Monday, October 3, 2011

परमाणु संयंत्रों का बढ़ता विरोध



परमाणु ऊर्जा के खतरे को सरकार भले नजरंदाज करे, लेकिन फुकुशिमा की घटना के बाद जनता में परमाणु संयंत्रों को लेकर संशय बढ़ता जा रहा है। यही कारण है कि देशभर में परमाणु संयंत्रों को लगाने का विरोध हो रहा है। परमाणु संयंत्रों को उन सभी जगहों पर विरोध का सामना करना पड़ा है, जहां वे प्रस्तावित हैं या लगने की प्रक्रिया में हैं। जैतापुर, हरियाणा के फतेहाबाद, मध्य प्रदेश के चुटका, गुजरात के भावनगर और आंध्र के कोवाडा में परमाणु संयंत्र लगाए जाने का व्यापक विरोध हुआ है। विरोध प्रदर्शनों की इसी श्रृंखला में परमाणु संयंत्रों का एक बार फिर विरोध स्थल बना है, तमिलनाडु का कूडनकुलम।

कूडनकुलम में परमाणु परियोजना की शुरुआत 80 के दशक में हुई थी, इस परियोजना को लेकर उसी समय स्थानीय लोगों ने अपना विरोध दर्ज कराया था। जिसे सरकार ने नजरंदाज करने का प्रयास किया था, परिणामस्वरूप सन 1989 में प्रभावित क्षेत्र के दस हजार मछुआरों ने कन्याकुमारी में प्रदर्शन किया था। सोवियत रूस के विघटन के बाद ऐसा लगा कि यह परियोजना सफल नहीं हो पाएगी, परंतु सन 1998 में इसको फिर से शुरू किया गया और विरोध प्रदर्शनों की भी एक बार फिर शुरुआत हो गई। इस परियोजना को लेकर स्थानीय निवासियों का विरोध सन 1998 से अनवरत जारी है।

कूडनकुलम में लगने वाले बिजलीघर के विरोध में आंदोलन की धार एक बार फिर तेज हो गई है। सितंबर माह में इस आंदोलन ने एक बार फिर जोर पकड़ा, 125 लोग 12 दिनों तक भूख हड़ताल पर बैठे रहे और उनके समर्थन में 15 हजार से अधिक लोग जुटे। इस आंदोलन के दबाव के कारण ही मुख्यमंत्री जयललिता को प्रधानमंत्री से ‘लोगों की आशंकाओं के निवारण‘ तक इस परियोजना को रोकने की मांग करनी पड़ी है। गौरतलब है कि इससे पहले मुख्यमंत्री जयललिता ने भी इस परियोजना को पूर्णतया सुरक्षित और आंदोलनकारियों को भ्रमित बताया था।

कूडनकुलम परियोजना को लेकर आशंकाएं भी कम नहीं हैं। रूस की मदद से लगने वाले परमाणु बिजलीघर को लेकर कई बडे़ सवाल खड़े होते हैं, जिनके जवाब देने से सरकार भी कतरा रही है। इनमें से प्रमुख सवाल निम्नलिखित हैं-

- रूसी सरकार का कहना है कि भारत की संसद में पारित परमाणु दायित्व विधेयक के अंतर्गत कूडनकुलम परियोजना नहीं आती है, क्योंकि भारत सरकार ने सन 2008 में हुए एक गुप्त समझौते के अंतर्गत उसे दायित्व मुक्त रखा है। ऐसे में सवाल उठता है कि किसी भी संभावित खतरे का जिम्मेदार यदि रूस नहीं होगा तो कौन होगा ?

- रूस के परमाणु विभाग ने अपनी सरकार को परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा को लेकर एक रिपोर्ट सौंपी है। इस रिपोर्ट में परमाणु विभाग ने रूस द्वारा तैयार परमाणु संयंत्रों को फुकुशिमा जैसी आपदाओं से निपटने में असफल बताया है। परमाणु विभाग ने परमाणु संयंत्रों में कुल 31 खमियां बताई हैं।

- फुकुशिमा की घटना के बाद सरकार ने परमाणु सुरक्षा संयंत्रों की निगरानी को लेकर एक सुरक्षा नियमन इकाई का गठन किया है। सरकार का यह कदम लोगों की आशंकाओं को दूर करने के लिए नहीं बल्कि उनको तात्कालिक सांत्वना देने भर के लिए है। ताकि परमाणु कंपनियों के मुनाफे पर आंच न आने पाए।

- फुकुशिमा की घटना से भारत को भी सबक लेना चाहिए था। जबकि परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अग्रणी देशों जैसे स्वीडन, जर्मनी, स्विट्जरलैंड जैसे देशों ने अपनी आगामी परमाणु योजनाओं से हाथ खींच लिया है। जर्मनी ने तो सन् 2025 तक परमाणु ऊर्जा मुक्त बिजली उत्पादन का लक्ष्य तय किया है। उल्लेखनीय है कि भारत के पास जर्मनी की तुलना में सौर ऊर्जा प्राप्त करने की अधिक संभावनाएं हैं, क्योंकि जर्मनी का मौसम सर्द है जबकि भारत में सौर ऊर्जा की उपलब्धता की समस्या नहीं है। जरूरत है तो केवल सौर ऊर्जा प्राप्त करने के साधन विकसित करने की।

- कूडनकुलम जैसी परियोजनाओं से उत्पन्न होने वाली प्रमुख समस्या स्थानीय निवासियों के विस्थापन की है। परमाणु परियोजनाओं को लगाने के पीछे तर्क दिया जाता है कि इन परियोजनाओं को सघन आबादी वाले इलाके में न लगाया जाए। कूडनकुलम परियोजना में इस तथ्य को पूरी तरह से नजरंदाज किया गया है, गौरतलब है कि कूडनकुलम दस लाख की सघन आबादी वाला इलाका है।

ऐसे कई सवाल और समस्याएं हैं, जो इन परमाणु बिजली परियोजनाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। केवल 3 प्रतिशत बिजली आपूर्ति देने वाली बेहद खर्चीली परमाणु योजनाएं देश के हित में योगदान कर पाएंगी, इस पर भी संशय है। ऐसे में परमाणु परियोजनाओं के विरूद्ध जारी जनसंघर्ष अपनी लड़ाई लड़ने के साथ ही सरकार की नीतियों को आईना दिखाने का कार्य भी कर रहे हैं। अंततः केन्द्र और प्रदेश सरकारों को भी अपना दमनकारी रवैया छोड़कर जनहित में अपनी इन घातक परियोजनाओं पर पुर्नविचार करते हुए ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों की ओर बढ़ना चाहिए।

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