Sunday, December 18, 2011

पत्रकारिता में मानदंडों का अभाव- सच्चिदानंद हीरानंद वात्साययन अज्ञेय

पत्रकारिता की विधा को साहित्य के अंतर्गत माना जाता है। पत्रकारिता को तात्कालिक साहित्य की भी संज्ञा दी गई है। यही कारण है कि समय-समय पर विभिन्न साहित्यकारों ने पत्रकारिता में अपना योगदान और पत्रकारों को मार्गदर्शन देने का कार्य किया। ऐसे ही व्यक्तित्व थे, सच्चिदानंद हीरानंद वात्साययन अज्ञेय जिन्होंने साहित्य और पत्रकारिता दोनों में ही समान रूप से अपना योगदान दिया। अज्ञेय ने ‘दिनमान‘ पत्रिका के संपादक के रूप में पत्रकारिता में नए मानदंड स्थापित किए। शायद यही कारण था कि अज्ञेय पत्रकारों एवं संपादकों के कार्य एवं उत्तरदायित्व को लेकर चिंतित रहे। अज्ञेय ने संपादकों की कम होती प्रतिष्ठा के लिए संपादकों को ही जिम्मेदार ठहराया था। अपनी चिंता को अज्ञेय ने इन शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा कि-

‘‘हिन्दी पत्रकारिता के आरंभ के युग में हमारे पत्रकारों की जो प्रतिष्ठा थी, वह आज नहीं है। साधारण रूप से तो यह बात कही जा सकती है, अपवाद खोजने चलें तो भी यही पावेंगे कि आज का एक भी पत्रकार या संपादक वह सम्मान नहीं पाता जो कि पचास-पचहत्तर वर्ष पहले के अधिकतर पत्रकारों को प्राप्त था। आज के संपादक पत्रकार अगर इस अंतर पर विचार करें तो स्वीकार करने को बाध्य होंगे कि वे न केवल कम सम्मान पाते हैं, बल्कि कम सम्मान के पात्र हैं- या कदाचित सम्मान के पात्र बिल्कुल नहीं हैं, जो पाते हैं पात्रता से नहीं इतर कारणों से।‘‘ (‘आत्मपरक‘ से साभार उद्धृत)

अज्ञेय ने संपादक के रूप में बहुत ख्याति प्राप्त की थी, उनके अपने निश्चित मानदंड थे, जिससे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। अज्ञेय ने अपने पत्रकार जीवन की शुरूआत ‘‘सैनिक‘‘ से की थी अज्ञेय 1 वर्ष तक ‘‘सैनिक‘‘ के संपादक मंडल में रहे। जिसके पश्चात वे ‘‘विशाल भारत‘‘ में डेढ़ वर्ष तक रहे। सन् 1947 में अज्ञेय ने साहित्यिक त्रैमासिक ‘‘प्रतीक‘‘ निकाला। इस पत्र में उन्होंने उदीयमान साहित्यकारों को स्थान दिया। अज्ञेय के उत्कृष्ट संपादन का ही परिणाम था कि ‘‘प्रतीक‘‘ का स्तर कभी गिरा नहीं। सन् 1965 में अज्ञेय जी ने साप्ताहिक ‘‘दिनमान‘‘ का संपादन आरंभ किया। यह कार्य उन्होंने उस समय में प्रारंभ किया जब उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं चल रहा था, परंतु उनका पत्रकार मन ‘‘दिनमान‘‘ को सफलता की ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए व्याकुल था। उनके संपादन में ‘‘दिनमान‘‘ ने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की। इसका कारण शायद अज्ञेय जी की संपादन नीति ही थी जिससे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उनके अपने निश्चित मानदंड थे जिन पर वे कार्य करते थे। उन्होंने संपादकों एवं पत्रकारों को भी मानदंडों पर चलने को प्रेरित किया। नीतिविहीन कार्य को ही उन्होंने पत्रकारों एवं संपादको की घटती प्रतिष्ठा का कारण बताया था। उन्होंने कहा कि-

‘‘अप्रतिष्ठा का प्रमुख कारण यह है कि उनके पास मानदंड नहीं है। वहीं हरिशचन्द्रकालीन संपादक-पत्रकार या उतनी दूर ना भी जावें तो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का समकालीन भी हमसे अच्छा था। उसके पास मानदंड थे, नैतिक आधार थे और स्पष्ट नैतिक उद्देश्य भी। उनमें से कोई ऐसे भी थे जिनके विचारों को हम दकियानूसी कहते, तो भी उनका सम्मान करने को हम बाध्य होते थे। क्योंकि स्पष्ट नैतिक आधार पाकर वे उन पर अमल भी करते थे- वे चरित्रवान थे।‘‘ (‘आत्मपरक‘ से साभार उद्धृत)

अज्ञेय जी का मानना था कि पत्रकार अथवा संपादक को केवल विचार क्षेत्र में ही बल्कि कर्म के नैतिक आधार के मामले में भी अग्रणी रहना चाहिए। भारतीय लोगों पर उन व्यक्तियों का प्रभाव अधिक पड़ा है जिन्होंने जैसा कहा वैसा ही किया। ‘‘पर उपदेष कुशल बहुतेरे‘‘ की परंपरा पर चलने वाले लोगों को भारत में अपेक्षाकृत कम ही सम्मान मिल पाया है। संपादकों एवं पत्रकारों से कर्म क्षेत्र में अग्रणी रहने का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा कि-

‘‘आज विचार क्षेत्र में हम अग्रगामी भी कहला लें, तो कर्म के नैतिक आधारों की अनुपस्थिति में निजी रूप से हम चरित्रहीन ही हैं और सम्मान के पात्र नहीं हैं।‘‘ (‘आत्मपरक‘ से साभार उद्धृत)

सच्चिदानंद हीरानंद वात्साययन अज्ञेय उन पत्रकारों में से थे जिन्होंने पत्रकारिता में साहित्य के कलेवर को स्थान दिया। उन्होंने साहित्यिक और गैर-साहित्यिक पत्रकारिता में भी सक्रिय महत्वपूर्ण योगदान दिया। हिन्दी पत्रकारिता में साहित्यिक पत्रकारिता की कम होती भूमिका के प्रति वे सदैव चिंतित रहे। उन्होंने कहा था-

‘‘हिंदी पत्रकारिता में बहुत प्रगति हुई है, परंतु साहित्यिक पत्रकारिता में उतनी नहीं हुई है।‘‘

अज्ञेय पत्रकारिता को विश्वविद्यालय से भी महत्वपूर्ण और ज्ञानपरक मानते थे। इसका एक उदाहरण है जब योगराज थानी पीएचडी करने में लगे हुए थे, तब अज्ञेय जी ने उनसे कहा कि-

‘‘पत्रकारिता का क्षेत्र विश्वविद्यालय के क्षेत्र से बड़ा है, आप पीएचडी का मोह त्यागिए और इसी क्षेत्र में आगे बढि़ए।‘‘
अज्ञेय ने पत्रकारिता और साहित्य में विभिन्न मानदंड स्थापित किए। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना द्वारा लिए गए साक्षात्कार का हवाला देना यहां प्रासंगिक होगा, जिसमें उन्होंने कहा-

‘‘मैं समझता रहा हूं कि साहित्यकार को समय-समय पर अपना महत्वपूर्ण अभिमत प्रकट करना चाहिए, परंतु अपने साहित्यिक व्यक्तित्व का ऐसा सामाजिक उपयोग होने देने में उसे दलबंदी से बचना चाहिए क्योंकि बिना इसके वह अपने निजी उत्तरदायित्व से स्खलित हो जाता है।‘‘

अज्ञेय जी वे पत्रकार थे जिन्होंने पत्रकारिता में साहित्य के सरोकारों को महत्वपूर्ण स्थान दिया। अज्ञेय ने पत्रकारिता में जो पदचिन्ह् स्थापित किए वे आज भी पत्रकार समाज के लिए मार्गदर्शन स्वरूप हैं। आज जब पत्रकारिता के आत्मावलोकन का मुद्दा एक बार फिर खड़ा हो गया है, ऐसे समय में अज्ञेय की पत्रकारिता और उनके मूल्य पत्रकारिता को नैतिक राह दिखाने का कार्य करते हैं।

Sunday, December 4, 2011

अभी न जाओ छोड़कर, दिल अभी भरा नहीं…


मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया,

हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।

जिंदादिली से जिंदगी का साथ निभाने वाले सदाबहार अभिनेता देव आनंद का जिंदगी ने साथ छोड़ दिया। सदाबहार अभिनेता, फिल्म निर्माता और निर्देशक देव आनंद का शनिवार रात लंदन में हृदय गति रूकने से निधन हो गया। वे 88 वर्ष के थे। रविवार की सुबह उनके देहांत की खबर सुनते ही बॉलीवुड और उनके प्रशंसकों के बीच शोक की लहर दौड़ गई।

पद्मभूषण और दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित देव आनंद ने अपने फिल्मी कैरियर की शुरूआत सन 1946 में प्रभात टॉकीज की फिल्म हम एक हैं से की। यह फिल्म बहुत सफल नहीं हो पाई। इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी दोस्ती अपने जमाने के सुपर स्टार गुरूदत्त से हो गई। देव साहब को फिल्मी दुनिया में कामयाबी के लिए बहुत इंतजार नहीं करना पड़ा। बॉम्बे टॉकीज की 1947 में रिलीज फिल्म जिद्दी में उन्हें मुख्य भूमिका प्राप्त हुई यह फिल्म एक सफल फिल्म साबित हुई। जिद्दी की सफलता के बाद देव साहब ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।

सन 1949 में देव आनंद ने नवकेतन के नाम से अपनी एक फिल्म कंपनी बनाई और देव साहब फिल्म निर्माता बन गए। देव आनंद साहब ने अपने मित्र गुरूदत्त का डायरेक्टर के रूप में सहयोग लिया और बाजी फिल्म बनाई जो सन 1951 में रिलीज हुई। इस फिल्म को अपार सफलता प्राप्त हुई, बाजी देव साहब के फिल्मी कैरियर में मील का पत्थर साबित हुई जिसकी सफलता ने उन्हें हिंदी सिनेमा का सुपरस्टार बना दिया।

इसके बाद उनकी कुछ और सफल फिल्में आईं जिनमें राही और आंधियां प्रमुख फिल्में थीं। इसके बाद आई टैक्सी ड्राइवर जो बहुत सफल फिल्म साबित हुई, इस फिल्म में उनके साथ मुख्य भूमिका में थीं कल्पना कार्तिक जिनसे आगे चलकर उनका विवाह हो गया। यह वह समय था जब फिल्मी दुनिया के शोमैन कहे जाने वाले राजकपूर अपने कैरियर की ऊंचाईयों पर थे। राजकपूर के सामने अपने को स्थापित कर पाना बहुत मुश्किल था, लेकिन देव आनंद ने एक अभिनेता रूप में खुद को स्थापित ही नहीं किया बल्कि सुपर स्टार बन गए।

इसके बाद उनकी लगातार कई हिट फिल्में रिलीज हुईं जैसे- मुनीम जी, सीआईडी, पेइंग गेस्ट, इंसानियत और काला पानी जिनको उस समय की सफलतम फिल्मों में शुमार किया जाता है। फिल्म काला पानी के लिए देव साहब को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाजा गया। इसके बाद उनके जीवन में उस समय की मशहूर अभिनेत्री सुरैय्या का आगमन हुआ जो देव साहब से विवाह करना चाहती थीं। सुरैय्या की दादी धार्मिक कारणों से इस रिश्ते के खिलाफ थीं, कहा जाता है कि देव साहब से शादी न हो पाने के कारण सुरैय्या आजीवन अविवाहित ही रहीं। देव साहब ने सुरैय्या और अपने रिश्ते के बारे में सन 2007 में लोकार्पित हुई अपनी आत्मकथा रोमासिंग विद लाइफ में भी स्वीकार किया है।

रंगीन फिल्मों की बात की जाए तो देव साहब की पहली रंगीन फिल्म सन 1965 में रिलीज हुई गाइड थी, जिसने सफलता के नए आयाम स्थापित किए। आर. के. नारायणन के उपन्यास पर आधारित फिल्म गाइड के बारे में कहा जाता है कि अब दुबारा गाइड कभी नहीं बन सकती, ऐसी फिल्में एक बार ही बनती हैं। इसके बाद उनकी कई सफल फिल्में आईं जो हिंदी सिनेमा की सफल फिल्मों में शुमार की जाती हैं जैसे- ज्वेल थीफ, जॉनी मेरा नाम, हरे राम हरे कृष्णा, देस परदेस आदि।

देव आनंद साहब की फिल्मों को उनके बेहतरीन संगीत की वजह से भी याद किया जाता है। उनकी सभी फिल्मों का संगीत अपने समय में हिट साबित हुआ। उनकी हिट फिल्में और बेहतरीन संगीत सदा हमारे बीच उनकी यादों के रूप में रहेगा। भारतीय सिनेमा में अभिनेता के रूप में अपनी अलग पहचान बनाने वाले सुपरस्टार अभिनेता और एक जिंदादिल इंसान देव साहब का देहांत सिनेप्रमियों को आहत करने वाला है। उनकी ही फिल्म हम दो के सदाबहार गाने के इन शब्दों के साथ देव साहब को श्रद्धांजलि।

अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं…