Sunday, September 23, 2012

न्यू-मीडिया के सामने अब भी हैं कई सवाल


न्यू-मीडिया के योगदान और उसकी संभावनाओं के बारे में पिछले कुछ दिनों में बहुत चर्चाएं हुई हैं। मीडिया के नए अवतार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सामाजिक जागरूकता में सहायक एवं मुख्यधारा की मीडिया का बेहतर विकल्प बताया जा रहा है। यह सही भी है कि न्यू-मीडिया ने नागरिक पत्रकारिता की अवधारणा को मजबूत किया एवं मीडिया को व्यक्तिगत स्तर तक पहुंचाया है। वह नागरिक जो मुख्यधारा की मीडिया के सुनियोजित समाचार-विचार सुनकर चुप लगाता था वह अब उसकी प्रतिक्रिया में अपनी बात कहने में सक्षम भी हुआ है। न्यू-मीडिया की इस देन ने पत्रकारिता जगत में पारदर्शिता एवं व्यक्तिगत भागीदारी को बढ़ाया है।

न्यू-मीडिया ने मीडिया के लोकतांत्रिकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। किंतु, स्वतंत्रता का उपयोग किसी पर हमला करने अथवा भ्रामक टिप्पणी या समाचार प्रसारित करने के लिए उपयोग हो तो खतरनाक हो जाती है। वैश्विक पहुंच, व्यक्तिगत भागीदारी एवं तीव्रता जैसे गुणों वाले न्यू-मीडिया का दुष्प्रयोग उसके गुणों जितना ही खतरनाक भी है। इसलिए न्यू-मीडिया के गुणों का लाभ उठाते हुए हमें उसके अनजान खतरों से भी सवाधान रहना चाहिए। यह सच है कि बीते कुछ वर्षों से सरकार की साख और कार्यों पर सवाल खड़े हुए हैं और इन सवालों को खड़ा करने में न्यू-मीडिया भी सहायक रहा है। किंतु, सरकारिया घोटालों को उजागर करने वाले न्यू-मीडिया में प्रसारित गलत समाचारों ने उसकी साख को भी घेरे में लाने का काम किया है।

पिछले दिनों ग्लोबल एसोसियेटिड न्यूज नामक एक फर्जी वेबसाइट ने अमिताभ बच्चन के सड़क दुर्घटना में मारे जाने की खबर प्रसारित की थी। राजेश खन्ना की मृत्यु से कई दिन पूर्व ही उनकी मृत्यु का समाचार प्रसारित किया गया था। पिछले वर्ष शशि कपूर की मृत्यु का भी फर्जी समाचार प्रसारित हुआ। जिसे लोगों ने ट्वीट और री-ट्वीट करना प्रारंभ कर दिया। प्रशंसकों ने अपने स्टार को श्रद्धांजलि देना भी प्रारंभ कर दिया। इसी प्रकार से दक्षिण अफ्रीका में पिछले वर्ष 16 जनवरी को नेल्सन मंडेला की मृत्यु की सनसनीखेज एवं भ्रामक खबर सोशल मीडिया पर तैर गई थी। इन खबरों से परेशान होकर नेल्सन मंडेला फांउडेशन ने विज्ञप्ति जारी की कि मंडेला स्वस्थ और जीवित हैं। गौरतलब है कि ऐसी ही खबर ओबामा के बारे में भी प्रसारित हुई थी।

न्यू-मीडिया पर प्रसारित भ्रामक समाचार कई बार विकट स्थिति उत्पन्न कर देते हैं। जैसे असम हिंसा के संदर्भ में हुआ। वह मुददा जो प्रदेश में ही चिंता का विषय था, वह पूरे देश के लिए त्रासदी जैसा हो गया। इसका कारण कुछ उपद्रवी अथवा सिरफिरे लोगों के द्वारा न्यू-मीडिया का दुष्प्रयोग था। न्यू-मीडिया पर इस प्रकार के दुष्प्रचार अथवा व्यक्ति विशेष की अवमानना से संबंधित मामलों में कार्रवाई करना भी कठिन है। इसका कारण फेसबुक, ट्विटर अथवा अन्य सोशल साइट्स पर बने फर्जी अकांउटस हैं। न्यू-मीडिया उस वन की तरह हो गया है जहां वन्य प्राणी स्वच्छंद विचरण करते हैं। किंतु, वह माध्यम जिसकी वैश्विक पहुंच ही उसकी बड़ी कमजोरी भी हो उसमें इस तरह के विचरण की आजादी नहीं दी जा सकती है।

पिछले दिनों ट्विटर ने प्रधानमंत्री के छह फर्जी ट्विटर खातों को बंद किया। यह एक गंभीर मामला है। प्रधानमंत्री के फर्जी खातों पर उनके फालोवर भी बहुत थे,  वे उस अकांउट पर की जाने वाली टिप्पणी को प्रधानमंत्री की टिप्पणी समझ खुश हुए होंगे। यह मामला पहचान चुराने जैसा है। किसी भी व्यक्ति की पहचान को चुराकर उसका गलत इस्तेमाल करना गैरकानूनी है। साइबर विशेषज्ञ पवन दुग्गल के मुताबिक किसी के नाम फर्जी अकांउट बनाना आईटी कानून की धारा 66 सी के तहत कानूनी अपराध है।

असम दंगों में अफवाहें फैलाने के मामले में जब विवादित अकांउट्स की जांच की गई तो अधिकतर फर्जी निकले। इस तरह के मामलों में अब तक सरकारी नीति प्रतिबंध अथवा कुछ दिनों के लिए प्रतिबंध की रही है। जो इसका सही हल नहीं है। प्रतिबंध लगाने की बात कहते ही वह अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाम कसने जैसा लगता है। न्यू-मीडिया के सही उपयोग एवं संभावित खतरों से बचने के लिए यह अनिवार्य है कि कोई भी अकांउट बिना प्रामाणिक जानकारी के न खुले। पहचान निश्चित होने के बाद भी कोई विवादित टिप्पणी अथवा चित्र पोस्ट करे, ऐसा मुश्किल ही होगा। साथ ही ऐसी टिप्पणियां करने वालों की पहचान कर कार्रवाई करना बहुत आसान हो जाएगा। ट्विटर, फेसबुक अथवा अन्य सोशल साइटों से जब भी विवादित सामग्री हटाने को कहा गया तो अपने जवाब में उन्होंने इस प्रकार की कार्रवाई को मुश्किल बताया। इसका कारण यह भी है कि इनका सर्वर यहां न होकर अमेरिका में है। ऐसे में प्रत्येक पोस्ट पर निगरानी रखना संभव नहीं है।

जब पोस्ट पर पहले निगरानी रखना संभव न हो और रोकना भी संभव न हो। तब पोस्ट करने वाले की पहचान सुनिश्चित होना अनिवार्य है। भारतीय लोकतंत्र में साइबर दुनिया से इतर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है। लेकिन उसमें व्यक्ति की पहचान छिपी नहीं रहती है। किंतु, सोशल मीडिया में इसके उलट पहचान न होना ही सबसे बड़ी समस्या है। ऐसे में सोशल मीडिया पर पाबंदी के बजाय उसके लिए कानूनी प्रावधानों की आवश्यकता है। साथ ही व्यक्ति की पहचान सुनिश्चित हो सके इसके लिए अकांउट बनाते समय उसकी पहचान सुनिश्चित करना भी अनिवार्य हो गया है।

सोशल नेटवर्किंग साइट सोशल नेटवर्क को प्रगाढ़ करें। लोकतांत्रिक बहस-मुबाहिसों का हिस्सा बनी रहें। लोकतंत्र को मजबूत करने में रचनात्मक भूमिका का निर्वाह करें। ऐसे कानून की आवश्यकता है ताकि सोशल नेटवर्किंग साइट पर गैर-सोशल पोस्ट करने वालों की पहचान कर उन पर कार्रवाई सुनिश्चित की जा सके। 


Friday, September 21, 2012

राष्ट्रवादी पत्रकारिता के वाहक दीनदयाल उपाध्याय



भारत में पत्रकारिता और राष्ट्रवाद एक ही धारा में प्रवाहित होने वाले जल के समान हैं। भारतीय पत्रकारिता ने सदैव राष्ट्रवाद को ही मुखरित करने का कार्य किया है। पत्रकारिता के इसी राष्ट्रवादी प्रवाह को गति देने वाले पत्रकारों में एक महत्वपूर्ण नाम पं. दीनदयाल उपाध्याय का भी है। भारत की राजनीति को एक ध्रुव से दो ध्रुवीय करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले दीनदयाल उपाध्याय ने पत्रकारिता को अपने विचारों के प्रसार का माध्यम बनाया था। पत्रकारिता किस प्रकार से जनमत निर्माण करने में सहायक हो सकती है, यह दीनदयाल जी ने बखूबी समझा था।

दीनदयाल जी का जन्म आश्विन कृष्ण त्रयोदशी, सोमवार सम्वत 1973 को, ईस्वी अनुसार 25 सितंबर 1916 को राजस्थान के धनकिया नामक ग्राम में हुआ था। उनका जन्म ननिहाल में हुआ था। जबकि उनका पैतृक निवास मथुरा के फराह नामक गांव में है। उनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय तथा माता का नाम रामप्यारी था। परिवार में दीनदयाल जी से छोटा एक भाई और था जिसका नाम शिवदयाल था। किंतु, दीनदयाल जी को परिवार का स्नेह अधिक समय तक न मिल सका। बाल्यावस्था में ही माता-पिता की मृत्यु होने के कारण पारिवारिक शून्यता में ही उन्हें जीवन व्यतीत करना पड़ा। जब माता-पिता उनसे बिछड़े तब उनकी आयु मात्र आठ वर्ष ही थी। दुर्भाग्य ऐसा था कि कुछ ही समय बाद दीनदयाल जी के भाई शिवदयाल की भी निमोनिया से पीडि़त होने के कारण मृत्यु हो गई।

माता-पिता के अभाव में उनका पालन-पोषण उनके मामा ने किया। जो राजस्थान के गंगापुर रेलवे स्टेशन पर मालगार्ड के रूप में कार्यरत थे। अपनी प्रारंभिक शिक्षा दीनदयाल जी ने गंगापुर में ही पूर्ण की। उसके बाद उन्होंने सीकर, कानपुर एवं आगरा आदि स्थानों पर रहकर आगे की पढ़ाई पूरी की। कालेज की पढ़ाई के दौरान ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए और पूरी तन्मयता से संघ कार्य में जुट गए। कालेज की पढ़ाई के बाद वे किसी नौकरी अथवा व्यापार में संलग्न न होकर संघ कार्य में ही रम गए। उनके मामा ने उनसे शादी का कई बार आग्रह किया लेकिन वे बड़ी ही चालाकी से शादी के प्रस्तावों को नकार देते थे। शायद राष्ट्र की सेवा का व्रत लेकर ही वे जन्मे थे, जिस कारण सभी सांसारिक बंधनों से दूर वे केवल भारत माता के बंधन में ही रहे। उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्र के लिए अथक कार्य किया। विवाह न करने को लेकर वे बड़े ही तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात कहा करते थे। इस संबंध में उन्होंने अपने विचार जगद्गुरू शंकराचार्य' पुस्तक में व्यक्त किए हैं-

‘‘हे मां पितृऋण है और उसी को चुकाने के लिए मैं संन्यास ग्रहण करना चाहता हूं। पिताजी ने जिस धर्म को जीवन भर निभाया यदि वह धर्म नष्ट हो गया तो बताओ मां! क्या उन्हें दुख नहीं होगा? उस धर्म की रक्षा से ही उन्हें शांति मिल सकती है और फिर अपने बाबा उनके बाबा और उनके भी बाबा की ओर देखो। हजारों वर्ष का चित्र आंखों के समक्ष उपस्थित हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म की रक्षा के लिए स्वयं के जीवन को दांव पर लगा दिया, कौरव-पांडवों में युद्ध करवाया। अपने जीवन में वे धर्म की स्थापना कर गए, पर लोग धीरे-धीरे भूलने लगे। शाक्यमुनि के काल तक फिर धर्म में बुराईयां आ गईं। उन्होंने भी बुराईयों को दूर करने का प्रयत्न किया, पर अब आज उनके सच्चे अभिप्राय को भी लोग भूल गए हैं। मां! इन सब पूर्वजों का हम सब पर ऋण है अथवा नहीं?
यदि हिन्दू समाज नष्ट हो गया, हिन्दू धर्म नष्ट हो गया तो फिर तू ही बता मां, कोई दो हाथ दो पैर वाला तेरे वश में हुआ तो क्या तुझे पानी देगा ? कभी तेरा नाम लेगा ?"

ऐसे समय में जब देश को सशक्त राजनीतिक विकल्प एवं विपक्ष की आवश्यकता थी, तब दीनदयाल उपाध्याय ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर देश की राजनीति को दो ध्रुवीय करने का कार्य किया था। उन्होंने राजनीति को समाज कल्याण के मार्ग के रूप में चुना था। एकात्म मानववाद के रचयिता दीनदयाल उपाध्याय ने गांधी के विचार को पुनःव्याख्यायित करते हुए अंत्योदय की बात की।

दीनदयाल जी ने अपने विचारों को पत्रकारिता के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया था। वह पत्रकारिता जो आजादी के उपरांत अपने लिए किसी लक्ष्य अथवा सन्मार्ग की तलाश में थी। उसे दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से राह दिखाने का कार्य किया था। सन् 1947 में दीनदयाल जी ने राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना की थी। जिसके अंतर्गत स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित होते थे। राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड ने वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चन्द्र मिश्र, अटल बिहार वाजपेयी, राजीव लोचन अग्निहोत्री जैसे श्रेष्ठ पत्रकारों को तैयार किया था। पं. दीनदयाल ने पांचजन्य‘, ‘राष्ट्रधर्मएवं स्वदेशके माध्यम से राष्ट्रवादी जनमत निर्माण करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। उनके लेख पांचजन्य के घोष वाक्य के अनुरूप ही राष्ट्र जागरण का शंखनाद करते थे। राष्ट्रीय एकता के मर्म को समझाते हुए उन्होंने लिखा था-

‘‘यदि हम एकता चाहते हैं तो भारतीय राष्ट्रीयता जो हिंदू राष्ट्रीयता है तथा भारतीय संस्कृति जो हिंदू संस्कृति है उसका दर्शन करें। उसे मानदंड बनाकर चलें। भागीरथी की पुण्यधाराओं में सभी प्रवाहों का संगम होने दें। यमुना भी मिलेगी और अपनी सभी कालिमा खोकर गंगा में एकरूप हो जाएगी।"(पांचजन्य, 24 अगस्त, 1953)

दीनदयाल उपाध्याय ने देश में बदलाव के लिए नारे एवं बेवजह प्रदर्शनों को कभी प्राथमिकता नहीं दी। देश की समस्याओं के निवारण के लिए वह पुरूषार्थ को ही महत्वपूर्ण मानते थे। जिसका उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा-

‘‘आज देश के व्याप्त अभावों की पूर्ति के लिए हम सब व्यग्र हैं। अधिकाधिक परिश्रम आदि करने के नारे भी सभी लगाते हैं। परंतु नारों के अतिरिक्त वस्तुतः अपनी इच्छानुसार सुनहले स्वप्नों, योजनाओं तथा महत्वाकांक्षाओं के अनुकूल देश का चित्र निर्माण करने के लिए उचित परिश्रम और पुरूषार्थ करने को हममें से पिचानवे प्रतिशत लोग तैयार नहीं है। जिसके अभाव में यह सुंदर-सुंदर चित्र शेखचिल्ली के स्वप्नों के अतिरिक्त कुछ और नहीं" (पांचजन्य, आश्विन कृष्ण 2, वि. सं. 2007)

सन 1947 में भारत राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो गया था। किंतु, अंग्रेजों के जाने के पश्चात भी औपनिवेशिक संस्कृति के अवशेष भारत के तथाकथित बुर्जुआ वर्ग पर हावी रहे। इस मानसिकता को राष्ट्र के सांस्कृतिक उत्थन में बाधक बताते हुए दीनदयाल उपाध्याय ने लिखा था-

‘‘राष्ट्रभक्ति की भावना को निर्माण करने और उसको साकार स्वरूप देने का श्रेय भी राष्ट्र की संस्कृति का ही है तथा वही राष्ट्र की संकुचित सीमाओं को तोड़कर मानव की एकात्मता का अनुभव कराती है। अतः संस्कृति की स्वतंत्रता परमावश्यक है। बिना उसके राष्ट्र की स्वतंत्रता निरर्थक ही नहीं, टिकाऊ भी नहीं रह सकेगी।" (पांचजन्य, भाद्रपद कृष्ण 9, वि. सं. 2006)

दीनदयाल उपाध्याय का स्पष्ट मत था कि राष्ट्रीय एकता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए राष्ट्र की सांस्कृतिक एकात्मता भी आवश्यक है। अपने विचारों को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया था-

‘‘भारत में एक ही संस्कृति रह सकती है, एक से अधिक संस्कृति का नारा देश के टुकड़े-टुकड़े करके हमारे जीवन का विनाश कर देगा। अतः आज लीग का द्वि-संस्कृतिवाद, कांग्रेस का प्रच्छन्न द्विसंस्कृतिवाद तथा साम्यवादियों का बहुस्ंस्कृतिवाद नहीं चल सकता। आज तक एक संस्कृतिवाद को संप्रदायवाद कहकर ठुकराया गया किंतु अब कांग्रेस के विद्वान भी अपनी गलती समझकर इस एक संस्कृतिवाद को अपना रहे हैं। इसी भावना और विचार से भारत की एकता तथा अखंडता बनी रह सकती है तथा तभी हम अपनी संपूर्ण समस्याओं को सुलझा सकते हैं।" (राष्ट्रधर्म, शरद पूर्णिमा, वि. सं 2006)

पं. दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार हेतु राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना की थी। अपने इस ध्येय पथ पर वे संपूर्ण जीवन अनवरत चलते रहे। जीवन में अनेकों दायित्वों का निर्वाह करते हुए भी दीनदयाल जी ने अपने पत्रकारीय जीवन के प्रवाह को कहीं रूकने नहीं दिया था। स्वतंत्रता के पश्चात जब भारत का पत्रकारिता जगत लक्ष्यविहीन अनुभव कर रहा था, तब दीनदयाल उपाध्याय ने पत्रकारिता को उसका ध्येय मार्ग दिखलाने का कार्य किया था।

हिंदुत्व, भारतीयता, अर्थनीति, राजनीति, समाज-संस्कृति आदि अनेकों महत्वपूर्ण विषयों पर उनका गहरा अध्ययन था। उन्होंने पत्रकारिता के अलावा अनेकों पुस्तकें भी लिखीं जैसे- राष्ट्र चिंतन, सम्राट चन्द्रगुप्त, भारतीय अर्थनीति- विकास की एक दिशा, एकात्म मानववाद आदि। यह पुस्तकें राष्ट्रहित में जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं।

11 फरवरी, सन 1968 को मुगलसराय रेलवे स्टेषन के करीब वे मृत पाए गए। उनकी मृत्यु का कारण आज भी संदिग्ध है। दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रवादी पत्रकारिता के प्रवाह को जिस प्रकार आगे बढ़ाया था वह अनुकरणीय है।

Sunday, August 26, 2012

‘केसरी‘ पत्रकार लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक


क्रांति, आंदोलन एवं किसी अभियान की सफलता में पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। विचारधाराओं के प्रसारण एवं उसके स्थापन में भी पत्रकारिता की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय पत्रकारिता के संदर्भ में यह और भी अधिक दावे से कहा जा सकता है कि पत्रकारिता ने राष्ट्रवादी विचारों के प्रसार एवं जनमत निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। भारत में पत्रकारिता ने अपने उद्भव के साथ ही राष्ट्र के पुनर्जागरण में अपनी भूमिका का निर्वहन करना प्रारंभ कर दिया था। विभिन्न क्रांतिकारियों ने भी पत्रकारिता के माध्यम से लोगों को स्वदेशी, स्वराज्य एवं स्वाधीनता के विचारों को जनसामान्य तक पहुंचाने का कार्य किया। जिनमें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक प्रमुख व्यक्ति थे। 

लोकमान्य तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में हुआ था। वह भारत की उस पीढ़ी के व्यक्ति थे जिन्होंने आधुनिक कालेज की शिक्षा पाई। संस्कृत के प्रकांड पंडित, देशभक्त एवं जन्मजात योद्धा तिलक भारत में स्वदेशी, स्वराज्य एवं स्वसंस्कृति को पुनः स्थापित करने के लिए आजीवन प्रयासरत रहे। सन 1885 में अंग्रेज अधिकारी हयूम के नेतृत्व में स्थापित कांग्रेस नागरिक सुविधाओं के लिए प्रस्ताव पारित करने और अनुनय-विनय करने तक ही सीमित थी। जिसे लोकमान्य तिलक ने सन 1905 के बाद से राष्ट्रवादी स्वरूप प्रदान किया और ‘‘स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे प्राप्त करके रहेंगे‘‘ का नारा दिया। जिसके बाद कांग्रेस दो दलों में विभाजित हो गई नरम दल एवं गरम दल। 

सन 1905 में ब्रिटिश शासन की बंग विभाजन की योजना ने तत्कालीन कांग्रेस में भूचाल ला दिया था। कांग्रेस को अनुनय-विनय की नीति से निकालकर तिलक ने इसे प्रखर राष्ट्रवादी स्वरूप दिया था। इसमें उनके पत्रों मराठाएवं केसरीकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। निबंध मालापत्रिका के संपादक विष्णु कृष्ण चिपलूणकर एवं गोपालकृष्ण आगरकर के सहयोग से तिलक ने 1880 को न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना की थी। जो बाद में डेकन एजुकेशन सोसायटी के रूप में विकसित हुआ। इसके साथ ही मराठाऔर केसरीका प्रकाशन भी प्रारंभ हुआ। इन पत्रों को छापने के लिए एक प्रेस खरीदा गया, जिसका नाम आर्य भूषण प्रेसरखा गया। तिलक, आगरकर और चिपलूणकर अपनी संस्थाओं के लिए शारीरिक श्रम से भी नहीं हिचकते थे। प्रेस के टाइप, केसों आदि को ढोकर नये स्थान पर खुद ले गए थे और स्कूल खुलने के समय वे इमारत को स्वयं झाड़ते और साफ करते थे। जब मराठा' और केसरी' निकलना शुरू हुए, तो वे समाचार पत्र की प्रतियों को स्वयं ही लोगों तक पहुंचाते थे.


केसरी' के प्रकाशन के बाद उन्होंने उसके स्वरूप एवं पत्रकारिता के अपने उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा था-

‘‘केसरी निर्भयता एवं निष्पक्षता से सभी प्रश्नों की चर्चा करेगा। ब्रिटिश शासन की चापलूसी करने की जो प्रवृत्ति आज दिखाई देती है, वह राष्ट्रहित में नहीं है। केसरीके लेख इसके नाम को सार्थक करने वाले होंगे।"

कांग्रेस में नरम दल और गरम दल के आधार पर विभाजन होने के पश्चात तिलक के पत्रों ने गरम दल की विचारधारा को स्थापित करने में मदद की थी। स्वदेशी एवं स्वराज्य के विचारों को तिलक ने अपने पत्र मराठा और केसरी के माध्यम से ही प्रतिपादित किया था। लोकमान्य चार सूत्री कार्यक्रम बहिष्कारस्वदेशी, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज आंदोलन के माध्यम से देश को जागृत करने का कार्य कर रहे थे। भारतवासियों को बहिष्कार आंदोलन का मर्म समझाते हुए तिलक ने केसरीके संपादकीय लिखा था- 

‘‘लगता है कि बहुत से लोगों ने बहिष्कार आंदोलन के महत्व को समझा नहीं। ऐसा आंदोलन आवश्यक है, विशेषकर उस समय जब एक राष्ट्र और उसके विदेशी शासकों में संघर्ष चल रहा हो। इंग्लैंड का इतिहास इस बात का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करता है करता है कि वहां की जनता अपने सम्राट का कैसे नाकों चने चबवाने के लिए उठ खड़ी हुई थी, क्योंकि सम्राट ने उनकी मांगे पूरी करने से इंकार कर दिया था। सरकार के विरूद्ध हथियार उठाने की न हमारी शक्ति है न कोई इरादा है। लेकिन देश से जो करोड़ों रूपयों का निकास हो रहा है क्या हम उसे बंद करने का प्रयास न करें। क्या हम नहीं देख रहे हैं कि चीन ने अमेरिकी माल का जो बहिष्कार किया था, उससे अमेरिकी सरकार की आंखें खुल गईं। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है कि एक परतंत्र राष्ट्र, चाहे वह कितना ही लाचार हो, एकता साहस और दृढ़ निश्चय के बल पर बिना हथियारों के ही अपने अंहकारी शासकों को धूल चटा सकता है। इसलिए हमें विश्वास है कि वर्तमान संकट में देष के दूसरे भागों की जनता बंगालियों की सहायता में कुछ भी कसर उठा न रखेगी।‘‘ (तिलक से आज तक, हंसराज रहबर)
लोकमान्य तिलक ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने न केवल आंदोलन चलाए बल्कि, आंदोलनों को पत्रों के माध्यम से वैचारिक आधार भी प्रदान किया। मराठाऔर केसरीके माध्यम से उन्होंने गणेश उत्सव, शिवाजी उत्सव एवं स्वदेशी के उपयोग में लोगों से भागीदार बनने की अपील की। लोकमान्य जो आंदोलन चलाते उसका उनके पत्र बखूबी आह्वान करते थे। तिलक ने ही स्वदेशी के उपयोग एवं ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान किया था। जिसका अनुसरण आगे चलकर महात्मा गांधी ने भी किया था। तिलक ने स्वदेशी और बहिष्कार आंदालन के राजनीतिक महत्व को उजागर किया। उन्होंने लोगों से कहा कि चाहे कुछ भी त्याग करना पड़े, वे स्वदेशी का उपभोग करें। अगर कोई भारतीय वस्तु उपलब्ध न हो तो उसके स्थान पर गैरब्रिटिश वस्तु इस्तेमाल में लाएं। उन्होंने लिखा-

‘‘ब्रिटिश सरकार चूंकि भारत में भय से मुक्त है, इससे उसका सिर फिर गया है और वह जनमत की नितान्त उपेक्षा करती है। वर्तमान आंदालन से जो एक सार्वजनिक मानसिकता उत्पन्न हो गई है, उससे लाभ उठाकर हमें एक ऐसे केन्द्रीय ब्यूरो का संगठन करना चाहिए जो स्वदेशी माल और गैरब्रिटिश माल के बारे में जानकारी एकत्रित करे। इस ब्यूरो की शाखाएं देश भर में खोली जाएं, भाषण और मीटिंगों द्वारा आंदोलन के उद्देश्य की व्याख्या की जाये और नई दस्तकारियां भी लगाई जाएं।‘‘  

लोकमान्य तिलक ने जिस सोसायटी की स्थापना अपने मित्रों के साथ मिलकर की थी, सैद्धांतिक अतंर्विरोधों के कारण उन्होंने उस सोसायटी से 14 अक्टूबर, 1890 को इस्तीफा दे दिया। उन्होंने मराठा और केसरी को भी सोसायटी से अलग कर लिया। इन पत्रों पर उस वक्त 7,000 का ऋण था, उसे चुकाने की जिम्मेदारी भी उन्होंने स्वयं पर ली। सोसायटी से अलग होने के पश्चात लोकमान्य ने स्वयं को पूरी तरह जनकार्य में ही झोंक दिया। लोकमान्य तिलक के जीवनीकार टी.वी पर्वते ने उनके मराठा और केसरीपत्रों के लिए समर्पण के बारे में लिखा है कि-

‘‘1891 से केसरीऔर मराठातिलक की ही मिलकियत बन गए थे। कई साल तक उनमें घाटा होता रहा, लेकिन इन पत्रों ने उनके जीवनक्रम को बहुत ही प्रभावित किया। जनता की हर शिकायत और हर समस्या पर प्रति सप्ताह लिखते रहने से वे जनससमयाओं के जननेता और प्रवक्ता बन गए।‘‘
 
लोकमान्य तिलक ने केसरी एवं मराठाको सुचारू रूप से चलाने के लिए अपना बहुत कुछ दांव पर लगाया था। उनके यह पत्र चूंकि घाटे का सौदा थे, इसलिए अपनी जीविका के लिए उन्होंने अपने कानून के ज्ञान का सहारा लिया। वकालत से उन्हें दो सौ रूपये मासिक की आय हो जाती थी, जिससे उनके परिवार का खर्च आसानी से चल जाता था। पत्रों को उन्होंने कभी भी लाभ का धंधा नहीं बनाया। 

लोकमान्य तिलक के लेख क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणास्रोत के समान थे। उनका लेखन एवं मार्गदर्शन क्रांतिकारियों को ऊर्जा प्रदान करता था। यही कारण था कि तिलक के पत्र मराठा और केसरीब्रिटिश सरकार को बिल्कुल न सुहाते थे। लोकमान्य भारत के उन प्रमुख क्रांतिकारियों में से थे जिन्हें अपने लेखों के कारण जेलयात्राएं भी करनी पड़ीं। किंतु, वे सदैव अपने पत्रकारीय धर्म पर अडिग रहे। इसका एक उदाहरण है-

सन 1902 में पुणे प्लेग फैला था। अनेकों लोग भयवश स्थानांतरित हो गए। केसरी जहां छपता था, एक दिन उस आर्यभूषण मुद्रणालय के स्वामी ने लोकमान्य को अपनी अड़चन बताई, ‘‘मुद्रणालय में कीलें जोड़नेवाले कर्मचारियों की अनुपस्थिति बढ़ रही है, जिससे प्लेग के न्यून होने तक केसरीकी प्रति समय पर निकलेगी कि नहीं कह नहीं सकते।‘‘ 

तिलक कड़े स्वर में बोले, ‘‘आप आर्यभूषण के स्वामी और मैं केसरी का संपादक, यदि इस महामारी में हम दोनों को ही मृत्यु आ गई, तब भी अपनी मृत्यु के पश्चात पहले 13 दिनों में भी केसरीमंगलवार की डाक से जाना चाहिए।‘‘ (दैनिक सनातन प्रभात)

लोकमान्य तिलक क्रांतिधर्मी पत्रकार थे। जिन्होंने पत्रकारिता और स्वाधीनता तथा स्वदेशी के आंदोलन को एक-दूसरे के पूरक के रूप में विकसित किया था। लोकमान्य तिलक पत्रकारिता जगत के लिए प्रेरणापुंज हैं, जिन्होंने पत्रकारिता को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मुखरता प्रदान की। 1 अगस्त, 1920 को लोकमान्य तिलक का अचानक देहांत हो गया। किंतु, उन्होंने पत्रकारिता जगत में समर्पण भाव से कार्य करने का जो मापदंड स्थापित किया था, वह आज भी प्रासंगिक है।  

Friday, August 10, 2012

पत्रकार प्रेमचंद



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स्वदेशी आंदोलन के जनकः लोकमान्य बालगंगाधर तिलक



लोकमान्य, अर्थात वह व्यक्ति जिसे लोग अपना नेता मानते हों। यह उपाधि बाल गंगाधर तिलक को भारत के स्वाधीनता प्रेमियों ने दी थी। लोकमान्य ने बंग-भंग आंदोलन के दौरान भारत के स्वाधीनता संग्राम को मुखर रूप प्रदान किया था। अंग्रेजों की विभाजन नीति ने सबसे पहले बंगाल को ही सांप्रदायिक आधार पर विभाजन करने की योजना बनाई। जिसे हम लोग बंग-भंग के नाम से जानते हैं। लार्ड कर्जन की इस नीति का विरोध करने वालों में लोकमान्य तिलक प्रमुख व्यक्ति थे। तिलक ने बंग-भंग आंदोलन के माध्यम से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की राजपरस्त नीति का विरोध किया और कांग्रेस को स्वराज्य प्राप्ति का मंच बनाया। 

लोकमान्य तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में हुआ था। वह भारत की उस पीढ़ी के व्यक्ति थे जिन्होंने आधुनिक कालेज की शिक्षा पाई। संस्कृत के प्रकांड पंडित, देशभक्त एवं जन्मजात योद्धा तिलक भारत में स्वदेशी, स्वराज्य एवं स्वसंस्कृति को पुनः स्थापित करने के लिए आजीवन प्रयासरत रहे। सन 1885 में अंग्रेज अधिकारी हयूम के नेतृत्व में स्थापित कांग्रेस नागरिक सुविधाओं के लिए प्रस्ताव पारित करने और अनुनय-विनय करने तक ही सीमित थी। जिसे लोकमान्य तिलक ने सन 1905 के बाद से राष्ट्रवादी स्वरूप प्रदान किया और ‘‘स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे प्राप्त करके रहेंगे‘‘ का नारा दिया। जिसके बाद कांग्रेस दो दलों में विभाजित हो गई नरम दल एवं गरम दल। गरम दल का नेतृत्व कर रहे थे लाल-बाल-पाल। 

लाल-बाल-पाल के क्रांतिकारी नेतृत्व ने भारत के स्वाधीनता आंदोलन को महत्वपूर्ण दिशा दी। बंगाल विभाजन को इसका प्रेरक कहा जा सकता है। बंगाल के विभाजन को लोकमान्य तिलक ने एक वरदान बताया था क्योंकि इसने राष्ट्र को एकताबद्ध करने की चेतना उत्पन्न कर दी थी। 16 अक्टूबर, 1905 का दिन जब बंगाल विभाजन की योजना को व्यावहारिक रूप दिया गया, इसे शोक दिवसके रूप में मनाया गया। उस दिन चूल्हे नहीं जले, लोग नंगे पांव गलियों में निकल आये, उन्होंने एक दूसरे को लाल राखी बांधी। षाम को कलकत्ता के टाउन हाल में विराट सभा हुई, जिसमें ब्रिटिश माल के बहिष्कार का प्रस्ताव पास हुआ और तय किया गया कि जब तक यह घृणित योजना रदद न हो जाए आंदोलन थमेगा नहीं।  तिलक के नेतृत्व में सारा राष्ट्र बंगाल की रक्षा के लिए उठ खड़ा हुआ। लोकमान्य चार सूत्री कार्यक्रम बहिष्कार, स्वदेशी, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज आंदोलन के माध्यम से देश को जागृत करने का कार्य कर रहे थे। भारतवासियों को बहिष्कार आंदोलन का मर्म समझाते हुए तिलक ने केसरीके संपादकीय लिखा था-

‘‘लगता है कि बहुत से लोगों ने बहिष्कार आंदोलन के महत्व को समझा नहीं। ऐसा आंदोलन आवश्यक है, विशेषकर उस समय जब एक राष्ट्र और उसके विदेशी शासकों में संघर्ष चल रहा हो। इंग्लैंड का इतिहास इस बात का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करता है करता है कि वहां की जनता अपने सम्राट का कैसे नाकों चने चबवाने के लिए उठ खड़ी हुई थी, क्योंकि सम्राट ने उनकी मांगे पूरी करने से इंकार कर दिया था। सरकार के विरूद्ध हथियार उठाने की न हमारी शक्ति है न कोई इरादा है। लेकिन देश से जो करोड़ों रूपयों का निकास हो रहा है क्या हम उसे बंद करने का प्रयास न करें। क्या हम नहीं देख रहे हैं कि चीन ने अमेरिकी माल का जो बहिष्कार किया था, उससे अमेरिकी सरकार की आंखें खुल गईं। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है कि एक परतंत्र राष्ट्र, चाहे वह कितना ही लाचार हो, एकता साहस और दृढ़ निश्चय के बल पर बिना हथियारों के ही अपने अंहकारी शासकों को धूल चटा सकता है। इसलिए हमें विश्वास है कि वर्तमान संकट में देश के दूसरे भागों की जनता बंगालियों की सहायता में कुछ भी कसर उठा न रखेगी।

भारत में स्वदेशी उपभोग के विचार को सर्वप्रथम प्रतिपादित करने वाले लोकमान्य तिलक ही थे, जिस स्वदेशी की राह पर आगे चलकर गांधी जी भी चले। तिलक ने स्वदेशी और बहिष्कार आंदालन के राजनीतिक महत्व को उजागर किया। उन्होंने लोगों से कहा कि चाहे कुछ भी त्याग करना पड़े, वे स्वदेशी का उपभोग करें। अगर कोई भारतीय वस्तु उपलब्ध न हो तो उसके स्थान पर गैरब्रिटिश वस्तु इस्तेमाल में लाएं। उन्होंने लिखा-

‘‘ब्रिटिश सरकार चूंकि भारत में भय से मुक्त है, इससे उसका सिर फिर गया है और वह जनमत की नितान्त उपेक्षा करती है। वर्तमान आंदालन से जो एक सार्वजनिक मानसिकता उत्पन्न हो गई है, उससे लाभ उठाकर हमें एक ऐसे केन्द्रीय ब्यूरो का संगठन करना चाहिए जो स्वदेशी माल और गैरब्रिटिश माल के बारे में जानकारी एकत्रित करे। इस ब्यूरो की शाखाएं देश भर में खोली जाएं, भाषण और मीटिंगों द्वारा आंदोलन के उद्देश्य की व्याख्या की जाये और नई दस्तकारियां भी लगाई जाएं।

लोकमान्य तिलक को भारतीय राष्ट्रवाद का जनक भी कहा जाता है। उन्होंने भारत के सांस्कृतिक-धार्मिक उत्सवों को सार्वजनिक रूप से मनाने की शुरुआत की। गणेश उत्सव और शिवाजी उत्सव के माध्यम से हिंदू समाज अभूतपूर्व रूप से जाग्रत और भावनात्मक रूप से एक हुआ। समस्त हिंदू समाज ने जातियों-उपजातियों को छोड़ गणेश उत्सवों के कार्यक्रम में भाग लिया। लोकमान्य तिलक के जीवनीकार टी.वी पर्वते ने गणेश उत्सव कार्यक्रमों की सफलता का इन शब्दों में वर्णन किया है- 

‘‘तिलक और उनके सहयोगियों की विलक्षण सूझ-बूझ और संगठन शक्ति इसमें निहित थी कि उन्होंने गणेश उत्सव को जनता के बौद्धिक, सांस्कृतिक और कलात्मक उन्नयन के लिए एक राष्ट्रीय जनवादी आंदोलन में परिणत कर दिया। लगता है कि लोग ऐसे ही आंदोलन के लिए आतुर से थे क्योंकि यह तुरंत ही अपना लिया गया और जनसाधारण को यह बहुत ही भाया। ब्राहमणों, मराठों, महारों- सभी ने इसे अपना लिया और वे एक दूसरे से खुलकर मिलने लगे।

लोकमान्य ने भारत की सुप्त जनता को जाग्रत कर स्वाधीनता की लड़ाई के लिए तैयार किया। वे जिस भी भूमिका में रहे उन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन की अलख जगाए रखी। क्रांतिकारी, पत्रकार अथवा षिक्षक सभी भूमिकाओं में वे भारत की स्वाधीनता, स्वसंस्कृति व स्वदेशी की स्थापना के लिए अहोरात्र लगे रहे। 

1 अगस्त, 1920 को लोकमान्य तिलक का आकस्मिक निधन हो गया। परंतु, जिन आदर्शों के लिए वे जिये वह शाश्वत हैं। जिस राष्ट्र के लिए उन्होंने स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' का नारा दिया आज वह स्वतंत्र और दृढ़ है। स्वदेशी, स्वशिक्षा, भारतीय संस्कृति के उत्थान के लिए उन्होंने जो प्रयास किए वे आज भी प्रासंगिक हैं। उनके मार्ग का अनुसरण अथवा अनुकरण करना ही लोकमान्य तिलक को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 

Friday, June 22, 2012

'हिंदी केसरी' माधवराव सप्रे’


भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में 19वीं सदी का अंतिम दशक एवं बीसवीं सदी का पहला दशक मील का पत्थर साबित हुए। यह समय देश में राजनीतिक, साहित्यिक एवं पत्रकारीय सुदृढ़ता के दशक माने जाते हैं। यह वह दौर था जब भारत की सुप्त चेतना जाग्रत हो रही थी, जागरण का यह काम कर रहे थे देशभक्त पत्रकार एवं क्रांतिकारी। उस दौर में प्राय क्रांतिकारी और पत्रकार एक दूसरे के पूरक थे। 

यह दौर था तिलक युग। जब पत्रकारिता ने जन-जन में स्वदेशी एवं स्वतंत्रता की अलख जगाई थी। तिलक स्वयं पत्रकार थे, मराठा' एवं केसरी' माध्यम से तिलक ने देश के सरोकारों को जानने का काम किया था। उसी दौर के पत्रकार थे पं. माधवराव सप्रे 

माधवराव सप्रे का जन्म मध्य प्रदेश के दमोह जिले के पथरिया ग्राम में 19 जून, 1871 को हुआ था। चार भाइयों में सबसे छोटे थे। उनके पिता ने खराब आदतों के चलते घर की समस्त संपत्ति नष्ट कर दी। घर चलना कठिन हो गया था, जिसके बाद बड़े भाई रामचन्द्रराव ने परिवार का संचालन किया। माधवराव दो वर्ष के ही थे कि बड़े भाई रामचन्द्रराव का निधन हो गया। जिसके बाद मंझले भाई बाबूराव ने विपरीत परिस्थितियों में परिवार के खर्चों को वहन करने के लिए नौकरी की। जब माधवराव चार वर्ष के थे बाबूराव ने उन्हें बिलासपुर बुला लिया। बिलासपुर में ही माधवराव ने मिडिल स्कूल तक की शिक्षा ग्रहण की। सन 1887 में उन्होंने मिडिल की परीक्षा पास की। बिलासपुर में हाईस्कूल नहीं था, हाईस्कूल पढ़ने के लिए उनको रायपुर भेजा गया। माधवराव ने हिंदी की सेवा का प्रण रायपुर में ही लिया था। 

रायपुर की धरती ने उनको हिंदी सेवा की जो प्रेरणा दी वह जीवन पर्यंत कायम रही। 
माधवराव सप्रे का विवाह सन 1889 में हुआ, इसी वर्ष उन्हें एंट्रेंस की परीक्षा भी देनी थी। परंतु ऐन वक्त पर वे बीमार पड़ गए जिस कारण वे 1890 में एंट्रेंस की परीक्षा न दे सके। जिसके बाद वे आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर चले गए। वहां उन्होंने अपने पाठ्यक्रम के अलावा विभिन्न गंभीर विषयों का अध्ययन किया। किंतु, इस दौरान उनको दो दुखद घटनाओं को सहना पड़ा। एक तो वे बीमार पड़ गए, दूसरे उनकी माता का देहांत हो गया। उस समय उनके ससुर की इच्छा थी कि वे रायपुर में ही तहसीलदार की नौकरी स्वीकार कर लें। उन्होंने इसके लिए उच्च अधिकारियों को राजी भी कर लिया था किंतु, माधवराव का मन नौकरी में नहीं पत्रकारिता में था। 

 उस दौरान देश में स्वतंत्रता की आंधी चारों ओर चल रही थी। लोकमान्य तिलक के केसरी' और मराठा' जैसे पत्रों के माध्यम से स्वदेशी एवं स्वतंत्रता की अग्नि प्रखर हो रही थी। माधवराव भी पत्रकारिता के क्षेत्र में आना चाहते थे, किंतु पत्रकारिता उस समय में आज की भांति व्यवसाय नहीं था। जिससे लाभ अर्जित किया जा सके। अतः उन्होंने पीडब्ल्यूडी में ठेकेदारी की उनको इस धंधे में नुकसान ही हुआ। वे अपने भाई पर भी अत्यधिक निर्भर नहीं रहना चाहते थे। एक दिन उन्होंने पत्नी से कुछ जेवर लिए और ग्वालियर के लिए चल पड़े और ग्वालियर में ही एफ.ए में दाखिला ले लिया। इस कठिन वक्त में ही उनको एक और आघात सहन करना पड़ा। ग्वालियर में ही उनको पत्नी के देहांत की सूचना मिली। माधवराव के लिए यह दिन कितने संघर्ष के रहे होंगे यह समझना कठिन नहीं है। उन्होंने दुख को सहते हुए भी अपनी पढ़ाई जारी रखी। सन 1898 में उन्होंने बी.ए की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने अपने भाई के समझाने पर दूसरा विवाह कर लिया। दूसरी पत्नी पार्वती भी सुलक्षणा थीं। वे उनके समस्त कार्यों में उनको सहयोग करती थीं। 

 सन 1899 में उन्होंने पेंड्रा रोड के राजकुमार कालेज में अध्यापन कार्य शुरू किया। किंतु, अध्यापन कार्य उनको संतुष्ट नहीं करता था। पत्रकारिता की ललक उनके मन में अब भी जीवित थी, जिसके लिए वे नौकरी के माध्यम से धन संग्रह कर रहे थे। सन 1900 में उनकी परिकल्पना छत्तीसगढ़ मित्र' मासिक पत्रिका के रूप में साकार हुई। उनके मित्र वामनराव लाखे पत्रिका के प्रकाशक बने एवं रामराव चिंचोलकर ने उनके साथ संपादक का दायित्व संभाला। 

 माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ मित्र के प्रवेशांक में पत्रिका के उद्देश्यों को आत्म परिचय' शीर्षक के अंतर्गत स्पष्ट करते हुए लिखा-

 ‘‘सम्प्रति छत्तीसगढ़ विभाग को छोड़ ऐसा एक भी प्रांत नहीं है जहां दैनिक, साप्ताहिक, मासिक या त्रैमासिक पत्र प्रकाशित न होता हो। इसमें कुछ सन्देह नहीं कि सुसम्पादित पत्रों के द्वारा हिंदी भाषा की उन्नति हुई है। अतएव यहां भी छत्तीसगढ़ मित्र' हिन्दी भाषा की उन्नति करने में विशेष प्रकार से ध्यान दे। आजकल भाषा में बहुत सा कूड़ा-कर्कट जमा हो रहा है, वह न होने पावे इसलिए प्रकाशित ग्रंथों पर प्रसिद्ध मार्मिक विद्वानों के द्वारा समालोचना भी कहें।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)

 माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ मित्रका प्रकाशन छत्तीसगढ़ क्षेत्र में हिंदी एवं शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए ही किया था। छत्तीसगढ़ मित्र' ने इस उद्देश्य को पूरा भी किया। किंतु, ‘छत्तीसगढ़ मित्र' को तत्कालीन जमीदारों और राजाओं की ओर से अपेक्षित सहयोग नहीं प्राप्त हुआ। इस व्यथा को स्पष्ट करते हुए छत्तीसगढ़ मित्र' संपादक ने लिखा-

‘‘अत्यन्त शोक और कष्ट से कहना पड़ता है कि मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ विभाग में राजा-महाराजा, श्रीमान तथा जमींदारों की इतनी विपुलता होने पर भी उनमें कोई भी विद्योतेजन की ओर यथावश्यक ध्यान नहीं देते। वे इस बात पर विचार नहीं करते कि विद्या की उन्नति करने में जब तक वे उदासीन बने रहेंगे तब तक समाज की प्रगति नहीं हो सकती।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)

 छत्तीसगढ़ मित्रको आर्थिक मोर्चे पर काफी संघर्ष करना पड़ता था, फिर भी माधवराव जी ने पत्रकारिता के मानदंडों से कभी समझौता नहीं किया। पत्र में प्रकाशित सामग्री के प्रति वे पूर्ण सचेत रहते थे। संवाददाताओं को भी वे यही सत्य एवं तथ्य पर आधारित समाचार देने के लिए ही कहते थे। जिसका उदाहरण है चाहिए' शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित यह विज्ञापन-

‘‘छत्तीसगढ़ मित्र' के लिए हिन्दुस्थान के बड़े-बड़े नगरों तथा राज संस्थानों, विशेषतः छत्तीसगढ़ विभाग के प्रायः संपूर्ण देशी रजवाड़ों तथा जमींदारियों से चतुर और विश्वास करने योग्य संवाददाता चाहिए। संवाददाताओं को स्मरण रहे कि सत्य-सत्य समाचार भेजें झूठ-मूठ किसी पर आक्षेप या गपोड़ी कपोल-कल्पित बातें कदापि न लिखें।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)

माधवराव सप्रे एवं साथियों ने छत्तीसगढ़ मित्र' को विशेष प्रयासों से दो वर्ष तक प्रकाशित करना जारी रखा। आय तो होती नहीं थी, लेकिन जो कुछ भी चन्दा अथवा विज्ञापन से प्राप्त होता था वे उसकों भी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर देते थे। वर्ष 1901 का आय-व्यय का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए संपादक ने लिखा था-

 ‘‘मित्र' के निकलने से पहले ही हमने सोच लिया था कि हमें घाटे के सिवाय कुछ लाभ न होगा। परंतु छत्तीसगढ़ में विद्या की वृद्धि, स्वदेश में ज्ञान का प्रसार, नागरी की उन्नति और हिन्दी साहित्य में सत्य समालोचना द्वारा सत्य विचार की जागृति करने के हेतु जिस समय हमने मित्रको जन्म दिया उसी समय हमने यह भी दृढ़ संकल्प कर लिया था कि इस कार्य में चाहे जैसी हानि और कठिनाई सहनी पड़े पर हम तीन वर्ष तक इसे अवश्य चलावेंगे।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)

छत्तीसगढ़ मित्र' के दो वर्ष बीत गए किंतु वह घाटे में ही चलता रहा। जिसके कारण माधवराव सप्रे एवं साथियों को पत्र बंद करने का कठिन निर्णय लेना पड़ा। अपनी व्यथा को उन्होंने इन शब्दों में लिखा- 

‘‘हमारे संकल्पानुसार परमात्मा की कृपा से दो वर्ष बीत गए, और हमारे दुर्भाग्य से दोनों वर्ष हमें घाटा ही उठाना पड़ा। अब यह तीसरा वर्ष है। देखना चाहिए कि इसका क्या परिणाम होता है? यदि इस वर्ष भी ऐसे ही घाटा उठाना पड़ा तो समझ लिजिए कि आपके प्रिय मित्रके सौ वर्ष पूरे हो चुके और फिर बड़े दुख से लिखना पड़ता है कि यही इसकी आयु का अंतिम वर्ष भी होगा।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)

 शुरूआती दो वर्षों की भांति ही छत्तीसगढ़ मित्र' तीसरे वर्ष भी घाटे में ही रहा। जिसके कारण सप्रे जी को प्रकाशन बंद करने का फैसला करना पड़ा। यह मासिक पत्रिका बंद तो हो गई किंतु छत्तीसगढ़ में साहित्य, पत्रकारिता एवं भाषा के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दे गई। 

 ‘छत्तीसगढ़ मित्र' के 13 अप्रैल, 1907 में नागपुर से शुरू होने वाले हिंदी केसरी' में भी सप्रे जी ने अपना योगदान दिया। जिसने विदर्भ क्षेत्र में हिंदी पत्रकारिता के प्रचार-प्रसार के लिहाज से महत्वपूर्ण योगदान दिया। माधवराव सप्रे जी स्वयं को आजीवन पत्रकारिता के क्षेत्र में होमते रहे। सन 1920 में माखनलाल चतुर्वेदी जी के संपादन में प्रकाशित होने वाले पत्र कर्मवीर' में भी उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से अपना योगदान दिया।

माधवराव सप्रे का जीवन पत्रकारिता, साहित्य एवं भाषा के उत्थान को समर्पित था। हिंदी पत्रकारिता के विकासक्रम में माधवराव सप्रे का महत्वपूर्ण योगदान था, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनका समस्त जीवन संघर्षपूर्ण ही रहा किंतु, वे कभी मुसीबतों के वक्त भी पीछे नहीं हटे। पत्रकारिता के क्षेत्र की वर्तमान एवं आगामी पीढ़ीयों के लिए उनका समस्त जीवन अनुकरणीय है।