Tuesday, October 18, 2011

“वॉल स्ट्रीट घेरो आंदोलन” के निहितार्थ

अमेरिका और यूरोपीय देशों सहित विश्व भर के 82 देशों में पूंजीवाद विरोधी आंदोलन चल रहे हैं। इस आंदोलन को ‘आक्यूपाइ वाल स्ट्रीट जनरल‘ नाम दिया गया है। 82 देशों के विभिन्न शहरों और स्टॉक एक्सचेंजों के आसपास जमा भीड़ वर्तमान आर्थिक ढांचे के लिए एक चेतावनी के रूप में दिखाई दे रही है। न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर में और अन्य देशों के प्रमुख शहरों में जमा आंदोलनकारी अपनी आजीविका छीनने और रोजगार के कम अवसरों के कारण हताश हैं। यूरोपीय संघ में कर्ज संकट गहराने और अमेरिका में आई मंदी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को गहरे से प्रभावित किया है। समस्त विश्व के लिए अनुकरणीय आर्थिक मॉडल और सुपर पॉवर बने अमेरिका की असली तस्वीर अब सबके सामने है।

गौरतलब है कि वह अमेरिका जो दुनिया की आर्थिक ग्रोथ का इंजन था, अब उसमें ठहराव आने लगा है। रीयल एस्टेट के कारोबार और उपभोक्ता संस्कृति पर आधारित अर्थव्यवस्था अब ढलान की ओर है। इसी समय में पूंजीवादियों के द्वारा आम लोगों के पोषण और भ्रष्टाचार ने व्यवस्था के प्रति आम अमेरिकियों के गुस्से को और बढ़ा दिया है। तानाशाही शासन के विरोध में खाड़ी देशों और भारत में हुए आंदोलन के बाद अमेरिका में भ्रष्टाचार को लेकर उपजे गुस्से ने आंदोलनों का वैश्वीकरण कर दिया है। अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश आर्थिक रूप से समृद्ध देशों की श्रेणी में आते हैं। आंदोलन इन देशों में कम ही देखने को मिलते हैं, ऐसे में इन देशों में बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारियों का एकत्रीकरण समस्या की जटिलता को उजागर करता है। प्रदर्शनकारी ‘‘हमारा पैसा वापस करो” और “परमाणु परियोजनाएं बंद करो” जैसे नारे लगा रहे हैं। फिलीपिंस में तो प्रदर्शनकारियों ने अमेरिकी दूतावास के सामने प्रदर्शन किया और ‘‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद‘‘ के नारे लगाए, और अमेरिका को चेताते हुए ‘‘फिलीपिंस बिकाऊ नहीं है‘‘ का उद्घोष किया।

विश्व के 82 देशों में चल रहे इस प्रकार के आंदोलन अमेरिकी आर्थिक मॉडल के अवसान की घोषणा कर रहे हैं। सन् 2008 में 117 वर्ष पुराने बैंक ‘‘लेहमन ब्रदर्स‘‘ के डूबने के साथ ही अमेरिका और उससे व्यापारिक तौर पर जुड़े राष्ट्रों में मंदी की आहट सुनाई पड़ी थी। उसके बाद अमेरिका ने अपने बैंको के डूबने के सिलसिले को रोकने के लिए और बाजार में मांग बढ़ाने के लिए राहत पैकेजों की घोषणाएं की थीं। इन राहत पैकेजों के माध्यम से जब तक अर्थव्यवस्था संभलती उससे पहले ही कर्ज संकट ने एक बार फिर अमेरिकी व्यवस्था को हिला दिया।

बाजार में मांग कम होने के कारण अमेरिकी कंपनियां वहां के श्रमिकों को अधिक वेतन पर रखने की बजाय एशियाई मूल के लोगों को रोजगार दे रही हैं। जिससे उनके उत्पादों में लगने वाले लागत मूल्य में कमी आ जाती है। हालांकि राष्ट्रपति ओबामा ने आउटसोर्सिंग पर रोक लगाने का ऐलान किया था, परंतु कंपनियों के दबाव के कारण उनको अपने रवैये में बदलाव करना पड़ा। जिसके परिणामस्वरूप अमेरिकी नागरिकों की बेरोजगारी का प्रतिशत एक बार फिर बढ़ गया। बाजार में मंदी और आउटसोर्सिंग ने अमेरिकी नागरिकों के सामने दोहरी समस्या खड़ी कर दी है।

अमेरिका में आने वाली कोई भी समस्या विश्व भर की समस्या बन जाती है और अमेरिका की कामयाबी को भी वैश्विक सफलता के रूप में प्रचारित किया जाता है। इसका कारण यह है कि विश्व की अर्थव्यवस्था डॉलर आधारित अर्थव्यवस्था है, ऐसे में अमेरिका से व्यापारिक तौर पर जुड़े देशों पर इसका प्रभाव पड़ना लाजिमी है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आ रहा ठहराव हमारे सामने भी कुछ प्रश्न खड़े करता है। जिनमें से प्रमुख हैं-

- क्या उपभोक्ता आधारित संस्कृति के भरोसे भारत एक मजबूत और स्थिर महाशक्ति बन सकता है?

- क्या जीडीपी हमारी आर्थिक संवृद्धि को मापने का सही पैमाना है?

- सबसे बड़ा प्रश्न इस आर्थिक मॉडल के तहत है, आय का असमान वितरण। गरीब और अमीर के बीच चौड़ी होती खाई, और चंद लोगों की उन्नति होने से क्या कोई राष्ट्र विकसित राष्ट्र हो सकता है?

ऐसे कुछ सवालों के जवाब हमें तलाशने चाहिए और अपनी आर्थिक नीतियों की एक बार फिर से समीक्षा करनी चाहिए। जिस अमेरिकी मॉडल का अनुकरण करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं, वह अमेरिका में ही सफल नहीं हो पाया है। ऐसे में अमेरिकी मॉडल के अंधानुकरण करने की नीतियों की एक बार हमें समीक्षा करते हुए, इन आंदोलनों से सबक लेना चाहिए।

Monday, October 17, 2011

मिशनरी पत्रकार थे महात्मा गांधी

भारत में पत्रकारिता का प्रादुर्भाव पुनर्जागरण के समय में हुआ था। यही वह समय था जब भारत की राष्ट्रीय चेतना जागृत हो रही थी। राष्ट्र की चेतना को जागृत करने वाले सभी प्रमुख लोगों ने इस कार्य के लिए पत्रकारिता को अपना सशक्त माध्यम बनाया। पत्रकारिता उस दौर में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध जनमत निर्माण के माध्यम के रूप में सामने आई थी। इस माध्यम का उपयोग स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नायक महात्मा गांधी ने भी किया था। 2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के पोरबंदर में जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी ने स्वाधीनता आंदोलन को पत्रकारिता के माध्यम से मजबूती प्रदान की। महात्मा गांधी ने अपनी पत्रकारिता की शुरूआत सन 1888 में लंदन से ही कर दी थी। गांधी जी ने पत्रकारिता का उपयोग दो प्रकार से किया- इंग्लैण्ड में प्रवास काल (जुलाई, 1888-जून,1891) तथा दक्षिण अफ्रीका में देशी-विदेशी समाचारपत्रों के माध्यम से गांधी ने अपने कार्यों एवं विचारों को पाठकों तक पहुंचाने का कार्य किया और उन्हें वहां के समाचारपत्रों में विशेष स्थान मिलता गया। गांधी जी ने पत्रकारिता के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक में भारत और भारतीयों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई। सन् 1888 से 1896 तक का समय गांधी जी के पत्रकारिता के संपर्क में आने का समय कहा जा सकता है।

महात्मा गांधी जब सन् 1888 में लंदन पहुंचे तब तक वे समाचारपत्रों की दुनिया से अधिक परिचित नहीं थे, दलपतराम शुक्ल के सुझाव पर उन्होंने प्रतिदिन एक घंटे का समय विभिन्न अखबारों को पढ़ने में लगाना शुरू किया। तब उनके मन में यह विचार आया भी न होगा कि वे एक दिन समाचार पत्रों की दुनिया के महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में स्थापित होंगे। गांधी जी अपनी माता के प्रभाव के कारण अन्नाहारी थे, वे इंग्लैण्ड में अन्नाहार आंदोलन से भी जुड़े रहे थे। अन्नाहार को लेकर गांधी जी ने ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अखबार ‘‘वेजिटेरियन‘‘ में लेख लिखना शुरू किया। ब्रिटेन के बाद दक्षिण अफ्रीका पहुंचने पर महात्मा गांधी ने ‘‘इंडियन ओपीनियन‘‘ समाचार पत्र का संपादन किया। उन्होंने इंडियन ओपीनियन के माध्यम से दक्षिण अफ्रीकी और भारतीय लोगों को ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति जागृत करने का कार्य किया। ‘‘इंडियन ओपीनियन‘‘ का प्रथम अंक 4 जून, 1903 को निकला, जिसमें महात्मा गांधी ने पत्रकारिता के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए लिखा-

1- ‘‘पत्रकारिता का पहला काम जनभावनाओं को समझना और उन्हें अभिव्यक्ति देना है।
2- ‘‘पत्रकारिता का दूसरा उद्देश्य लोगों में जरूरी भावनाओं को जागृत करना है।
3- ‘‘पत्रकारिता का तीसरा उद्देश्य निर्भीक तरीके से गड़बड़ियों को उजागर करना है।
गाँधी जी ने आर्थिक समस्या और सरकारी दबाव के बाद भी इंडियन ओपीनियन का प्रकाषन जारी रखा। गोपाल कृष्ण गोखले को 25 अप्रैल, 1909 को प्रेषित पत्र में उन्होंने लिखा-
‘‘20 अप्रैल तक ‘इंडियन ओपीनियन‘ पर 2500 पौंड का कर्ज था। पर संघर्ष की खातिर मैं उसे चलाए जा रहा हूं।‘‘

महात्मा गांधी अल्पायु में ही समाचार पत्रों के लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गए। समाचार पत्रों में लेखन के माध्यम से महात्मा गांधी समूचे दक्षिण अफ्रीका में लोकप्रिय हो गए थे। गांधी जी ने पत्रकारिता को अपने संघर्ष का सशक्त माध्यम बना लिया और पत्रकारिता जगत के आवश्यक अंग बन गए। महात्मा गांधी ने भारत लौटकर भी पत्रकारिता के अपने सफर को जारी रखा। भारत लौटने पर उन्होंने ‘‘बॉम्बे क्रॉनिकल‘‘ और सत्याग्रही समाचार पत्र निकाले, किंतु वे 10-15 दिनों तक ही इनका दायित्व संभाल सके। इन समाचार पत्रों के बंद होने के बाद महात्मा गांधी ने ‘‘नवजीवन‘‘ और ‘‘यंग इंडिया‘‘ दो समाचार पत्र सितंबर 1919 में निकाले, जिनका प्रकाशन सन् 1932 में गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद बंद हो गए। इसके बाद भी महात्मा गांधी के पत्रकार जीवन की यात्रा जारी रही। जेल से छूटने के पश्चात् गांधी जी ने ‘‘हरिजन‘‘ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र निकाला, जिसका प्रकाशन 11 फरवरी, 1933 से प्रारंभ होकर महात्मा गांधी के जीवन-पर्यंत तक जारी रहा। गांधी जी के अपने समाचार पत्रों का प्रकाशन कई बार बंद करना पड़ा, लेकिन वे ब्रिटिश सरकार की कुटिल नीतियों के आगे न कभी झुके, न थके। गिरफ्तारी और सेंसरशिप लगने से उनके पत्र बंद अवश्य हुए, लेकिन मौका मिलते ही गांधी जी पुनः पत्रों के प्रकाशन के कार्य में जुट जाते थे। गांधी जी ने कई दशकों तक पत्रकार के रूप में कार्य किया, कई समाचारपत्रों का संपादन किया। महात्मा गांधी ने उस समय में जब भारत में पत्रकारिता अपने शैशव काल में थी, उन्होंने पत्रकारिता की नैतिक अवधारणा प्रस्तुत की। महात्मा गांधी ने जिन समाचार पत्रों का प्रकाशन अथवा संपादन किया वे पत्र अपने समय में सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रों में माने गए। गांधी जी के पत्रकारिता की प्रशंसा करते हुए चेलापतिराव ने कहा कि- ‘‘गांधी जी शायद सबसे महान पत्रकार हुए हैं और उन्होंने जिन साप्ताहिकों को चलाया और संपादित किया वे संभवतः संसार के सर्वश्रेष्ठ साप्ताहिक हैं।‘‘

महात्मा गांधी समाचार पत्रों को किसी भी आंदोलन अथवा सत्याग्रह का आधार मानते थे, उन्होंने कहा था- ‘‘मेरा ख्याल है कि ऐसी कोई भी लड़ाई जिसका आधार आत्मबल हो, अखबार की सहायता के बिना नहीं चलायी जा सकती। अगर मैंने अखबार निकालकर दक्षिण अफ्रीका में बसी हुई भारतीय जमात को उसकी स्थिति न समझाई होती और सारी दुनिया में फैले हुए भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका में कया कुछ हो रहा है, इसे इंडियन ओपीनियन के सहारे अवगत न कराया होता तो मैं अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता था। इस तरह मुझे भरोसा हो गया है कि अहिंसक उपायों से सत्य की विजय के लिए अखबार एक बहुत ही महत्वपूर्ण और अनिवार्य साधन है।‘‘
महात्मा गांधी ने पत्रकारिता के माध्यम से सूचना ही नहीं बल्कि जनशिक्षण और जनमत निर्माण का भी कार्य किया। गांधी जी की पत्रकारिता पराधीन भारत की आवाज थी, उन्होंने समाचार पत्रों के माध्यम से अपनी आवाज को जन-जन तक पहुंचाया और अंग्रेजों के विरूद्ध जनजागरण का कार्य किया।

समाचार पत्र सर्व-साधारण के लिए नहीं रहे- गणेश शंकर विद्यार्थी

पत्रकारिता और बाजार वर्तमान समय में एक दूसरे के पूरक जान पड़ते हैं। मीडिया उन्हीं घटनाओं और मुद्दों को कवर करता है, जिनका मीडिया के बाजार से सरोकार होता है। देश व समाज की मूल समस्याओं से मीडिया अपना जुड़ाव महसूस नहीं करता है, बल्कि वह उन बातों को अधिक तवज्जो देता है जो उसके मध्यमवर्गीय उपभोक्ता वर्ग का मनोरंजन कर सकें। इसका कारण यह है कि मध्यम वर्गीय उपभोक्ता वर्ग को अपने बाजार हित के लिए साधना ही मीडिया का उद्देश्य बन गया है। मीडिया कारोबारी अब समाचार चैनलों और पत्रों का प्रयोग जनचेतना अथवा जनशिक्षण के लिए नहीं बल्कि अपने आर्थिक हित के लिए करने लगे हैं। इस प्रसंग में पत्रकार प्रवर गणेश शंकर विद्यार्थी जी की निम्न पंक्तियां दृष्टव्य हैं-

‘‘यहां भी अब बहुत से समाचार पत्र सर्व-साधारण के लिए नहीं रहे, सर्वसाधारण उनके प्रयोग की वस्तु बनते जा रहे हैं। एक समय था, इस देश में साधारण आदमी सर्व-साधारण के हितार्थ एक ऊंचा भाव लेकर पत्र निकालता था, और उस पत्र को जीवन क्षेत्र में स्थान मिल जाया करता था। आज वैसा नहीं हो सकता। इस देश में भी समाचार पत्रों का आधार धन हो रहा है। धन से ही वे निकलते हैं और धन ही के आधार पर वे चलते हैं और बड़ी वेदना के साथ कहना पड़ता है कि उनमें काम करने वाले बहुत से पत्रकार भी धन ही की अभ्यर्थना करते हैं। अभी यहां पूरा अंधकार नहीं हुआ है, किंतु लक्षण वैसे ही हैं: कुछ ही समय पश्चात यहां के समाचार पत्र भी मशीन के सदृश हो जाएंगे, और उनमें काम करने वाले पत्रकार केवल मशीन के पुर्जे/व्यक्तित्व न रहेगा, सत्य और असत्य का अंतर न रहेगा, अन्याय के विरूद्ध डट जाने और न्याय के लिए आफतों को बुलाने की चाह न रहेगी, रह जाएगा केवल खिंची हुई लकीर पर चलना। ऐसे बड़े होने की अपेक्षा छोटे और छोटे से भी छोटे, किंतु कुछ सिद्धांतों वाला होना कहीं अच्छा।‘‘

गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकार को सत्य का पहरूआ मानते थे। उनके अनुसार सत्य प्रकाशित करना और उसे उजागर करना ही पत्रकार का धर्म होता है। उन्होंने कहा था-

‘‘मैं पत्रकार को सत्य का प्रहरी मानता हूं-सत्य को प्रकाशित करने के लिए वह मोमबत्ती की भांति जलता है। सत्य के साथ उसका वही नाता है जो एक पतिव्रता नारी का पति के साथ रहता है। पतिव्रता पति के शव साथ शहीद हो जाती है और पत्रकार सत्य के शव के साथ।‘‘
पत्रकार शिरोमणि गणेश शंकर विद्यार्थी ने पत्रकारिता को समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए कार्य करने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि-
‘‘समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परम उद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति समझते हैं।‘‘

पत्रकारिता के इस दौर में पत्रों एवं समाचार चैनलों पर यह आरोप आम हो चुका है कि मीडिया पाठकों एवं दर्शकों की रूचि का नहीं बल्कि बाजार का ख्याल रखता है। विद्यार्थी जी के जीवनी लेखक देवव्रत शास्त्री ने उनकी पंक्तियों को दोहराते हुए लिखा है-
‘‘हमारे पाठक कैसे हैं, उन्हें कैसी पाठ्य सामग्री पसंद है, कैसी सामग्री उनके लिए फायदेमंद है। इस बात का ख्याल अधिकतर पत्र वाले नहीं रखते, परंतु प्रताप में इसका ख्याल रखा जाता था। विद्यार्थी जी सदा अपने सहकारियों को इसके लिए समझाते थे। वे इस बात का भी बहुत ख्याल रखते थे कि पाठकों की रूचि के अनुसार पाठ्य सामग्री तो जरूर दी जाए, परंतु कुरूचिपूर्ण न हो।‘‘

विद्यार्थी जी युवा पत्रकारों के लिए उनके शिक्षक के समान थे, उनके संपर्क में आकर बहुत से पत्रकारों ने पत्रकारिता में अग्रणी स्थान प्राप्त किया। वे उन्हें भली-भांति समझाते थे, एक बार वे कार्यालय में आए और अखबार उठाते हुए पूछने लगे ‘‘कोई नई बात है? यह उत्तर मिलने पर कि अभी देखा नहीं, कहने लगे, कैसे जर्नलिस्ट हो तुम लोग? नया पत्र आकर रखा हुआ है और उसी दम उठाकर देखने की इच्छा नहीं हुई?‘‘ विद्यार्थी जी की फटकार सुनकर सभी अपना सिर नीचा कर लेते।

गणेश विद्यार्थी ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से हिंदी को भी नए तेवर देने का कार्य किया। उनका पत्र ‘‘प्रताप‘‘ तत्कालीन समय का लोकप्रिय पत्र था, वे हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए सदा चिंतित रहे। हिंदी को वे जन-जन की भाषा बनाने का स्वप्न देखते थे। अखिल भारतीय हिन्दी सम्मेलन, गोरखपुर (1929) के अध्यक्षीय भाषण में गणेश जी ने कहा-

‘‘हिन्दी के प्रचार का सबसे बड़ा साधन है हिन्दी प्रांतों में लोक शिक्षा को आवश्यक और अनिवार्य बना देना। कोई ऐसा घर न रहे, जिसके नर नारी, बच्चे बूढ़े तक तुलसीकृत रामायण, साधारण पुस्तकें और समाचार पत्र न पढ़ सकें। यह काम उतना कठिन नहीं है, जितना कि समझा जाता है। यदि टरकी में कमाल पासा बूढ़ों और बच्चों तक को साक्षर कर सकते हैं और सोवियत शासन दस वर्षों के भीतर रूस में अविद्या का दीवाला निकाल सकता है, तो इस देश में सारी शक्तियां जुटकर बहुत थोड़े समय में अविद्या के अंधकार का नाश कर प्रत्येक व्यक्ति को पढ़ने और लिखने योग्य बना सकती है।"

गणेश शंकर विद्यार्थी सदा पत्रकारिता के कार्य में एक मोमबत्ती की भांति जलते रहे। उनका जीवन पूर्णतया पत्रकारिता को समर्पित था। विद्यार्थी जी एक पत्रकार ही नहीं क्रांतिकारियों के प्रबल समर्थक थे, वे क्रांतिकारियों को लेकर गांधी जी की आलोचना को भी पसंद नहीं करते थे। उनकी पत्रकारिता पूर्णतया भारत की स्वतंत्रता के ध्येय को लेकर समर्पित थी जिससे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। वर्तमान समय में जब पत्रकारिता अपने उद्देश्यों से भटक गई है, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे ध्येय समर्पित पत्रकार हमारे लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। जिनका हमें पत्रकारिता के नैतिक पथ पर चलते हुए स्मरण अवश्य करना चाहिए।

Monday, October 10, 2011

निरस्त्रीकरण के झंडाबरदार, बेच रहे हथियार


विश्व भर में चल रही हथियार बाजार की बहस और घोषणाओं के बीच हथियार बाजार भी बहुत तेजी से अपने पैर पसार रहा है। हथियारों के इस वैश्विक बाजार के संचालक भी वही देश हैं जो निरस्त्रीकरण अभियान के झंडाबरदार हैं। इन देशों में अमेरिका, रूस आदि प्रमुख हैं जो वैश्विक स्तर पर हथियार बेचने का कार्य करते हैं। ‘‘स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च ग्रुप‘‘ के अनुसार विश्व का हथियार उद्योग डेढ़ खरब डॉलर का है और विश्व का तीसरा सबसे भ्रष्टतम उद्योग है। जिसने हथियारों की होड़ को तो बढ़ाया ही है, हथियार माफियाओं और दलालों की प्रजाति को भी जन्म दिया है। विश्व का बढ़ता हथियार बाजार वैश्विक जीडीपी के 2.7 प्रतिशत के बराबर हो गया है। हथियारों के इस वैश्विक बाजार में 90 प्रतिशत हिस्सेदारी पश्चिमी देशों की है, जिसमें 50 प्रतिशत हथियार बाजार पर अमेरिका का कब्जा है।

अमेरिका की तीन प्रमुख कंपनियों का हथियार बाजार पर प्रमुख रूप से कब्जा है- बोइंग, रेथ्योन, लॉकहीड मार्टिन। यह भी एक तथ्य है कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इराक और कश्मीर आदि के मामलों में अमेरिकी नीतियों पर इन कंपनियों का भी व्यापक प्रभाव रहता है। भारत के संबंध में यदि बात की जाए तो सन् 1998 में परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने भारत को हथियारों को आपूर्ति करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। जिसे अमेरिका की बुश सरकार ने 2001 में स्वयं हटा लिया था, जिसके बाद भारत में हथियारों का आयात तेजी से बढ़ा। पिछले पांच वर्षों की यदि बात की जाए तो भारत में हथियारों का आयात 21 गुना और पाक में 128 गुना बढ़ गया है।

भारत-पाकिस्तान के बीच हथियारों की इस होड़ में यदि किसी का लाभ हुआ है, तो अमेरिका और अन्य देशों की हथियार निर्माता कंपनियों का। दरअसल अमेरिका की हथियार बेचने की नीति अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति वुडरो विल्सन के ‘‘गन और बटर‘‘ के सिद्धांत पर आधारित है। गरीब देशों को आपस में लड़ाकर उनको हथियार बेचने की कला को विल्सन ने ‘‘गन और बटर‘‘ सिद्धांत नाम दिया था, जिसका अर्थ है आपसी खौफ दिखाकर हथियारों की आपूर्ति करना। भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में भी अमेरिका ने इसी नीति के तहत अपने हथियार कारोबार को लगातार बढ़ाने का कार्य किया है। हाल ही में अरब के देशों में सरकार विरोधी प्रदर्शनों और संघर्ष के दौरान भी अमेरिकी हथियार पाए गए हैं, हथियारों के बाजार में चीन भी अब घुसपैठ करना चाहता है।

हथियारों के प्रमुख आपूर्तिकर्ता देशों का लक्ष्य किसी तरह भारत के बाजार पर पकड़ बनाना है। जिसमें उनको कामयाबी भी मिली है, जिसकी तस्दीक अमेरिकी कांग्रेस की एक रिपोर्ट भी करती है। अमेरिकी कांग्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक सन 2010 में विकासशील देशों में भारत हथियारों की खरीदारी की सूची में शीर्ष पर है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने 5.8 अरब डॉलर (लगभग 286.92 रूपये) के हथियार खरीदे हैं। इस सूची में ताइवान दूसरे स्थान पर है, जिसने 2.7 डॉलर (लगभग 133.57 अरब रूपये) के हथियार खरीदे हैं। ताइवान के बाद सऊदी अरब और पाकिस्तान क्रमशः तीसरे और चौथे स्थान पर हैं।

अमेरिकी कांग्रेस की रिपोर्ट के अनुसार भारत के हथियार बाजार पर अब भी रूस का वर्चस्व कायम है, लेकिन अमेरिका, इजरायल और फ्रांस ने भी भारत को अत्याधुनिक तकनीक के हथियारों की आपूर्ति की है। रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में हथियारों की आपूर्ति के मामले में अमेरिका पहले और रूस दूसरे स्थान पर कायम है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अमेरिका दक्षिण एशिया में हथियारों की बढ़ती आपूर्ति के प्रति चिंतित है, कैसी विडंबना है कि हथियारों की आपूर्ति भी की जा रही है और चिंता भी जताई जा रही है। अमेरिकी कांग्रेस की यह रिपोर्ट अमेरिकी नीतियों के दोमुंहेपन को उजागर करती है।

हथियारों के बाजार से संबंधित यह आंकड़े विकासशील देशों के लिए एक सबक हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि विकसित देश आतंक के खिलाफ जंग के नाम पर और शक्ति संतुलन साधने के नाम पर अपने बाजारू हितों की पूर्ति करने का कार्य कर रहे हैं। तीसरी दुनिया के वह देश जो भुखमरी और गरीबी से जंग लड़ने में भी असफल हैं, उन देशों में विकसित देशों के पुराने हथियारों को खपाने से क्या उन देशों को विकास की राह मिल सकती है?

भारत के संदर्भ में यदि देखा जाए तो हम आज भी विकसित देशों के पुराने हथियारों को अधिक दामों पर खरीद रहे हैं। इससे सबक लेते हुए हमें अपने बजट को तय करते समय अपने रक्षा अनुसंधान विभाग को भी पर्याप्त बजट मुहैया कराना होगा, ताकि हम रक्षा प्रणाली के माध्यम में आत्मनिर्भर हो सकें। जिससे भारत की सीमा और संप्रभुता की रक्षा हम स्वदेश निर्मित हथियारों से कर सकें।

Monday, October 3, 2011

परमाणु संयंत्रों का बढ़ता विरोध



परमाणु ऊर्जा के खतरे को सरकार भले नजरंदाज करे, लेकिन फुकुशिमा की घटना के बाद जनता में परमाणु संयंत्रों को लेकर संशय बढ़ता जा रहा है। यही कारण है कि देशभर में परमाणु संयंत्रों को लगाने का विरोध हो रहा है। परमाणु संयंत्रों को उन सभी जगहों पर विरोध का सामना करना पड़ा है, जहां वे प्रस्तावित हैं या लगने की प्रक्रिया में हैं। जैतापुर, हरियाणा के फतेहाबाद, मध्य प्रदेश के चुटका, गुजरात के भावनगर और आंध्र के कोवाडा में परमाणु संयंत्र लगाए जाने का व्यापक विरोध हुआ है। विरोध प्रदर्शनों की इसी श्रृंखला में परमाणु संयंत्रों का एक बार फिर विरोध स्थल बना है, तमिलनाडु का कूडनकुलम।

कूडनकुलम में परमाणु परियोजना की शुरुआत 80 के दशक में हुई थी, इस परियोजना को लेकर उसी समय स्थानीय लोगों ने अपना विरोध दर्ज कराया था। जिसे सरकार ने नजरंदाज करने का प्रयास किया था, परिणामस्वरूप सन 1989 में प्रभावित क्षेत्र के दस हजार मछुआरों ने कन्याकुमारी में प्रदर्शन किया था। सोवियत रूस के विघटन के बाद ऐसा लगा कि यह परियोजना सफल नहीं हो पाएगी, परंतु सन 1998 में इसको फिर से शुरू किया गया और विरोध प्रदर्शनों की भी एक बार फिर शुरुआत हो गई। इस परियोजना को लेकर स्थानीय निवासियों का विरोध सन 1998 से अनवरत जारी है।

कूडनकुलम में लगने वाले बिजलीघर के विरोध में आंदोलन की धार एक बार फिर तेज हो गई है। सितंबर माह में इस आंदोलन ने एक बार फिर जोर पकड़ा, 125 लोग 12 दिनों तक भूख हड़ताल पर बैठे रहे और उनके समर्थन में 15 हजार से अधिक लोग जुटे। इस आंदोलन के दबाव के कारण ही मुख्यमंत्री जयललिता को प्रधानमंत्री से ‘लोगों की आशंकाओं के निवारण‘ तक इस परियोजना को रोकने की मांग करनी पड़ी है। गौरतलब है कि इससे पहले मुख्यमंत्री जयललिता ने भी इस परियोजना को पूर्णतया सुरक्षित और आंदोलनकारियों को भ्रमित बताया था।

कूडनकुलम परियोजना को लेकर आशंकाएं भी कम नहीं हैं। रूस की मदद से लगने वाले परमाणु बिजलीघर को लेकर कई बडे़ सवाल खड़े होते हैं, जिनके जवाब देने से सरकार भी कतरा रही है। इनमें से प्रमुख सवाल निम्नलिखित हैं-

- रूसी सरकार का कहना है कि भारत की संसद में पारित परमाणु दायित्व विधेयक के अंतर्गत कूडनकुलम परियोजना नहीं आती है, क्योंकि भारत सरकार ने सन 2008 में हुए एक गुप्त समझौते के अंतर्गत उसे दायित्व मुक्त रखा है। ऐसे में सवाल उठता है कि किसी भी संभावित खतरे का जिम्मेदार यदि रूस नहीं होगा तो कौन होगा ?

- रूस के परमाणु विभाग ने अपनी सरकार को परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा को लेकर एक रिपोर्ट सौंपी है। इस रिपोर्ट में परमाणु विभाग ने रूस द्वारा तैयार परमाणु संयंत्रों को फुकुशिमा जैसी आपदाओं से निपटने में असफल बताया है। परमाणु विभाग ने परमाणु संयंत्रों में कुल 31 खमियां बताई हैं।

- फुकुशिमा की घटना के बाद सरकार ने परमाणु सुरक्षा संयंत्रों की निगरानी को लेकर एक सुरक्षा नियमन इकाई का गठन किया है। सरकार का यह कदम लोगों की आशंकाओं को दूर करने के लिए नहीं बल्कि उनको तात्कालिक सांत्वना देने भर के लिए है। ताकि परमाणु कंपनियों के मुनाफे पर आंच न आने पाए।

- फुकुशिमा की घटना से भारत को भी सबक लेना चाहिए था। जबकि परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अग्रणी देशों जैसे स्वीडन, जर्मनी, स्विट्जरलैंड जैसे देशों ने अपनी आगामी परमाणु योजनाओं से हाथ खींच लिया है। जर्मनी ने तो सन् 2025 तक परमाणु ऊर्जा मुक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य तय किया है। उल्लेखनीय है कि भारत के पास जर्मनी की तुलना में सौर ऊर्जा प्राप्त करने की अधिक संभावनाएं हैं, क्योंकि जर्मनी का मौसम सर्द है जबकि भारत में सौर ऊर्जा की उपलब्धता की समस्या नहीं है। जरूरत है तो केवल सौर ऊर्जा प्राप्त करने के साधन विकसित करने की।

- कूडनकुलम जैसी परियोजनाओं से उत्पन्न होने वाली प्रमुख समस्या स्थानीय निवासियों के विस्थापन की है। परमाणु परियोजनाओं को लगाने के पीछे तर्क दिया जाता है कि इन परियोजनाओं को सघन आबादी वाले इलाके में न लगाया जाए। कूडनकुलम परियोजना में इस तथ्य को पूरी तरह से नजरंदाज किया गया है, गौरतलब है कि कूडनकुलम दस लाख की सघन आबादी वाला इलाका है।

ऐसे कई सवाल और समस्याएं हैं, जो इन परमाणु बिजली परियोजनाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। केवल 3 प्रतिशत बिजली आपूर्ति देने वाली बेहद खर्चीली परमाणु योजनाएं देश के हित में योगदान कर पाएंगी, इस पर भी संशय है। ऐसे में परमाणु परियोजनाओं के विरूद्ध जारी जनसंघर्ष अपनी लड़ाई लड़ने के साथ ही सरकार की नीतियों को आईना दिखाने का कार्य भी कर रहे हैं। अंततः केन्द्र और प्रदेश सरकारों को भी अपना दमनकारी रवैया छोड़कर जनहित में अपनी इन घातक परियोजनाओं पर पुर्नविचार करते हुए ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों की ओर बढ़ना चाहिए।