Tuesday, November 29, 2011

एफडीआई बढ़ाने का आत्मघाती कदम

भारत विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। भारत की युवा आबादी विश्व में सबसे अधिक है। इसी कारण से भारत में अन्य देशों के मुकाबले रोजगार सृजन की अधिक आवश्यकता है। हमारे देश में वे उद्योग जो उपयुक्त पूंजी और श्रम के माध्यम से संचालित हो सकते हैं, वे हमारी जनसंख्या को रोजगार के भी अधिक अवसर देते हैं। बजाय उन उद्योगों और व्यवसाय के जो पूर्णतया मशीनों और पूंजी पर आधारित उद्योग हैं। पूंजी और मशीन आधारित उद्योगों में श्रम शक्ति के बजाय पूंजी की प्रधानता हो जाती है।

वर्तमान में जहां यूरोपीय देशों और अमेरिका में आर्थिक मंदी का प्रभाव बढ़ रहा है, जिसका कुछ असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है। भारत सरकार ने भी देश की अनुमानित विकास दर में कमी रहने की आशंका जताई है। शायद इस आर्थिक गतिरोध से उबरने के लिए ही सरकार ने खुदरा बाजार में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश का पैंतरा चला है। सरकार अपने इस कदम से चैतरफा आलोचनाओं के घेरे में आ गई है। सरकार के सहयोगी तथा विपक्षी दलों ने इस मामले में सड़क से लेकर संसद तक आंदोलन किए जाने की चेतावनी दी है।

सवाल यह है कि क्या खुदरा बाजार में विदेशी निवेश से भारतीय अर्थव्यवस्था को गति मिल पाएगी और क्या भारत में बेरोजगारी में कमी आ पाएगी? इसका जवाब सकारात्मक नहीं मिलता है। भारत का 3,82,000 करोड़ का खुदरा बाजार जो सकल घरेलू उत्पाद में 14 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है और 8 प्रतिशत लोगों को आजीविका प्रदान करता है। इस खुदरा बाजार में यदि विदेशी निवेश को 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 51 प्रतिशत कर दिया गया तो खुदरा बाजार के वैश्विक खिलाड़ी देशी लोगों को बेरोजगारी की ओर धकेलने का कार्य करेंगे।

भारतीय खुदरा बाजार में संगठित क्षेत्र की 2 प्रतिशत हिस्सेदारी है, वहीं असंगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी 98 प्रतिशत है। असंगठित क्षेत्र में अधिकतर वही लोग कार्यरत हैं, जिन्हें संगठित क्षेत्र में रोजगार का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। इसके अलावा वे लोग जो अकुशल श्रमिक की श्रेणी में आते हैं, वे भी खुदरा बाजार में ही कार्य कर रहे हैं। रोजगार के मामले में हताश युवा कम पूंजी के माध्यम से चल सकने वाली कोई छोटी सी दुकान अथवा पान-बीड़ी खोखे के माध्यम से स्वरोजगार को अपनाता है। यही छोटा सा धंधा उसकी आजीविका का साधन बनता है, जिसे सरकार विदेशी निवेश के माध्यम से छीन लेना चाहती है।

फिक्की के अनुसार खुदरा बाजार का संगठित क्षेत्र 5 लाख लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान करता है। वहीं असंगठित क्षेत्र के माध्यम से 3.95 करोड़ लोग खुदरा बाजार में कार्यरत हैं। विदेशी निवेश का अर्थ है इतनी बड़ी आबादी का बेरोजगार हो जाना। सरकारी तर्क है कि विदेशी निवेश के बाद रोजगार के अवसरों में और बढ़ोत्तरी होगी, लेकिन वालमार्ट जैसी विशालकाय खुदरा कंपनियों का स्वभाव रोजगार सृजन का नहीं है। इन विशालकाय रिटेल स्टोरों में वही लोग कार्य कर पाएंगे जो मार्केटिंग के फॉर्मूले में प्रशिक्षित होंगे। अर्थात वहां उन अकुशल श्रमिकों के लिए कोई स्थान नहीं होगा, जो खुदरा बाजार में असंगठित क्षेत्र के माध्यम से स्वरोजगार कर रहे थे। गौरतलब है कि भारतीय खुदरा बाजार में 98 प्रतिशत हिस्सेदारी असंगठित क्षेत्र की है।

यदि असंगठित क्षेत्र में कार्यरत लोग बेकार हो जाते हैं तो उनको सरकार कहां खपाएगी इसका कोई एजेंडा सरकार के पास नहीं है। लगता है सरकार आम आदमी को खुशहाल एवं स्वरोजगार में कार्यरत नहीं देखना चाहती, बल्कि उन्हें मनरेगा का मजदूर बनाना चाहती है। विदेशी कंपनियों में कार्यरत कुछ लोग जहां बेहतर पैकेज से खुशहाल होंगे, वहीं देश का बहुजन और आमजन बेरोजगारी और गरीबी से त्रस्त। देश के आम आदमी को मनरेगा का मजदूर और विदेशी कंपनियों को मालामाल करने की आत्मघाती नीति से सरकार को अपने कदम वापस खींच लेने चाहिए।

No comments:

Post a Comment