Sunday, March 11, 2012

एनजीओ के ‘रंगे हाथ’

‘‘तमिलनाडु में कूडनकुलम परियोजना के विरोध के पीछे विदेशी मदद से संचालित एनजीओ का हाथ है।” पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने जैसे ही यह बयान दिया, भारत की खुफिया एजेंसियां तथा गृह मंत्रालय छानबीन एवं कार्रवाई में व्यस्त दिखे। आनन-फानन में कूडनकुलम परियोजना के विरोध के पीछे सक्रिय दस एनजीओ पर विदेशी सहायता नियमन के उल्लंघन का मामला दर्ज किया गया, जिनकी जांच सीबीआई को सौंप दी गई। गृहमंत्रालय के अनुसार इन एनजीओ पर आरोप है कि वे धर्मार्थ कार्यों हेतु प्राप्त धन को परमाणु परियोजनाओं के विरोध में खर्च कर रहे थे।

प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी. नारायणसामी ने कहा कि ‘‘ऐसा पता चला है कि एनजीओ कूडनकुलम में परमाणु संयंत्र विरोधी अभियान में विदेशी धन का इस्तेमाल कर रहे हैं।” इसी मामले में अंग्रेजी दैनिक ‘द पायनियर‘ ने अपनी रिपोर्ट में एनजीओ को प्राप्त विदेशी मदद का विस्तृत ब्यौरा दिया है। ‘द पायनियर‘ की रिपोर्ट के अनुसार वनवासी बाहुल्य क्षेत्रों जैसे उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड में 2,325 पंजीकृत एनजीओ हैं, जिन्हें 2009-10 में 600 करोड़ रूपये की विदेशी मदद प्राप्त हुई। वहीं पूर्वोत्तर राज्यों में 816 पंजीकृत एनजीओ को 2009-10 में ही 251 करोड़ रू. की विदेशी मदद प्राप्त हुई।

एनजीओ को मिलने वाली मदद पर एक नजर

राज्य एनजीओ की संख्या मिलने वाली राशि

उड़ीसा 1240 214.32 करोड़

झारखंड 465 159.65 करोड़

मध्य प्रदेश 419 142.62 करोड़

छत्तीसगढ़ 231 64.99 करोड़

असम 253 93.10 करोड़

मेघालय 123 63.91 करोड़

मणिपुर 265 36.81 करोड़

नागालैण्ड 78 29.03 करोड़

अरूणाचल 23 9.04 करोड़

मिजोरम 34 8.38 करोड़

त्रिपुरा 32 7.24 करोड़

सिक्किम 8 3.11 करोड

इन सभी राज्यों में उड़ीसा पहले स्थान पर है, जहां के एनजीओ को सबसे अधिक विदेशी मदद मिलती है। गौरतलब है कि मतांतरण के विरोध को लेकर सांप्रदायिक दंगे भी सबसे अधिक उड़ीसा में ही होते रहे हैं। ऐसे में विदेशी मदद से संचालित यह एनजीओ किस सामाजिक कार्य पर अपने धन को खर्च कर रहे हैं, यह जगजाहिर होता है। उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड एवं मध्य प्रदेश वह राज्य हैं जहां वनवासी लोगों की बड़ी आबादी निवास करती है। लंबे समय से सेवा एवं शिक्षा के बहाने मिशनरियां भी इन क्षेत्रों में कार्यरत रही हैं, जिनपर सेवा कार्यों के बदले मतांतरण करवाने के आरोप लगते रहे हैं। कमोबेश यही स्थिति देश के सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र पूर्वोत्तर की भी है।

एनजीओ के हाथ कहीं देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त तो नहीं हैं, इसकी पड़ताल करने में भारत सरकार ने देर कर दी है। यह पड़ताल अब भी शुरू नहीं होती यदि प्रधानमंत्री एनजीओ की भूमिका पर संदेह न जताते। उल्लेखनीय पहलू यह है कि एनजीओ धर्मार्थ कार्यों के बहाने अपने एजेंडे को बढ़ाने में लगे हुए हैं। जांच एजेंसियों को यह पड़ताल करनी चाहिए कि एनजीओ के आवरण में कहीं मिशनरियां तो अपने काम को अंजाम देने में नहीं लगी हैं। गौरतलब है कि सेवा कार्यों के बहाने मिशनरियां मतांतरण के एजेंडे को साकार करने में संलग्न हैं, ऐसे में यह जांच का विषय है कि पंजीकृत एनजीओ के नाम से आने वाला धन इन मिशनरियों के हवाले तो नहीं हो रहा है।

एनजीओ को विदेशों से मिलने वाली भारी मदद ध्यान आकर्षित करती है कि आखिर ऐसे कौन से उद्देश्य अथवा कार्य हैं जिनके लिए विदेशों से बड़ी मदद मिल रही है। क्या कारण है कि जिन एनजीओ को भारत में ही प्रशंसा नहीं मिल पा रही है, उनको अमेरिका एवं अन्य पश्चिमी देशों से मदद एवं पुरस्कार प्राप्त हो रहे हैं ? इन पुरस्कारों और फंडिंग के पीछे का खेल ही है, विभिन्न परियोजनाओं का सुनियोजित विरोध एवं मतांतरण।

अब यदि भारत की खुफिया एजेंसियों की इस मामले में नींद खुल ही गई है तो उसे इन एनजीओ को विदेशों से मिलने वाली मदद पर नजर रखनी चाहिए। इसके अलावा यह भी एक कारगर उपाय हो सकता है कि यह एनजीओ अपने कार्यों की रिपोर्ट एवं उन पर खर्च राशि के बारे में संबंधित प्रदेश एवं केन्द्र सरकार को अवगत कराएं। यही देशहित में होगा, क्योंकि एनजीओ के माध्यम से विदेशी हितों को भारत में संचालित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।

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