Friday, March 30, 2012

परमाणु सुरक्षा के वैश्विक इंतजाम

परमाणु ऊर्जा एवं सुरक्षा दोनों पहलू आपस में संबद्ध हैं। ऊर्जा के लिए परमाणु संयंत्रों के प्रयास शुरू होते ही परमाणु सुरक्षा को लेकर चिंता भी परवान चढ़ जाती है। फुकुशिमा की दुर्घटना ने भी इस चिंता को वाजिब ठहराने का काम किया है। जिसका असर था कि विश्व की प्रमुख परमाणु शक्तियों जर्मनी, जापान, फ्रांस आदि ने इसके विकल्प तलाशने शुरू कर दिए। हाल ही में दक्षिण कोरिया में संपन्न हुए परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में महाशक्तियों ने भी इस मसले पर चिंता जताई। अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो परमाणु जखीरे में कटौती करने का ऐलान किया है।

 प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने परमाणु ऊर्जा की जरूरतों को महत्वपूर्ण बताते हुए सुरक्षा इंतजामों पर चिंता जताते हुए कहा- ‘‘परमाणु ऊर्जा पर लोगों के विश्वास को बनाए रखने के लिए बचाव एवं सुरक्षा के बेहतर मानक तय करने की आवश्यकता है‘‘। विश्व के प्रमुख 53 देशों के परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में फुकुशिमा की दुर्घटना का खौफ दिखाई दे रहा था। इस चिंता को बढ़ाने का इंतजाम पाक के परमाणु हथियारों की असुरक्षा की आशंका, ईरान एवं उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम ने भी किया।

वैश्विक स्तर पर परमाणु सुरक्षा के इंतजामों की जरूरत बताते हुए कुछ उपायों पर सहमति नजर आई, जिनमें प्रमुख उपाय हैं-

 - परमाणु आतंकवाद से सुरक्षा के मसले पर परस्पर सहयोग के लिए एक मसौदे की आवश्यकता।

 - संपन्न देश अंतर्राष्ट्रीय परमाणु सुरक्षा एजेंसी के अनुदान में बढ़ोत्तरी करें, ताकि विकासशील देशों को आपदा के समय सहायता दी जा सके।

 - असैन्य परमाणु कार्यक्रमों के लिए यूरेनियम के प्रयोग को न्यूनतम स्तर पर लाया जाए।

 - रेडियो ऐक्टिव स्रोतों की सुरक्षा का इंतजाम करना।

 - परमाणु बचाव एवं सुरक्षा के इंतजामों के मानकों को और बेहतर किया जाए।

 - सभी देशों को परमाणु कचरे के निपटान के लिए उचित प्रयास करने की आवश्यकता है।

 - अंतर्राष्ट्रीय परमाणु सुरक्षा एजेंसी एवं इटरपोल को विभिन्न देशों के परमाणु सुरक्षा इंतजामों की जानकारी देने का इंतजाम करना।

 - देशों को परमाणु सुरक्षा के मसले पर न्यायिक सहयोग करने की आवश्यकता।

 - सभी देशों को सुरक्षित परमाणु संस्कृति विकसित करने के प्रयासों को प्रोत्साहन देना चाहिए।

 - परमाणु जखीरे को आतंकवादी शक्तियों से बचाने के लिए सूचना के आदान-प्रदान के पुख्ता इंतजाम करने की आवश्यकता। परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में इंटरपोल को विभिन्न देशों के परमाणु कार्यक्रम की सूचना देने का प्रस्ताव राष्ट्रीय संप्रभुता एवं गोपनीयता का उल्लंघन करता प्रतीत होता है। वहीं परमाणु सुरक्षा के मसले पर परस्पर न्यायिक सहयोग करने का प्रस्ताव भी विभिन्न देशों में दखलंदाजी करने का जरिया हो सकता है। जिसके लिए विकासशील देशों को लामबंदी करने की आवश्यकता है।

 परमाणु ऊर्जा की सुरक्षा को लकर सम्मेलन में व्यक्त की गई चिंता यह संकेत करती है कि अब परमाणु ऊर्जा के विकल्पों की तलाश तेज करनी चाहिए। साथ ही मौजूद विकल्पों में निवेश को प्रोत्साहित करना चाहिए। यूरेनियम के कम प्रयोग करने का ऐलान भी यही साबित करता है कि परमाणु ऊर्जा पर आने वाले समय में निर्भरता कम करने के प्रयासों में तेजी आए ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के भविष्य की दृष्टि से ग्रीनपीस की रिपोर्ट उम्मीदें जगाती है।

जिसमें देशभर में ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के माध्यम से कई गांवों एवं पंचायतों में चल रही सफल परियोजनाओं का ब्यौरा प्रकाशित किया गया है। भारत में केन्द्र सरकार ने भी अक्षय ऊर्जा स्रोतों पर सब्सिडी दी है। हालांकि यह सब्सिडी केवल व्यक्तिगत स्तर ही अक्षय ऊर्जा के प्रयोग को प्रोत्साहित करेगी। आवश्यकता है कि ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के प्रोत्साहन हेतु संस्थागत प्रयास किए जाएं। जिससे आम आदमी को भी उचित दरों पर अक्षय ऊर्जा का लाभ मिल सके।

कर्नाटक सरकार ने हाल ही में अक्षय ऊर्जा कोष स्थापित करने का ऐलान किया है। ऐसे ही प्रयास अन्य राज्य सरकारों द्वारा एवं केन्द्र सरकार के द्वारा किया जाने चाहिए। राजीव गांधी ग्राम विद्युतीकरण परियोजना जैसी फ्लैगशिप योजनाओं में परमाणु ऊर्जा के विकल्पों को प्रोत्साहन देने के प्रयास करना भी एक बेहतर कदम हो सकता है। परमाणु सुरक्षा को लेकर दक्षिण कोरिया में हुए इस वैश्विक सम्मेलन ने परमाणु ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की ओर आगे बढ़ने का संकेत दिया है। ऐसे में परमाणु ऊर्जा के सहारे विकास को गति देने में लगे देशों के लिए यह विचारणीय है कि वे विकास के लिए परमाणु ऊर्जा की ओर बढ़ें अथवा विकल्पों की तलाश करें। उम्मीद है आने वाला समय परमाणु ऊर्जा के रास्ते से वापस लौटने का होगा।

Wednesday, March 28, 2012

बजट का वादा, कृषि ऋण मिलेगा ज्यादा

रोजगार और पलायन आपस में उत्प्रेरक के समान हैं। यदि ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की उपलब्धता होती है तो पलायन कम होता है। इसके उलट यदि रोजगार की उपलब्धता नहीं होती है तो बड़ी आबादी शहरों की ओर पलायन करती है। ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के कम अवसर होने के कारण ग्रामीण भारत शहरों का रूख करने लगा है।

 भारत में बड़ी आबादी के शहरों में पहुंचने के कारण शहर विस्तार की ओर हैं। वहीं ग्रामीण भारत संकुचन की ओर है। पिछले कुछ आम बजट में गांवों को सशक्त बनाने के लिए पर्याप्त धन मुहैया कराया गया है। साथ ही विश्व बैंक ने भी भारत के गांवों को संवारने के लिए कर्ज की राशि में राज्यवार बढ़ोत्तरी की है।

गांवों के सशक्तिकरण के लिए जो रकम दी जाती है वह मुख्यतः सड़क निर्माण, शौचालय एवं जलापूर्ति के लिए दी जाती है। इन सुविधाओं की पूर्ति से जीवन सरल होता है, परंतु इनसे पहले भी कुछ आवश्यकताएं होती हैं। जिनकी पूर्ति प्राथमिकता के आधार पर पहले होनी चाहिए। यह आवश्यकता है गांवों में रोजगार की एवं उसके अनुसार प्रशिक्षण की। वर्ष 2012-13 के आम बजट में वित्त मंत्री ने 99,000 करोड़ रू. शौचालय, पेयजल एवं सामाजिक कल्याण की परियोजनाओं के लिए दिया है। यह राशि पिछले बजट की तुलना में 8,000 अधिक है, जिसकी आवश्यकता भी थी। वहीं ग्रामीण क्षेत्र में सड़क परियोजनाओं हेतु 20 प्रतिशत की वृद्धि करते हुए 24,000 हजार करोड़ रू. दिए जाने का ऐलान वित्त मंत्री ने किया है। इसके अलावा मनरेगा को प्रोत्साहन जारी रखते हुए 33,000 करोड़ रू. दिए जाने का ऐलान किया गया है।

 वित्त मंत्री ने आम बजट में ग्रामीण क्षेत्र की आवश्यकताओं एवं ढांचागत सुधार के लिए राशि आवंटित करने में कोई कोताही नहीं बरती है। प्रणव दा ने किसानों को ऋण देने में उदारता दिखाते हुए पिछले बजट के 1,00,000 करोड़ रू. के मुकाबले 5,75,000 करोड़ रू. का ऐलान किया है। बजट में गांवों के लिए राशि के आवंटन में कोई कमी नहीं की गई है, परंतु नीतिगत खामियां नजर आती हैं। बजट में गांवों में रोजगार उपलब्ध कराने के उचित प्रयासों का अभाव दिखता है। मनरेगा एवं महिला स्व-सहायता समूह जैसी योजनाएं अकुशल एवं अर्द्धकुशल श्रमिकों के लिए वैकल्पिक रोजगार की भांति हैं।

 अकुशल श्रमिक को गांवों में रोजगार मिलना एक सुखद संकेत है लेकिन आदर्श स्थिति वह होगी जब कुशल श्रमिक अथवा सुप्रशिक्षित लोगों को भी गांवों में उचित रोजगार मिल सके। आम बजट में ऐसी योजना का अभाव दिखता है। ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को रोजगार के लिए प्रशिक्षित एवं उनको रोजगार देने की किसी भी ठोस योजना का ऐलान बजट में नहीं है। जिसकी सर्वाधिक जरूरत थी। ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन का प्रमुख कारण है अवसरों की कमी एवं कृषि की बढ़ती लागत। जिसके समाधान के लिए दादा ने कोई खाका प्रस्तुत नहीं किया है। गौरतलब है कि कर्ज की राशि में बढ़ोत्तरी करने से कृषि की लागत कम होने वाली नहीं है, बल्कि कर्ज की राशि बढ़ने से किसानों की समस्याओं में इजाफा हो सकता है। जरूरत थी कृषि की लागत को कम करने की तो दादा ने किसानों के लिए कर्ज लेकर घी पीने का इंतजाम कर दिया।

साफ है कि किसानों को अभी राहत के लिए इंतजार करना पड़ेगा। इसके अलावा रोजगार प्रशिक्षण के लिए भी किसी कारगर योजना शुरू करने का साहस वित्त मंत्री ने नहीं दिखाया है। कृषि की लागत को कम करना एवं ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के प्रशिक्षण की व्यवस्था। यह ऐसे पहलू हैं जिनपर प्रयास करने से बेराजगारी एवं पलायन की समस्या को समान रूप से नियंत्रित किया जा सकता है। जिसके लिए बजट में कोई प्रावधान नहीं है। शायद यह प्राथमिक समस्याएं भारत के अर्थशास्त्री बहुल मंत्रिमंडल की प्राथमिकताओं की वरीयता सूची में निचले पायदान पर हैं। जिसका परिणाम है कि बजट में राशि का आवंटन तो भरपूर है परंतु ग्रामीण भारत के सशक्तिकरण के लिए किसी दूरगामी योजना का नितांत अभाव है।

Thursday, March 22, 2012

मार्केटिंग कंपनी का आमरण अनशन

दिल्ली का जंतर-मंतर। एक ऐसा स्थान जिसे देश भर में धरना-प्रदर्शनों के आयोजन स्थल के रूप में जाना जाता है। जंतर-मंतर प्रतिदिन कई धरना प्रदर्शनों का गवाह बनता है। इन प्रदर्शनों में विभिन्न सामाजिक एवं राजनैतिक संगठनों की सक्रियता रहती है, जो अपनी मांगों को लेकर अनशन अथवा धरने पर बैठते हैं। अनशन और धरना लोकतंत्र में विरोध का एवं अपनी मांगों को मनवाने का प्रमुख हथियार रहा है। जिसके इस्तेमाल में लगी हैं मार्केटिंग कंपनियां।

जंतर-मंतर पर पिछले दो दिनों में अलग ही नजारा देखने को मिला है। यहां करीब 500 लोग अन्ना शैली की टोपी लगाए बैठे हैं। इस टोपी पर लिखा है, बेरोजगार बनाम सरकार। बेरोजगार के रूप में जो लोग अनशन पर बैठे हैं, वे हैं मल्टी लेवल मार्केटिंग कंपनी में कार्यरत लोग। दरअसल, राजस्थान के भीलवाड़ा में वित्तीय अनियमित्ताओं के आरोपों के कारण पुलिस ने कंपनी के स्टोरों पर छापेमारी की थी। वित्तीय अनियमित्ताओं के आरोपों की जांच कर रही पुलिस ने आरसीएम कंपनी के प्रबंधकों के जांच पूरी होने तक देश छोड़ने पर भी रोक लगा दी है।

ऐसे में पुलिसिया कार्रवाई एवं सरकार के कसते शिकंजे से घबराए कंपनी के संचालकों ने अनशन को अपना हथियार बनाया है। विडंबना यह है कि अनशन पर बैठने वाले वे ही लोग हैं जिन्हें कंपनी बडे़ सपने दिखाकर अपने व्यापार में इस्तेमाल करती है। कंपनी उनसे सदस्यता शुल्क लेकर अपना सदस्य बनाती हैं। सदस्यता के बाद उसको सामान बेचने एवं नए लोगों को जोड़ने काम दिया जाता है। जितने लोगों को जोड़ें उतनी ही कमाई। यही इन कंपनियों के धंधे का फंडा है।

मौजूदा समय में बरोजगारी की बढ़ती समस्या एवं लोगों के धन कमाने के लालच ने मल्टी लेवल मार्केटिंग कंपनियों को अवसर प्रदान किया है। यद्यपि भारत में इन कंपनियों का कोई बहुत अधिक विस्तार नहीं है, लेकिन ऐसा शहरी वर्ग इनके शिकंजे में अधिक आया है। जो कामयाबी की आसान राह पकड़ने के लिए लालायित है।

भारत में अभी तक यह कंपनियां अपने विस्तार को तरस रही हैं। इसका कारण यह है कि यह कंपनियां एक ऐसा धंधा करने की बात कहती हैं। जिसमें अपने भरोसेमंद व्यक्ति को अपने नेटवर्क में जोड़कर उससे कमीशन लेने की बात की जाती है। यह कार्य कानूनी तो है परंतु भारत में इसे नैतिक स्वीकार्यता नहीं है। मल्टी लेवल मार्केटिंग कंपनियों पर वर्तमान समय में धोखाधड़ी एवं हेराफेरी के आरोप लगे हैं। जिनमें आरसीएम, कनकधारा, स्टाक गुरू, प्रमुख हैं। केरल सरकार ने तो इन कंपनियों पर कार्रवाई करते हुए इन कंपनियों के लिए दिशानिर्देश जारी कर दिए हैं। जिससे इन कंपनियों के लिए झूठे वादे कर लोगों को ठगना आसान नहीं होगा। राजस्थान सरकार भी ऐसा ही कदम उठा सकती है। जिसके विरोध में आरसीएम ने आमरण अनशन को अपना हथियार बनाया है।

भारत में मल्टी लेवल मार्केटिंग का अस्तित्व सन 1998 में एमवे के आगमन से हुआ था। यह कंपनी मूलतः अमेरिका की है। सच यह है कि मल्टी लेवल मार्केटिंग की विधा की शुरूआत ही अमेरिका के कैलिफोर्निया से हुई है। मल्टी लेवल मार्केटिंग उपभोक्तावादी दुनिया का वह फंडा है, जो उपभोक्ता के करीबी व्यक्ति को ही विक्रेता के रूप में उसके पास भेजती है। मल्अी लेवल मार्केटिंग के धंधे में बाजार का प्रतिनिधि उपभोक्ता के परस उसका मित्र अथवा रिश्तेदार बनकर जाता है और उसको वस्तु के उपभोग अथवा उपयोग के लिए आकर्षित करता है। इस विधा की आवश्यकता उस वक्त पड़ती है, जब बाजार आम तरकीबों से उपभोक्ताओं को आकर्षित नहीं कर पाता है।

मल्टी लेवल मार्केटिंग कंपनियों का यह अनशन भारत में उनके विस्तार न होने की चिंता का परिणाम है। जिसको लेकर इन कंपनियों ने अनशन जैसे उपक्रम का सहारा लिया है। दरअसल, मल्टी लेवल मार्केटिंग कंपनियों को उनके मूल स्थान अमेरिका में ही कामयाबी नहीं मिल पाई है। जैसे-

अमेरिका के फेडरल ट्रेड कमीशन ने 1979 में एमवे को मूल्य निर्धारण एवं आय के अतिरंजित दावे करने का दोषी पाया था। जिसके बाद कमीशन ने इन कंपनियों पर निगरानी रखे जाने की बात कही थी, जो उत्पाद की बिक्री से ज्यादा लोगों की भर्ती पर विश्वास रखती हैं।

वहीं वाल्टर जे कार्ल ने अपने लेख में कहा है- ‘‘यह कंपनियां उपभोक्ताओं के करीबी लोगों का इसी प्रकार इस्तेमाल करती हैं, जैसे किसी व्यापारिक संगठन द्वारा बाइबल का अनैतिक इस्तेमाल करना।‘‘

स्पष्ट है कि मल्टी लेवल मार्केटिंग का फंडा उस पूंजीवादी व्यवस्था में ही खारिज हो गया है, जहां उसकी शुरूआत हुई थी। ऐसे में भारत में पूंजीवाद के इस उपक्रम को कामयाबी मिलना असंभव प्रतीत होता है। जंतर-मंतर पर धरने पर बैठी इन कंपनियों की यह हालत बयां करती है कि भारत में निहायती पूंजीवादी यह उपक्रम अपना कारोबार समेटने के कगार पर हैं।

सांस्कृतिक पत्रकारिता के प्रकाशस्तंभ- हनुमान प्रसाद पोद्दार

भारत में पत्रकारिता का क्षेत्र राजनीति, अर्थव्यवस्था और वैश्विक उथल-पुथल की जानकारी देने तक ही सीमित नहीं है। भारत वह संस्कृति है जो विभिन्न आघातों और संक्रमण के बाद भी अपने मूल रूप में विद्यमान है। भारत की महान संस्कृति के यशोगान के लिए पत्रकारिता ने भी अपना योगदान दिया है। जिसे प्रायः सांस्कृतिक पत्रकारिता भी कहते हैं। संस्कृति का व्याख्यान करना और उसके आयामों को स्पष्ट करने का कार्य सांस्कृतिक पत्रकारिता के माध्यम से होता आया है। भारत में सांस्कृतिक पत्रकारिता की श्रृंखला में गीता प्रेस के संस्थापक सदस्य रहे हनुमान प्रसाद पोद्दार का नाम भी उल्लेखनीय है।

हनुमान प्रसाद पोद्दार का जन्म शनिवार, 17 दिसंबर, 1890 को राजस्थान के रतनगढ़ में हुआ था। उनके पिता का नाम भीमराज तथा माता का नाम रिखीबाई था। बाल्यावस्था में ही बालक हनुमान की माता रिखीबाई कभी न पूर्ण होने वाली कमी देकर चली गईं। उसके पश्चात दादी मां रामकौर देवी ने ही बालक का पालन-पोषण किया। दादी रामकौर देवी के सान्निध्य में बालक को भारतीय परंपरा और संस्कृति विरासत में मिली थीं, जिसकी उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से आजीवन सेवा की।

‘कल्याण‘ मासिक पत्र के संपादक के रूप में पोद्दार जी का पत्रकारिता के क्षेत्र में विशेष स्थान है। ‘कल्याण‘ के संपादक के रूप में हनुमान प्रसाद जी को विश्व भर के आध्यात्म प्रेमियों के बीच लोकप्रियता मिली। ‘कल्याण‘ के संपादन के अलावा उनको गीता-प्रेस में दिए गए योगदान के लिए जाना जाता है। गीता-प्रेस के आजीवन ट्रस्टी रहे पोददार जी की गीता-प्रेस के संस्थापक जयदयाल गोयनका से प्रगाढ़ मित्रता थी। जयदयाल गोयनका को गीता में गहरी रूचि थी, वे प्रतिदिन गीता का अध्ययन किया करते थे और विभिन्न स्थानों में घूम-घूम कर गीता का प्रचार भी किया करते थे। गीता को आमजन तक पहुंचाने के लिए शुद्ध पाठवाली पुस्तक की आवश्यकता थी जो उस समय उपलब्ध नहीं थी।

गोयनका जी ने गीता की व्याख्या कर कलकत्ता के वणिक प्रेस से पांच हजार प्रतियां छपवायीं। जिसमें मुद्रण से संबंधित विभिन्न गलतियां थीं, अतः उन्होंने धार्मिक-आध्यात्मिक प्रकाशन हेतु सन 1923 में गीता-प्रेस की स्थापना की। गीता-प्रेस की स्थापना यद्यपि जयदयाल गोयनका ने की, किंतु संपादन की जिम्मेदारी हनुमान प्रसाद पोद्दार के पास ही थी। वे गीता-प्रेस के ट्रस्टी भी थे।

गीता प्रेस के माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति की सेवा करते हुए भारत के समृद्ध ग्रंथों एवं परंपराओं की व्याख्या कर उनको जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया। भारतीय संस्कृति को लेकर किसी प्रकाशन ने यदि कोई पहल की है तो निर्विवाद रूप से गीता प्रेस उनमें से प्रथम है। हनुमान प्रसाद पोद्दार ने मुख्यतः आध्यात्मिक विषयों पर ही लिखा है, उन्होंने अपने लेखन की शुरूआत विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं निबंधों के लेखन से की थी। उनके लेख एवं निबंधों का पुस्तक रूप में संकलन कर उनको श्रद्धांजलि देते हुए ‘पावन स्मरण‘ किया गया है। उनके लेखों एवं निबंधों को निम्न चार श्रेणियों में दिया गया है-

1- आध्यात्मिक

2- राष्ट्रीय

3- नीतिमूलक

4- विधि (परामर्शमूलक, संस्मरणात्मक, सामाजिक)

उन्होंने निबंधों एवं लेखों के अलावा विभिन्न टीका साहित्य का भी सर्जन किया। हनुमान प्रसाद पोद्दार ने रामचरितमानस, विनयपत्रिका, दोहावली की विशद टीका प्रस्तुत की।सन 1927 में गीता-प्रेस से ही ‘कल्याण‘ का भी प्रकाशन होने लगा। ‘कल्याण‘ के प्रकाशन की शुरूआत का भी बड़ा रोचक प्रसंग है। सन 1926 में मारवाड़ी अग्रवाल महासभा का अधिवेशन दिल्ली में होना था। उस अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष आत्माराम खेमका थे। वे शास्त्रज्ञ थे, किंतु हिंदी में व्याख्यान नहीं लिख सकते थे। सेठ जयदयाल गोयनका की प्रेरणा से स्वागत भाषण लिखने की जिम्मेदारी हनुमान प्रसाद पोद्दार को दी गई। हनुमान प्रसाद जी के लिखे स्वागत भाषण ने अधिवेशन में आए लोगों को मुग्ध कर दिया। इस स्वागत भाषण को सुनने के बाद सेठ जमुनालाल बजाज ने हनुमान प्रसाद जी को पत्र चलाने का प्रस्ताव दिया। यही प्रस्ताव आगे चलकर ‘कल्याण‘ मासिक पत्र के रूप में सामने आया। ‘कल्याण‘ का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ जिसके मुख पृष्ठ पर ‘वन्दौ चरन सरोज तुम्हारे‘ पद छपा था। संपादकीय पृष्ठ पर ‘कल्याण‘ का उददेश्य लिखित था जिसके शब्द इस प्रकार थे-

‘‘कल्याण की आवश्यकता सब को है। जगत में ऐसा कौन मनुष्य है जो अपना कल्याण नहीं चाहता। उसी आवश्यकता का अनुभव कर आज यह ‘कल्याण‘ भी प्रकट हो रहा है।‘‘(हनुमान प्रसाद पोद्दार, डा. ब्रजलाल वर्मा)

‘कल्याण‘ के लिए हनुमान जी ने जो नीति बनाई थी उसमें विज्ञापनों के लिए कोई स्थान नहीं था। ‘कल्याण‘ की शुरूआत में पोद्दार गांधी जी से मिलने गए थे, उस मुलाकात में ‘कल्याण‘ को लेकर जो सीख गांधी जी ने दी हनुमान प्रसाद पोद्दार ने उसका सदा पालन किया। ‘कल्याण‘ की शुरूआत की बात सुनकर गांधी जी अत्यधिक हर्षित होते हुए बोले-

‘‘कल्याण में दो नियमों का पालन करना। एक तो कोई बाहरी विज्ञापन नहीं देना दूसरे, पुस्तकों की समालोचना मत छापना‘‘।

अपने इन निर्देशों को ठीक प्रकार से समझाते हुए गांधी जी ने कहा- ‘‘तुम अपनी जान में पहले यह देखकर विज्ञापन लोगे कि वह किसी ऐसी चीज का न हो जो भद्दी हो और जिसमें जनता को धोखा देकर ठगने की बात हो। पर जब तुम्हारे पास विज्ञापन आने लगेंगे और लोग उनके लिए अधिक पैसे देने लगेंगे तब तुम्हारे विरोध करने पर भी…साथी लोग कहेंगे…देखिए इतन पैसा आता है क्यों न विज्ञापन स्वीकार कर लिया जाए?‘‘। (पत्रकारिता के युग निर्माता- रजनीश कुमार चतुर्वेदी)

महात्मा गांधी की इस सीख का ही परिणाम था कि हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने विज्ञापनों के लिए अपने पत्र में कोई स्थान नहीं रखा था। ‘कल्याण‘ ने बहुत कम समय में ही पत्रकारिता जगत में अपनी प्रतिष्ठा कायम कर ली थी। ‘कल्याण‘ की लोकप्रियता को देखते हुए गीता-प्रेस के चिंतकों का यह विचार बना कि ‘कल्याण‘ की रचनाओं को विश्व भर के आध्यात्म प्रेमियों तक पहुंचाया जाना चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु जनवरी, 1934 में ‘कल्याण‘ के अंगे्रजी संस्करण की शुरूआत ‘कल्याण-कल्पतरू‘ नाम से की गई।

सांस्कृतिक पत्रकारिता के स्तंभ हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के पत्रकार जीवन में ‘कल्याण‘ के बाद भी कई पड़ाव आने शेष थे। जो ‘कल्याण-कल्पतरू‘ एवं ‘महाभारत मासिक पत्रिका‘ के रूप में सामने आए। ‘महाभारत मासिक पत्रिका‘ का प्रकाशन सन 1955 से लेकर सन 1966 तक अनवरत चलता रहा।

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की पत्रकारिता भारत की महान सनातन संस्कृति के यशोगान को समर्पित थी। उनकी लेखनी भारतीय संस्कृति के रक्षार्थ ही चला करती थी, जिसकी बानगी उनके एक लेख के इन शब्दों में मिलती है-

‘‘भारतवर्ष ऋषि-मुनियों की भूमि और धर्म का क्षेत्र है। यहां गो-हत्या की कल्पना नहीं होनी चाहिए। यहां आज भारतीयों की स्वतंत्र सरकार होने पर भी भारतवासी अत्यंत दुखपूर्ण हृदय से प्रतिदिन 30 हजार गायों की नृशंस हत्या देख रहे हैं और सरकार से इस महापाप का परित्याग कर देने के लिए अनुरोध कर रहे हैं। धर्म प्राण भारत में गो-हत्या निवारण के लिए आंदोलन करना तथा साधु-महात्माओं को जेल जाना और प्राणोत्सर्ग करना पड़ रहा है। यह वास्तव में लज्जा और दुर्भाग्य की बात है‘‘। (हनुमान प्रसाद पोद्दार, डा. ब्रजलाल वर्मा)

अपने संपूर्ण साहित्यिक एवं पत्रकारिता के जीवन में हनुमान प्रसाद पोद्दार अपने लेखन के माध्यम से भारतीय संस्कृति का सुव्याख्यान करते रहे। सन 1969 में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी पेट की गंभीर बीमारी के शिकार हो गए, लंबी बीमारी के पश्चात 22 मार्च, सन 1971 को हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने अपने प्राण त्याग दिए। विश्व कल्याण की भावना को संचारित करने वाला वह महामानव इस दुनिया से विदा हो गया।

उनका जाना भारत के सांस्कृतिक लेखन की अपूर्णीय क्षति थी। हनुमान प्रसाद पोद्दार को श्रद्धांजलि देते हुए तत्कालीन नेपाल नरेश ने कहा-

‘‘मैं तीन दशकों से भी अधिक समय से श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार को ‘कल्याण‘ में प्रकाशित उनके लेखों के माध्यम से जानता हूं और मैं कह सकता हूं कि श्री पोद्दार का जीवन एक उत्थानकारी और महान उद्देश्य के प्रति पूर्ण समर्पण था।‘‘

हनुमान प्रसाद पोद्दार ने भारत की सनातन हिन्दू संस्कृति की आजीवन सेवा की थी। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के शब्दों में-

‘‘श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार ने हिन्दू-धर्म की स्मरणीय सेवाएं की हैं। यह सर्वथा उचित है कि उनकी सेवाओं को उपयुक्त ढंग से सम्मानित किया जाए‘‘।

पोद्दार जी ने भारतीय संस्कृति एवं धार्मिक साहित्य की सेवा की। इसका ही सुपरिणाम है कि गीता-प्रेस ने उचित मूल्य एवं सरल भाषा में भारत के सामाजिक धार्मिक साहित्य को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया है। उनके योगदान को रेखांकित करते हुए लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कहा-

‘‘कल्याण के संपादक और गीता-प्रेस के संचालक-प्रकाशक स्वर्गीय श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार ने अपने प्रकाशनों के माध्यम से भारतीय साहित्य की विशेषकर धार्मिक साहित्य की मूल्यवान सेवा की है। आजकल धर्मनिरपेक्षता के नाम पर धर्मग्रंथों की उपेक्षा करने का रिवाज सा अपने देश में चल पड़ा है। इस दृष्टि से यदि देखें तो गीताप्रेस ने अपने धर्म-ग्रंथों को वृहत पैमाने पर प्रचारित और प्रकाशित कर एक महत्वपूर्ण सेवा कार्य किया है और इसका मुख्य श्रेय हनुमान प्रसाद पोद्दार के साधनापूर्ण समर्पित जीवन एवं व्यक्तित्व को है। (हनुमान प्रसाद पोद्दार, डा. ब्रजलाल वर्मा)

लोकनायक जयप्रकाश नारायण की यह बात अक्षरशः सत्य जान पड़ती है कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर विस्मृत कर दिए गए ग्रंथों के पुनरावलोकन के कार्य में पोद्दार जी का महत्वपूर्ण योगदान है। यद्यपि पोद्दार जी हमारे बीच नहीं हैं किंतु, सांस्कृतिक पत्रकार के रूप में दिया गया उनका योगदान पत्रकारिता में उपजी सांस्कृतिक रिक्तता को पूर्ण करने की प्रेरणा देता है।

Monday, March 19, 2012

शतक बनना, राष्ट्रीय समस्या का सुलझना

भारत में क्रिकेट की बात हो और सचिन चर्चा से परे हों ऐसा कम ही देखने को मिलता है। सचिन के नाम को भारत में क्रिकेट प्रेमी क्रिकेट का पर्याय मानते हैं। सचिन की महान उपलब्धियों ने देश को गौरवान्वित होने के ढेरों मौके दिए हैं। कह सकते हैं कि वे अपने लाजवाब खेल की वजह से देश के गौरव हैं। पिछले एक बरस से देश के और क्रिकेट जगत के गौरव सचिन अपने सौवें शतक के इंतजार में थे। संयोग से यह इंतजार उस दिन समाप्त हुआ जब इंतजार के बाद ही देश का आम बजट भी संसद में प्रस्तुत किया जा रहा था।

देश का आम बजट देश के वर्ष भर की आय-व्यय का लेखा-जोखा होता है। जिसका प्रभाव हर खास-ओ-आम पर पड़ता है। ऐसे में यह बजट गणतंत्र के नागरिकों के लिए महत्व का विषय होता है। गणतंत्र के नागरिकों के लिए महत्व के विषय की जानकारी को उन तक पहुंचाने का दायित्व जनसंचार माध्यमों का है। दायित्व होना और उसे समझना दोनों ही अपने आप में अलग विषय हैं। शायद भारतीय मीडिया उस समझ से अभी परे ही है।

देश का बजट और सचिन का शतक। इसमें मीडिया की प्राथमिकता में क्या होना चाहिए यह कोई विचारणीय प्रश्न नहीं। निर्विवाद रूप से मीडिया की पहली प्राथमिकता बजट के समाचार एवं उसके विभिन्न पहलुओं को लोगों तक पहुंचाना होना चाहिए। पर ऐसा हुआ नहीं। मीडिया अपने टीआरपी के झंझावतों के मददेनजर सचिन के महाशतक के विभिन्न बनावटी पहलुओं को लोगों को बताता रहा। वहीं इलैक्ट्रोनिक मीडिया की स्क्रीन और प्रिंट मीडिया के पृष्ठों में खबरों के बजट में आम बजट को सही अनुपात में प्रतिनिधितव न मिल सका।

जहां बजट को उसके अनुपात में महत्व मिला वहां सर्वाधिक प्रयास आम बजट को धूमिल करने के ही थे। अर्थात सचिन के शतक के मुकाबले देश के बजट को बौना साबित करने का सुनियोजित प्रयास। उदाहरण के तौर पर दैनिक जागरण की बैनर खबर को ही लें, जिसका शीर्षक था ‘‘सरकार जीरो-सचिन हीरो‘‘। यह बजट को नकारने जैसा शीर्षक था। लगभग इसी तरह का प्रयास करते हुए अमर उजाला का शीर्षक था ‘‘दिल लिया-दर्द दिया‘‘। इनसे बड़ी लकीर खींचते हुए नई दुनिया ने सचिन तेंडुलकर की आदमकद तस्वीर प्रस्तुत करने का प्रयास किया। उस तस्वीर के नीचे एक कोने में देश के बजट को भी जगह मिली थी।

कह सकते हैं कि दादा के बजट की दादागिरी खबरों में नहीं चली। वहीं खबरिया चैनलों में भी क्रिकेट विशेषज्ञ आंकड़ों के माध्यम से बता रहे थे कि सचिन का महाशतक देशवासियों के लिए कितनी राहत का विषय हो सकता है। लेकिन आम बजट आम आदमी के लिए क्या सहूलियतें और दुश्वारियां लेकर आया है, इसकी जानकारी देने वाले उपलब्ध नहीं थे।

खबरों के बजटीकरण में देश के आम बजट के पिछड़ने पर यह पंक्तियां सटीक जान पड़ती हैं-

देश इस समय कई समस्याओं से गुजरा है,

सचिन का शतक समस्या बन उभरा है।

बात सही है कि सचिन के शतक को मीडिया ने राष्ट्रव्यापी समस्या के सुलझने जैसा बताया। उल्लेखनीय है कि जिस मैच में सचिन ने महाशतक बनाया उसी मैच में किरकिरी कराते हुए भारतीय टीम औसत दर्जे की टीम बांग्लादेश से पराजित हो गई। भारतीय टीम की यह हार भी खबरों का हिस्सा नहीं बनी। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या भारतीय टीम की जीत से महत्वपूर्ण सचिन का शतक है।

उल्लेखनीय है कि आम बजट से अधिक महत्व देते हुए जिस क्रिकेट को अधिक महत्व दिया गया उसमें भी भारत की हार की अपेक्षा सचिन का शतक चर्चा का विषय रहा। यह विचारणीय है कि राष्ट्रीय मीडिया के लिए राष्ट्रीय महत्व का विषय सचिन का शतक है, या आम बजट। हालांकि आम बजट को लेकर मीडिया की यह उदासीनता कई मामलों में घिरी सरकार के लिए राहत भरी हो सकती है। किंतु, भारत का आम जनमानस बजट की समुचित जानकारी से वंचित रह गया इसका जिम्मेदार किसे ठहराया जाएगा। मीडिया की बेरूखी को या सचिन के शतक को।

Sunday, March 11, 2012

एनजीओ के ‘रंगे हाथ’

‘‘तमिलनाडु में कूडनकुलम परियोजना के विरोध के पीछे विदेशी मदद से संचालित एनजीओ का हाथ है।” पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने जैसे ही यह बयान दिया, भारत की खुफिया एजेंसियां तथा गृह मंत्रालय छानबीन एवं कार्रवाई में व्यस्त दिखे। आनन-फानन में कूडनकुलम परियोजना के विरोध के पीछे सक्रिय दस एनजीओ पर विदेशी सहायता नियमन के उल्लंघन का मामला दर्ज किया गया, जिनकी जांच सीबीआई को सौंप दी गई। गृहमंत्रालय के अनुसार इन एनजीओ पर आरोप है कि वे धर्मार्थ कार्यों हेतु प्राप्त धन को परमाणु परियोजनाओं के विरोध में खर्च कर रहे थे।

प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी. नारायणसामी ने कहा कि ‘‘ऐसा पता चला है कि एनजीओ कूडनकुलम में परमाणु संयंत्र विरोधी अभियान में विदेशी धन का इस्तेमाल कर रहे हैं।” इसी मामले में अंग्रेजी दैनिक ‘द पायनियर‘ ने अपनी रिपोर्ट में एनजीओ को प्राप्त विदेशी मदद का विस्तृत ब्यौरा दिया है। ‘द पायनियर‘ की रिपोर्ट के अनुसार वनवासी बाहुल्य क्षेत्रों जैसे उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड में 2,325 पंजीकृत एनजीओ हैं, जिन्हें 2009-10 में 600 करोड़ रूपये की विदेशी मदद प्राप्त हुई। वहीं पूर्वोत्तर राज्यों में 816 पंजीकृत एनजीओ को 2009-10 में ही 251 करोड़ रू. की विदेशी मदद प्राप्त हुई।

एनजीओ को मिलने वाली मदद पर एक नजर

राज्य एनजीओ की संख्या मिलने वाली राशि

उड़ीसा 1240 214.32 करोड़

झारखंड 465 159.65 करोड़

मध्य प्रदेश 419 142.62 करोड़

छत्तीसगढ़ 231 64.99 करोड़

असम 253 93.10 करोड़

मेघालय 123 63.91 करोड़

मणिपुर 265 36.81 करोड़

नागालैण्ड 78 29.03 करोड़

अरूणाचल 23 9.04 करोड़

मिजोरम 34 8.38 करोड़

त्रिपुरा 32 7.24 करोड़

सिक्किम 8 3.11 करोड

इन सभी राज्यों में उड़ीसा पहले स्थान पर है, जहां के एनजीओ को सबसे अधिक विदेशी मदद मिलती है। गौरतलब है कि मतांतरण के विरोध को लेकर सांप्रदायिक दंगे भी सबसे अधिक उड़ीसा में ही होते रहे हैं। ऐसे में विदेशी मदद से संचालित यह एनजीओ किस सामाजिक कार्य पर अपने धन को खर्च कर रहे हैं, यह जगजाहिर होता है। उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड एवं मध्य प्रदेश वह राज्य हैं जहां वनवासी लोगों की बड़ी आबादी निवास करती है। लंबे समय से सेवा एवं शिक्षा के बहाने मिशनरियां भी इन क्षेत्रों में कार्यरत रही हैं, जिनपर सेवा कार्यों के बदले मतांतरण करवाने के आरोप लगते रहे हैं। कमोबेश यही स्थिति देश के सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र पूर्वोत्तर की भी है।

एनजीओ के हाथ कहीं देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त तो नहीं हैं, इसकी पड़ताल करने में भारत सरकार ने देर कर दी है। यह पड़ताल अब भी शुरू नहीं होती यदि प्रधानमंत्री एनजीओ की भूमिका पर संदेह न जताते। उल्लेखनीय पहलू यह है कि एनजीओ धर्मार्थ कार्यों के बहाने अपने एजेंडे को बढ़ाने में लगे हुए हैं। जांच एजेंसियों को यह पड़ताल करनी चाहिए कि एनजीओ के आवरण में कहीं मिशनरियां तो अपने काम को अंजाम देने में नहीं लगी हैं। गौरतलब है कि सेवा कार्यों के बहाने मिशनरियां मतांतरण के एजेंडे को साकार करने में संलग्न हैं, ऐसे में यह जांच का विषय है कि पंजीकृत एनजीओ के नाम से आने वाला धन इन मिशनरियों के हवाले तो नहीं हो रहा है।

एनजीओ को विदेशों से मिलने वाली भारी मदद ध्यान आकर्षित करती है कि आखिर ऐसे कौन से उद्देश्य अथवा कार्य हैं जिनके लिए विदेशों से बड़ी मदद मिल रही है। क्या कारण है कि जिन एनजीओ को भारत में ही प्रशंसा नहीं मिल पा रही है, उनको अमेरिका एवं अन्य पश्चिमी देशों से मदद एवं पुरस्कार प्राप्त हो रहे हैं ? इन पुरस्कारों और फंडिंग के पीछे का खेल ही है, विभिन्न परियोजनाओं का सुनियोजित विरोध एवं मतांतरण।

अब यदि भारत की खुफिया एजेंसियों की इस मामले में नींद खुल ही गई है तो उसे इन एनजीओ को विदेशों से मिलने वाली मदद पर नजर रखनी चाहिए। इसके अलावा यह भी एक कारगर उपाय हो सकता है कि यह एनजीओ अपने कार्यों की रिपोर्ट एवं उन पर खर्च राशि के बारे में संबंधित प्रदेश एवं केन्द्र सरकार को अवगत कराएं। यही देशहित में होगा, क्योंकि एनजीओ के माध्यम से विदेशी हितों को भारत में संचालित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।