Wednesday, January 25, 2012

साहित्यिक पत्रकारिता के स्तंभ- शिवपूजन सहाय

हिंदी साहित्यकारों ने समय-समय पर हिंदी पत्रकारिता में अपना योगदान दिया है। साहित्यकारों के मार्गदर्शन में पत्रकारिता ने भी नई ऊंचाईयों को प्राप्त किया है। साहित्य और पत्रकारिता का जब सम्मिश्रण होता है, तब पत्रकारिता सूचना ही नहीं जनशिक्षण और सांस्कृतिक उत्थान का भी माध्यम बनकर उभरती है। हिंदी साहित्यकारों का हिंदी पत्रकारिता से पुराना नाता रहा है जैसे भारतेंदु हरीश चन्द्र, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, मुंशी प्रेमचंद, माधवराव सप्रे एवं आचार्य शिवपूजन सहाय आदि।

आचार्य शिवपूजन सहाय की बात की जाए तो पत्रकारिता के क्षेत्र में वे साहित्यिक सरोकारों को पत्रकारिता से जोड़ने के लिए जाने जाते हैं।पत्रकारिता की विधा से जब साहित्य जुड़ता है, तो पत्रकारिता भाषा के स्तर पर समृद्ध होती है और सामाजिक सरोकारों से भी सहज रूप से जुड़ जाती है। आचार्य शिवपूजन सहाय ने इस कार्य को भली-भांति अंजाम दिया। 9 अगस्त, 1993 को बिहार के शाहाबाद जिले में जन्मे शिवपूजन सहाय ने पत्रकारिता को खासतौर से साहित्यिक पत्रकारिता को एक दिशा प्रदान की। शिवपूजन सहाय छात्रजीवन से ही पत्रकारिता से जुड़ गए थे, उनके लेख ‘शिक्षा‘, ‘मनोरंजन‘, और ‘पाटलिपुत्र‘ जैसे पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे।

सहाय जी का समय वह समय था जब भारत अंग्रेजी दासता से मुक्ति के लिए संघर्षरत था। ऐसे समय में शिवपूजन सहाय जैसे व्यक्तित्व का स्वाधीनता आंदोलन के संग्राम से जुड़ना स्वाभाविक ही था। गांधी जी के असहयोग आंदोलन में सहभागिता के लिए वे सरकारी नौकरी को छोड़कर आरा के स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्य करने लगे। लेकिन सहाय जी का पत्रकार मन पत्रकारिता से जुड़ने के लिए व्याकुल था, अतः आरा से ही उन्होंने 1921 में ‘मारवाड़ी सुधार‘ मासिक पत्रिका का संपादन प्रारंभ किया। इसके पश्चात् वे 20 अगस्त, सन 1923 में कोलकाता से प्रकाशित होने वाले ‘मतवाला‘ से जुड़ गए। शिवपूजन जी ‘मतवाला‘ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। इस पत्र में कार्य करने के दौरान उनको महान साहित्यकार और पत्रकार सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का भी सहयोग प्राप्त हुआ। ‘मतवाला‘ को मूर्त रूप देने में शिवपूजन सहाय की प्रमुख भूमिका रही थी। ‘मतवाला‘ छपकर बाजार में आया तो धूम मच गई।

‘मतवाला‘ ने जबरदस्त लोकप्रियता प्राप्त की। साहित्य, समाज, संस्कृति, राजनीति, शासन, धर्म आदि सभी विषयों पर मतवाला में लेख और समाचार प्रकाशित होते थे। यह पत्र वैचारिक रूप से लोकमान्य तिलक से प्रभावित रहा। साथ ही ‘मतवाला‘ को गांधी के साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन में भी गहरी आस्था थी। ‘मतवाला‘ के संपादन के अलावा उन्होंने ‘मौजी‘, ‘आदर्श‘, ‘गोलमाल‘, ‘उपन्यास तरंग‘ और ‘समन्वय‘ जैसे पत्रों के संपादन में भी सहयोग किया। कुछ समय के लिए सन् 1925 में आचार्य सहाय ने ‘माधुरी‘ का भी संपादन किया। इसके पश्चात सन् 1926 में वे पुनः ‘मतवाला‘ से जुड़ गए।

शिवपूजन सहाय ने भागलपुर के सुलतानगंज से छपने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘गंगा‘ का भी संपादन किया। इसके अलावा उन्होंने पुस्तक भंडार पटना के साहित्यिक पत्र ‘हिमालय‘ का भी संपादन किया। सन् 1950 में बिहार सरकार द्वारा गठित बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का पहला निदेशक सहाय जी को ही चुना गया था। सन् 1950 में ही बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘साहित्य‘ के संपादन की जिम्मेदारी भी सहाय जी को ही मिली थी। सहाय जी ने विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के माध्यम से साहित्यिक पत्रकारिता को अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

आचार्य शिवपूजन सहाय हिंदी की उन्नति के लिए सदैव चिंतित रहे। उन्होंने कहा- ‘‘हम सब हिंदी भक्तों को मिलकर ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि साहित्य के अविकसित अंगों की भली-भांति पुष्टि हो और अहिंदी भाषियों की मनोवृत्ति हिंदी के अनुकूल हो जाए।‘‘
शिवपूजन सहाय की संपादन कला की एक बानगी यह भी है कि भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा का संपादन भी उन्होंने ही किया था। राजेन्द्र प्रसाद ने उनकी प्रशंसा इन शब्दों में की थी- ‘‘जेल से निकलने पर इतना समय नहीं मिला कि इसे दोहराऊं। यह शिवजी (शिवपूजन सहाय) की कृपा की फल था कि वह प्रकाश में आ सकी। अत्यन्त अपनेपन से उन्होंने हस्तलिखित प्रति ले ली और बहुत परिश्रम करके उसे पढ़ा ही नहीं बल्कि जहां-तहां लिखने में जो भूले रह गईं थीं उनको भी सुधारा। शिवजी की इस प्रेमपूर्ण सहायता की जितनी भी प्रशंसा करूं, थोड़ी है।‘‘

साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में सहाय जी ने जो भी कार्य किया, वह सराहनीय रहा। हिंदी भाषा और साहित्यिक पत्रकारिता में उनका योगदान मील का पत्थर साबित हुआ। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक के पद पर रहते हुए उन्होंने बिहार के ‘साहित्यिक इतिहास‘ को चार खण्डों में समेटा। साहित्य में उनके बेहतरीन योगदान के लिए उन्हें ‘पद्मभूषण‘ और ‘वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान‘ जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार प्रदान किए गए।

पत्रकारिता के अतिरिक्त सहाय जी ने अनेकों कृतियों की रचना की। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने उनकी समस्त रचनाओं को ‘शिवपूजन रचनावली‘ के नाम से चार खण्डों में प्रकाशित किया है। एक पत्रकार और साहित्यकार के रूप् में उन्होंने हिंदी भाषा की जीवन भर सेवा की। 21 जनवरी, सन् 1963 को संपादकप्रवर आचार्य शिवपूजन सहाय चिरनिद्रा में लीन हो गए। ऐसे समय में जब पत्रकारिता और साहित्य की दूरी बढ़ती प्रतीत हो रही है, हिंदी के दधीचि कहे जाने वाले सहाय जी की स्मृतियां साहित्यिक पत्रकारिता का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य करती हैं।

Tuesday, January 24, 2012

शिक्षा प्रचार का साधन हैं समाचार पत्र- महावीर प्रसाद द्विवेदी

हिंदी पत्रकारिता का प्रारंभिक काल भारतीय नवजागरण अथवा पुनर्जागरण का काल था। उस दौरान भारत की राष्ट्रीय, जातीय व भाषायी चेतना जागृत हो रही थी। इस दौर की पत्रकारिता एक मिशन के तौर पर काम कर रही थी। उस दौर के पत्रकारों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में जो आयाम और आदर्श स्थापित किए, वे आज भी पत्रकारिता की उदीयमान पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन का स्त्रोत हैं। ऐसे ही एक पत्रकार थे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जिन्हें हिंदी पत्रकारिता जगत में संपादकों का आचार्य भी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। गणेश शंकर विद्यार्थी और बाबूराव विष्णु पराड़कर जैसे पत्रकार भी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा की उपज थे।

महावीर प्रसाद द्विवेदी की पत्रकारिता और उनकी संपादन शैली के बारे में जानने के लिए बाबूराव विष्णु पराड़कर की निम्न पंक्तियां दृष्टव्य हैं- ‘‘सन 1906 से, जब मैंने स्वयं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया, प्रति मास सरस्वती का अध्ययन मेरा एक कर्तव्य हो गया। मैं सरस्वती देखा करता था संपादन सीखने के लिए।‘‘

द्विवेदी जी ने हिंदी पत्रकारिता में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया, वे सदैव नवोदित पत्रकारों को मार्गदर्शन देते रहे। हिंदी पत्रकारिता और हिंदी भाषा की प्रगति को लेकर आचार्य द्विवेदी जी जीवन पर्यंत प्रयास करते रहे। हिंदी के पत्रों की कम होती संख्या पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है- ‘‘हमारे प्रान्त की मातृभाषा हिन्दी ही है। परंतु स्वदेश और स्वभाषा के शत्रु उसे अस्पृश्य और अपाठ्य समझते हैं। इसी से उर्दू के पत्रों की अपेक्षा हिन्दी के पत्रों की संख्या आधे से भी कम रही। मातृभाषा के इन द्रोहियों की बुद्धि भगवान ठिकाने लावें, इनमें से पांच फीसदी अंग्रेजी के धुरंधर पंडित जरूर होंगे। इन्हें रोज पायनियर और इंग्लिशमैन पढ़े बिना कल नहीं पड़ती। इनकी शिकायत है कि हिन्दी में कोई अच्छा पत्र है ही नहीं, पढ़ें क्या? पर इनको यह नहीं सूझता कि अच्छे हिंदी पत्र निकालने वाले क्या किसी और लोक से आवेंगे। या तो तुम खुद निकालो, या औरों के पत्र लेकर उन्हें उत्साहित करो, या अच्छे पत्र निकालने वालों की मदद करो। सिर्फ प्रलाप करने से हिन्दी के अच्छे पत्र पैदा नहीं हो सकते।‘‘ (सरस्वती, मई 1908, पृ.194)

हिंदी भाषा की उन्नति के लिए उन्होंने हिंदुओं से आह्वान करते हुए कहा- ‘‘यह इन प्रांतों के साहित्य की दशा है। मुसलमान तो हाईकोर्ट के जज हो जाने पर भी उर्दू में पुस्तकें लिखने का कष्ट उठावें, पर हिन्दू बेकार बैठने को ही अपने कर्तव्य की चरम सीमा समझें, या यदि लिखें भी तो हिन्दी को छोड़कर अन्य किसी भाषा में। फिर भला हिन्दी की उन्नति हो कैसे।‘‘ (सरस्वती, मार्च 1912, पृ.171)

द्विवेदी जी की पत्रिका सरस्वती से ही हिंदी पत्रकारिता में शीर्ष स्थान रखने वाले संपादकों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया था। सीखने की प्रवृत्ति रखने वाले पत्रकारों का द्विवेदी जी सदा ही प्रोत्साहन करते थे। उनका मानना था कि हमें सर्वज्ञता का घमंड नहीं होना चाहिए और हमें अपने लिखे हुए में परिशोधन एवं संशोधन को अवश्य स्वीकार करना चाहिए। लेखों के पुनर्शोधन में उनका स्पष्ट मत था कि-
‘‘अपना लिखा सभी को अच्छा लगता है, परंतु उसके अच्छे-बुरे का विचार दूसरे ही कर सकते हैं। जो लेख हमने लौटाये, वे समझ-बूझकर हमने लौटाये, किसी और कारण से नहीं। अतएव यदि उसमें किसी को बुरा लगा तो हमको खेद है। यदि हमारी बुद्धि के अनुसार लेख हमारे पास आवें तो हम उन्हें क्यों लौटावें? उनको हम सादर स्वीकार करें, भेजने वाले को भी धन्यवाद दें और उसके साथ ही यदि हो सके तो कुछ पुरस्कार भी दें।‘‘

‘‘यदि किसी को सर्वज्ञता का घमण्ड नहीं है, तो वह अपने लेख में दूसरे के किए हुए परिशोधन को देखकर कदापि रूष्ट न होगा। लेखक अपने लेख का प्रूफ स्वयं शोध सकता है, और संशोधन के समय हमारे किए हुए परिवर्तन यदि उसे ठीक न जान पड़े, तो हमको सूचना देकर, वह उनको अपने मनोनुकूल बना सकता है‘‘

समाचार पत्र जनसूचना का ही नहीं बल्कि जनशिक्षण और जनजागरण का भी महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। समाचार पत्रों की संख्या में बढ़ोत्तरी के संदर्भ में उनका कहना था कि- ‘‘समाचार पत्र शिक्षाप्रचार का प्रधान साधन है। जिस देश में जितने ही अधिक पत्र हों, उसको उतनी ही अधिक जागृत अवस्था में समझना चाहिए।‘‘

आचार्य द्विवेदी जी ने हिंदी पत्रकारिता को साहित्य के सरोकारों से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया। उनके संपादन में निकलने वाली ‘सरस्वती पत्रिका‘ का हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। किसी भी देश और जाति की उन्नति के बारे में यदि जानना हो तो उस देश का साहित्य वहां की स्थिति को बयान करता है। इस संदर्भ में दिसंबर 1917 के अंक में द्विवेदी जी ने लिखा है- ‘‘साहित्य ही ज्ञान और बोध का भंडार है। जिस जाति का साहित्य नहीं उस जाति की उन्नति नहीं हो सकती। क्योंकि जहां साहित्य नहीं वहां पूर्व प्राप्त ज्ञान भी नहीं और जहां पूर्व प्राप्त ज्ञान नहीं वहां उन्नति कैसी।‘‘

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में जो मानदंड स्थापित किए, वे आज भी प्रासंगिक और अनुकरणीय हैं। पत्रकारिता के वर्तमान दौर में जब साहित्यिक पत्रकारिता का स्थान पत्रकारिता के क्षेत्र में सिमटता जा रहा है, ऐसे समय में आचार्य जी की स्मृतियां जीवंत हो उठती हैं।

Thursday, January 19, 2012

सोशल मीडिया पर नियंत्रण के वैश्विक उपाय

वर्तमान समय में सोशल मीडिया अथवा न्यू-मीडिया के सकारात्मक पक्षों पर उतनी चर्चा नहीं हुई है, जितनी उसके नकारात्मक पक्षों की। इसका कारण यह है कि लगाम कसने से पहले उसको बदनाम करना, सरकार जरूरी समझती है। देश में ग्रेजुएट बेरोजगारों की बढ़ती संख्या को सरकार की कुनीतियों का विरोध करने में ही अपनी समस्याओं का निदान दिखाई पड़ता है। सरकारी नीतियों से त्रस्त निरीह जनता का गुस्सा यदि सोशल साइट्स के माध्यम से निकलता है तो भी यह सरकार के लिए कम नुकसानदेह है। यह सरकार को समझना चाहिए। सोशल मीडिया ने अभी तक विभिन्न आंदोलनों और सामाजिक बहसों को चलाने में युवाओं को एक मंच प्रदान किया है। जिसका उपयोग सरकार की कुनीतियों के विरूद्ध आंदोलनों को खड़ा करने के लिए भी किया गया। यही सरकारी फिक्र का भी कारण है।

केन्द्रीय दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने विभिन्न सोशल साइटों को आपत्तिजनक और अश्लील सामग्री हटाने की चेतावनी दी थी। जिसका समर्थन भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने भी किया है। फेसबुक और गूगल सहित विभिन्न साइटों द्वारा कंटेंट पर निगरानी करने को लेकर हाथ खड़े करने पर मुकदमेबाजी भी हुई। जिसमें कोर्ट ने सरकार की नीतियों को सही ठहराया है।

जिस प्रकार से ‘सागर की लहरों को जहाज तय नहीं करते‘, उसी प्रकार से न्यू-मीडिया पर निगरानी और उसके योगदान को तय करना भी सरकार के एजेंडे से बाहर का काम है। सांप्रदायिकता भड़काने वाली सामग्री और अपमानजनक टिप्पणियों का हवाला देते हुए कपिल सिब्बल ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स के अधिकारियों की क्लास ली है। इससे पहले सिब्बल को यह ध्यान भी देना चाहिए कि ‘जाति-बिरादरी‘ और सांप्रदायिक आधार पर चुनावों के समीकरणों को प्रभावित करने से क्या माहौल नहीं बिगड़ता है? दिल्ली में राष्ट्रविरोधी बयान देने वालों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर छोड़ दिया जाता है, क्या उनके बयान सांप्रदायिक उन्माद पैदा नहीं पैदा करते हैं? गौरतलब है कि इन साइटों पर प्रकाशित किसी भी अश्लील एवं अनैतिक सामग्री को उपयोगकर्ताओं द्वारा बहुत अधिक महत्व नहीं दिया गया है। जिस प्रकार से परंपरागत मीडिया की निगरानी का जिम्मा पाठकों और स्वायत्त संस्थाओं पर है, उसी प्रकार से न्यू-मीडिया को भी उपयोगकर्ताओं के विवेक पर ही छोड़ देना चाहिए।

अमेरिका में भी पायरेसी से संबंधित दो विधेयकों को लाए जाने के विरोध में विकिपीडिया का अंग्रेजी संस्करण 24 घंटे बंद रहा है। विकिपीडिया एवं अन्य साइटों का कहना है कि पायरेसी के नाम पर लाये गये यह विधेयक उन पर शिकंजा कसने का प्रयास हैं। इससे साबित होता है कि विकिलीक्स से हलकान हो चुका अमेरिका अब न्यू-मीडिया के प्रकल्पों को उन्मुक्त नहीं रहने देना चाहता। इससे पहले कि वॉल स्ट्रीट आंदोलन जैसा कोई और आंदोलन सरकार की चूलें हिलाने लगे अमेरिकी सरकार विभिन्न साइटों पर शिकंजा कसने की तैयारियों में जुट गई है। जिसे भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है।

जिस प्रकार से न्यू-मीडिया ने अरब के रेतीले मैदानों से लेकर चीन की साम्यवादी, अमेरिका की पूंजीवादी एवं भारत की लोकतांत्रिक सरकार के खिलाफ होने वाले आंदोलनों को बल प्रदान किया है। उसी तेजी से विभिन्न देशों की सरकारों ने भी पलटवार करते हुए न्यू-मीडिया की प्रतिनिधि साइटों पर लगाम कसने की ठानी है। अर्थात न्यू-मीडिया पर नियंत्रण के वैश्विक उपाय किए जाने लगे हैं। जिनका प्रतिरोध करना न्यू-मीडिया के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए जरूरी है। लोकतंत्र और आम आदमी के अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वाले सोशल मीडिया को अब अपने अस्तित्व की लड़ाई भी लड़नी पड़ेगी। जनसंचार माध्यमों पर लगाम कसने पर नए माध्यमों का सदैव ही अभ्युदय हुआ है। इसी क्रम में यदि इन वेबसाइटों पर लगाम लगती भी है, तो निश्चित ही नए माध्यम उभरकर आएंगे। इसलिए यह जरूरी होगा कि सरकारें अपनी नीतियों को आम जनोन्मुख बनाएं, न कि आम आदमी की अभिव्यक्तियों को रोकने का प्रयास करें।

Saturday, January 7, 2012

"हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे"- भाजपा

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घिरी माया सरकार ने पिछले दिनों अपने कई मंत्रियों की छुट्टी कर दी। माया सरकार ने चुनावी रणनीति को ध्यान में रखते हुए अपने दागी मंत्रियों को सरकार ही नहीं पार्टी से भी बाहर का रास्ता दिखाना शुरू किया है। बसपा सुप्रीमो ने अपने कुल 19 मंत्रियों को लोकायुक्त की सिफारिश पर अथवा चुनावी लिहाज से बर्खास्त किया। इनमें कई मंत्रियों को माया के पुराने सिपहसालारों में गिना जाता है, जिसमें प्रमुख हैं पूर्व परिवार कल्याण मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा। जाहिर, है मायावती के सिपहसालार की छुट्टी होती है तो यह बड़ी खबर अवश्य होगी। बड़ी खबर बनी भी, लेकिन बाबू सिंह की छुट्टी से ज्यादा बड़ी खबर बनी बाबूसिंह के भाजपा में शामिल होने की घटना।

वह मंत्री जिसके भ्रष्टाचार की गाथा भाजपा के लिए चुनावी मुद्दा थी, वही भ्रष्ट भाजपा में ही शामिल हो जाए तो बड़ी खबर तो बननी ही थी। दरअसल, भारतीय जनता पार्टी जिसे पार्टी विद ए डिफरेंस भी कहा जाता है, लगता है वह डिफरेंट ही नहीं करप्ट भी हो गई है। ऐसे समय में जब पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। मुददा भ्रष्टाचार और सुशासन का हो तब बाबू जी जैसी छवि के लोगों को पार्टी में लाना समझ से परे है।

बाबू सिंह को भाजपा ने शामिल तो कर लिया लेकिन अब बाबू सिंह भाजपा के गले की हड्डी बन चुके हैं। जिसे न पार्टी उगल पा रही है और न ही निगल पा रही है। यह चुनाव ऐसे वक्त में हो रहे हैं जब सभी पार्टियां देश के माहौल को देखते हुए साफ-सुथरी छवि के नेताओं पर ही दांव खेल रही, तब भाजपा में भ्रष्टों का शामिल होना हतप्रभ करता है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश भर में कांग्रेस पार्टी के खिलाफ बने माहौल का फायदा उठाने से भाजपा चूक गई है, साथ ही पार्टी ने अपनी किरकिरी भी कराई है।

अन्ना फैक्टर और कांग्रेस के खिलाफ बने माहौल का फायदा उठाने की बजाय भाजपा ने अपने पैरों में ही कुल्हाड़ी मारने का काम किया है। दरअसल, पार्टी ने हमेशा ही उस वक्त पर गलत निर्णय लिया है, जब सही फैसलों की दरकार पार्टी को सबसे ज्यादा थी। चाहे पूर्व में उत्तर प्रदेश में बसपा को समर्थन देने का मामला हो, झारखण्ड में जोड़-तोड़ की सरकार बनाना हो या येदियुरप्पा के मामले में देर से निर्णय पार्टी नेतृत्व ने अपरिपक्वता का ही परिचय दिया है।

भाजपा नेतृत्व द्वारा दागी छवि के नेताओं को शरण देने का निर्णय यूपी एवं अन्य चार राज्यों के चुनाव में पार्टी की करारी हार के रूप में फलीभूत हो सकता है।

भारतीय जनता पार्टी को आने वाले चुनावों के लिए शुभकामनायें...