। उनके पिता ने उन्हें पांच वर्श की अवस्था में दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में दाखिल करवा दिया, जिसका प्रबंध यूरोपीय लोग करते थे। अरविंद अपने बाल्यकाल के सात वर्शों तक ही भारत में रहे, जिसके पष्चात उनके पिताजी ने उन्हें उनके भाइयों के साथ इंग्लैण्ड भेज दिया। जहां मैनचेस्टर के एक अंग्रेज परिवार में उनका पालन-पोशण हुआ।

महर्शि अरविंद ने ब्रिटेन में अपनी षिक्षा सैंट पॉल स्कूल और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के किंग्स कॉलेज में प्राप्त की। पष्चिमी सभ्यता में पले-बढ़े महर्शि अरविंद एक दिन भारतीय संस्कृति के व्याख्याता होंगे, ऐसा षायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा। फरवरी 1893 में महर्शि अरविंद भारत लौटे, ब्रिटेन से लौटने के पष्चात उन्होंने बड़ौदा कॉलेज में अध्यापन कार्य किया। यही वह समय था, जब बंगाल विभाजन के परिणाम स्वरूप देष में 1857 के पष्चात क्रांति की ज्वाला एक बार फिर से प्रखर हो रही थी। जिसका केन्द्र कलकत्ता ही था। महर्शि अरविंद बड़ौदा से कलकत्ता भी आते-जाते रहते थे। जहां वे क्रांतिकारी गतिविधियों में सहयोग करने लगे।

सन 1907 में अरविन्द ने कांग्रेस के क्रांतिकारी संगठन नेषलिस्ट पार्टी के राश्ट्रीय अधिवेषन की अध्यक्षता की। इसी वर्श अरविंद घोश ने विपिनचंद्र पाल के अंग्रेजी दैनिक वन्दे मातरम में काम करना षुरू कर दिया। महर्शि अरविंद का पत्रकारिता के क्षेत्र में इससे पूर्व ही पदार्पण हो चुका था। उन्होंने अपनी पत्रकारिता की षुरूआत सन 1893 में मराठी साप्ताहिक ‘‘इन्दु प्रकाष‘‘ से की थी। जिसमें उनके नौ लेख प्रकाषित हुए थे, इनमें षुरूआती दो लेख उन्होंने ‘‘भारत और ब्रिटिष संसद‘‘ षीर्शक के साथ लिखे थे। इसके बाद 16 जुलाई से 27 अगस्त, 1894 के दौरान उनकी सात लेखों की एक श्रृंखला प्रकाषित हुई थी। वे लेख उन्होंने ‘‘वन्दे मातरम‘‘ के रचयिता एवं बांग्ला के महान साहित्यकार बंकिम चंद्र चटर्जी को श्रद्धांजलि देते हुए लिखे थे। इसके बाद अरविंद की लेखन प्रतिभा के दर्षन बंगाली दैनिक ‘‘युगांतर‘‘ हुए। जिसकी षुरूआत मार्च, 1906 में उनके भाई बरिन्द्र और अन्य साथियों ने की, इस पत्र के प्रकाषन पर मई, 1908 में ब्रिटिष सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया।

इसके बाद महर्शि अरविंद ने अंग्रेजी दैनिक वन्दे मातरम में कार्य किया। इस पत्र में प्रकाषित उनके लेखों ने क्रांति के ज्वार में एक नया तूफान ला दिया। वन्दे मातरम में उनके लेखों के बारे में कहा जाता है कि भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में इतने प्रखर राश्टवादी लेख कभी नहीं लिखे गए। ब्रिटिष सरकार की नीतियों के विरोध में लिखने पर वन्दे मातरम पर राजद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया गया। अरविंद को संपादक के रूप में अभियुक्त बनाया गया। इस अवसर पर विपिन चंद्र पाल

ने उनका बहुत सहयेग किया, उन्होंने अरविंद को पत्र का संपादक मानने से ही इंकार कर दिया। जिसके लिए उन्हें छह माह का कारावास भुगतना पड़ा, परंतु सरकार अरविंद को दोशी नहीं सिद्ध कर पाई। अदालत के द्वारा अरविंद को दोशमुक्त करार दिए जाने पर देष भर में जष्न मनाया गया एवं स्थान-स्थान पर संगोश्ठियां आयोजित हुईं। उनके पक्ष में संपादकीय लिखे गए तथा उन्हें सम्मानित किया गया। अरविंद की पत्रकारिता की लोकप्रियता का ही कारण था कि कलकत्ता के लालबाजार की पुलिस अदालत के बाहर हजारों युवा एकत्र होकर वन्दे मातरम के नारे लगाते थे। जहां अरविंद के मामले की सुनवाई चल रही थी। सितंबर 1908 में वन्दे मातरम का प्रकाषन बंद हो गया। जिसके बाद उन्होंने 15 जून, 1909 को कलकत्ता से ही अंग्रेजी साप्ताहिक कर्मयोगी और 23 अगस्त, 1909 को बंगााली साप्ताहिक धर्म की षुरूआत की, जिनका मूल स्वर राश्ट्रवाद ही था। महर्शि अरविंद ने इन दोनों पत्रों में राश्ट्रवाद के अलावा सामाजिक समस्याओं पर भी लिखा। उनके इन पत्रों से विचलित होकर तत्कालीन वायसराय के सचिव ने लिखा था- ‘‘सारी क्रांतिकारी हलचल का दिल और दिमाग यही व्यक्ति है, जो ऊपर से कोई गैर कानूनी कार्य नहीं करता और किसी तरह कानून की पकड़ में नहीं आता।‘‘

महर्शि अरविंद का लेखन उनके अंतिम समय तक अनवरत चलता रहा। सन 1910 में वे कर्मयोगी और धर्म को भगिनी निवेदिता को सौंप कर चन्द्रनगर चले गए। इसके बाद वे अन्तः प्रेरणा से पांडिचेरी पहुंचे। वहां भी उन्होंने ‘‘आर्य‘‘ अंग्रेजी मासिक की षुरूआत की, जिसमें उन्होंने प्रमुख रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक विशयों पर लिखा। ‘‘आर्य‘‘ मासिक में उनकी अमर रचनाएं प्रकाषित हुईं। जिनमें प्रमुख हैं लाइफ डिवाइन, सीक्रेट ऑफ योग एवं गीता पर उनके निबंध। महर्शि अरविंद का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय की पत्रकारिता में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पत्रकारिता में राश्ट्रवादी स्वर को स्थान देने वालों में अरविंद का नाम सदैव उल्लेखनीय रहेगा। 5 दिसंबर 1950 को महर्शि अरविंद देह त्याग कर अनंत में विलीन हो गए।

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