Friday, April 20, 2012

पानी के लाले, व्यवस्था बाजार के हवाले


जल ही जीवन है। जीवन को बनाए रखने के लिए अपरिहार्य जल की उपलब्धता निरंतर कम हो रही है। बढ़ती जनसंख्या एवं शहरीकरण के प्रसार ने जल संकट को गहराने का काम किया है। भारत जैसे अधिक आबादी वाले देश के लिए जल संकट बढ़ना खतरे की घंटी है। भारत में विश्व की 17 प्रतिशत आबादी निवास करती है। जबकि विश्व का केवल 4 प्रतिशत नवीकरणीय जल संसाधन भारत में उपलब्ध है। ऐसे में भारत के लिए आने वाला समय जल की उपलब्धता की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण रहने वाला है।
भारत में जल समस्या- देश के 604 जिलों में से 246 जिले सूखे की मार झेल रहे हैं। यानि लगभग आधा देश ही सूखे की चपेट में है। जबकि प्रदेश की सरकारें केवल जिलों को सूखाग्रस्त घोषित करने में ही मुस्तैद दिखाई पड़ती हैं। इस कार्रवाई के बाद राहत पैकेज के रूप में सांत्वना राशि का वितरण करके कर्तव्य की इतिश्री करने का काम सरकारों ने किया है। जबकि जल की कम होती उपलब्धता की मूल समस्या के निदान के विषय में सरकारों का रवैया उपेक्षापूर्ण दिखाई देता है। नासा की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में जल के अंधाधुंध दोहन के कारण देश के कई राज्यों में जल स्तर तेजी से गिरा है। सन 2002 से 2008 के दौरान किए गए अध्ययन के मुताबिक नासा ने बताया है कि राजस्थान, पंजाब और हरियाणा हर साल औसतन 17.7 अरब क्यूबिक मीटर जल का दोहन कर रहे हैं।
जबकि केन्द्र के अनुमान के मुताबिक इन राज्यों को प्रति वर्ष 13.2 अरब क्यूबिक मीटर पानी ही निकालना चाहिए। अर्थात तीनों राज्य तीस फीसदी अधिक जल का दोहन कर रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में भूजल का 58 फीसदी हिस्से का ही नवीनीकरण हो पाता है। स्पष्ट है किभूजल के अत्यधिक दोहन ने जल की समस्या में इजाफा करने का काम किया है। सूखाग्रस्त क्षेत्र का बढ़ता दायरा एवं उपलब्ध भूजल का प्रदूषित होना भविष्य की भयावह तस्वीर को प्रस्तुत करता है।
देश के विभिन्न हिस्सों का भूजल तेजी से प्रदूषित हो रहा है। जिससे लोगों को प्रदूषित जल ही पीना पड़ रहा है। जहां मीठे जल की उपलब्धता है उन क्षेत्रों में जल का दोहन इतना अधिक है किजल का स्तर निरंतर गिरावट की ओर है। ऐसे में देश में मीठे एवं स्वच्छ जल को कब्जाने को लेकर अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों ने भी अपनी निगाह गड़ा रखी हैं। देश के सभी नागरिकों कें लिए स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता एवं सिंचाई के लिए जल की पर्याप्त उपलब्धता सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके उलट सरकारी प्राथमिकताएं कुछ और ही नजर आती हैं। जिसका उदाहरण है जल संसाधन मंत्रालय द्वारा तैयार जल नीति प्रारूप-2012
जल नीति प्रारूप-2012- जल संसाधन मंत्रालय द्वारा तैयार प्रारूप में जल के उचित प्रबंध एवं संरक्षण हेतु सार्वजनिक-निजी भागीदारी की पैरोकारी की गई है। प्रस्तावित जल नीति के अनुसार जल के संरक्षण, आपूर्ति एवं प्रबंधन हेतु संस्थागत प्रयास किए जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए निम्न सुझाव दिए हैं-
- प्रत्येक राज्य में एक जल विनियमन प्राधिकरण की स्थापना की जानी चाहिए। प्राधिकरण अन्य बातों के साथ-साथ इस नीति में उल्लिखित नियमों के अनुसार सामान्यतः स्वायत्त ढंग से जल शुल्क प्रणाली तथा प्रभारों का निर्धारण और विनियमन करना चाहिए। प्राधिकरण को शुल्क प्रणाली के अलावा आवंटन का विनियमन करने, निगरानी प्रचालन करने, निष्पादन की समीक्षा करने तथा नीति में परिवर्तन करने संबंधी सुझाव इत्यादि देने जैसे कार्य भी करने चाहिए। राज्य में जल विनियमन प्राधिकरण को अंतः राज्यीय जल संबंधी विवादों का समाधान करने में भी सहयोग देना चाहिए।
जल संसाधन की आयोजना, कार्यान्वन और प्रबंधन हेतु जिम्मेदार संस्थानों के सुदृढ़ीकरण हेतु राज्य को ‘सेवा प्रदाता‘ से सेवाओं के विनियामकों और व्यवस्थाधारकों की भूमिका में धीरे-धीरे हस्तांतरित होना चाहिए। जल संबंधी सेवाओं को समुचित ‘‘सार्वजनिक निजी भागीदारी‘‘ के उचित प्रारूप के अनुसार समुदाय तथा/अथवा निजी क्षेत्र को हस्तांतरित किया जाना चाहिए।
- दोनों सतही और भूजल की जल गुणवत्ता की निगरानी के लिए प्रत्येक नदी बेसिन हेतु समुचित संस्थागत व्यवस्था को विकसित किया जाना चाहिए।
जल संसाधन मंत्रालय द्वारा तैयार प्रारूप में जल के वितरण पर शुल्क प्रभार लगाना एवं वितरण, संरक्षण अथवा प्रबंधन को निजी हाथों में सौंपने का मसौदा तैयार किया गया है। जाहिर है प्रकृति के पांच तत्वों जिनके बारे में कहा गया है कि-
  क्षिति जल पावक गगन समीरा,
    पंच रचित अति अधम शरीरा।
प्रकृति की रचना करने वाले पांच तत्वों में महत्वपूर्ण तत्व जल की उपलब्धता ही हमारे जीवन का आधार है। जल ही जीवन है। लेकिन यह जीवन अब हमको बाजार से खरीदना होगा। भारत सरकार द्वारा तैयार जल नीति का प्रारूप यही कहता है। जल की बर्बादी को रोकने और जल संरक्षण के नाम पर तैयार प्रारूप जल के निजीकरण की बात करता है।
भारत में बढ़ती जनसंख्या एवं बढ़ते शहरीकरण ने कई क्षेत्रों में पानी की किल्लत पैदा कर दी है।जल की बढ़ती आवश्यकता एवं भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण भूजल की गहराई बढ़ गई है। कई क्षेत्रों में तो आम नलों से पानी निकलना दूभर हो चुका है। कारण यह कि जल की गहराई तक नलों की पहुंच नहीं है। ऐसे में आधुनिक संसाधनों के माध्यम से जल का दोहन बढ़ा है। जिसे उपलब्ध है वह दुरूपयोग कर रहा है, जिसको मिल नहीं रहा, वह हलकान है। प्रत्येक व्यक्ति कोस्वच्छ जल की उपलब्धता दूर की कौड़ी न बन जाए इससे पहले नीतिगत उपायों की आवश्यकता है।
जल संरक्षण के उपायों को लागू करने में देरी करने का अब वक्त नहीं बचा है। जिसके लिए सरकारी एवं आमजन के स्तर पर प्रयासों की तत्काल आवश्यकता है। लेकिन सरकार शायद आमजन को जलविहीन करने पर ही आमदा है। जिसका उदाहरण है जल संसाधन मंत्रालयद्वारा तैयार जल नीति प्रारूप-2012। मंत्रालय ने जनसंख्या वृद्धि एवं बढ़ते शहरीकरण के कारण जल की कमी को स्वीकार किया है एवं जल सुरक्षा को गंभीर चुनौती बताया है।
जलवायु परिवर्तन एवं अत्यधिक दोहन के कारण जल की उपलब्धता के लिहाज से आने वाला समय चुनौतीपूर्ण होगा। सरकार ने जल सुरक्षा को चुनौती तो माना है। लेकिन इस चुनौती का निदान भी सरकार उस निजी क्षेत्र के जरिए पाना चाहती है, जो इस समस्या को बढ़ाने का जिम्मेदार रहा है। जाहिर है, बाजार आम आदमी को पानी बेचकर उसकी जेब तो ढीली कर सकता है लेकिन उसे आसानी से स्वच्छ जल नहीं उपलब्ध करा सकता है। ऐसे में निजी क्षेत्र द्वारा जल संरक्षण की उम्मीद करना बेमानी ही होगा।


Sunday, April 15, 2012

हिंदी पत्रकारिता का समाचार-सूर्य ‘उदन्त मार्तण्ड‘


30 मई, 1826 हिंदी पत्रकारिता के इतिहास की महत्वपूर्ण तारीख है। इसी दिन हिंदी के सर्वज्ञात प्रथम समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था। उदन्त मार्तण्ड का शाब्दिक अर्थ है समाचार-सूर्य। अपने नाम के अनुरूप ही उदन्त मार्तण्ड हिंदी की समाचार दुनिया के सूर्य के समान ही था। उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन मूलतः कानपुर निवासी पं. युगल किशोर शुक्ल ने किया था। यह पत्र ऐसे समय में प्रकाशित हुआ था जब हिंदी भाषियों को अपनी भाषा के पत्र की आवश्यकता महसूस हो रही थी। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन किया गया था। पत्र के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए युगल किशोर शुक्ल ने लिखा था जो यथावत प्रस्तुत है-

‘‘यह उदन्त मार्तण्ड अब पहले पहल हिंदुस्तानियों के हेत जो, आज तक किसी ने नहीं चलाया पर अंग्रेजी ओ पारसी ओ बंगाली में जो समाचार का कागज छपता है उसका उन बोलियों को जान्ने ओ समझने वालों को ही होता है। और सब लोग पराए सुख सुखी होते हैं। जैसे पराए धन धनी होना और अपनी रहते परायी आंख देखना वैसे ही जिस गुण में जिसकी पैठ न हो उसको उसके रस का मिलना कठिन ही है और हिंदुस्तानियों में बहुतेरे ऐसे हैं‘‘ 


हिंदी के पहले समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड ने समाज के विरोधाभासों पर तीखे कटाक्ष किए थे। जिसका उदाहरण उदन्त मार्तण्ड में प्रकाशित यह गहरा व्यंग्य है- 

‘‘
एक यशी वकील अदालत का काम करते-करते बुड्ढा होकर अपने दामाद को वह सौंप के आप सुचित हुआ। दामाद कई दिन वह काम करके एक दिन आया ओ प्रसन्न होकर बोला हे महाराज आपने जो फलाने का पुराना ओ संगीन मोकद्दमा हमें सौंपा था सो आज फैसला हुआ यह सुनकर वकील पछता करके बोला कि तुमने सत्यानाश किया। उस मोकद्दमे से हमारे बाप बड़े थे तिस पीछे हमारे बाप मरती समय हमें हाथ उठा के दे गए ओ हमने भी उसको बना रखा ओ अब तक भली-भांति अपना दिन काटा ओ वही मोकद्दमा तुमको सौंप करके समझा था कि तुम भी अपने बेटे पाते तक पालोगे पर तुम थोड़े से दिनों में उसको खो बैठे‘‘ 

उदन्त मार्तण्ड ने समाज में चल रहे विरोधाभासों एवं अंग्रेजी राज के विरूद्ध आम जन की आवाज को उठाने का कार्य किया था। कानूनी कारणों एवं ग्राहकों के पर्याप्त सहयोग न देने के कारण 19 दिसंबर, 1827 को युगल किशोर शुक्ल को उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन बंद करना पड़ा। उदन्त मार्तण्ड के अंतिम अंक में एक नोट प्रकाशित हुआ था जिसमें उसके बंद होने की पीड़ा झलकती है। वह इस प्रकार था-

‘‘
आज दिवस लौ उग चुक्यों मार्तण्ड उदन्त।
 
अस्ताचल को जाता है दिनकर दिन अब अंत।।‘‘

उदन्त मार्तण्ड बंद हो गया, लेकिन उससे पहले वह हिंदी पत्रकारिता का प्रस्थान बिंदु तो बन ही चुका था। उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन के बाद हिंदी पत्रकारिता ने लंबा सफर तय किया है। जिसका प्रेरणास्रोत उदन्त मार्तण्ड ही था। 
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Friday, April 13, 2012

टाइटल सांग बने आइटम सांग


भारतीय सिनेमा की शुरूआत बीसवीं सदी के दूसरे दशक के पूर्वार्ध में हुई थी। बीसवीं सदी के भारतीय सिनेमा ने एक लंबा सफर तय किया। भारत में विभिन्न विधाओं की शुरूआत गुलामी के उस दौर में हुई, जब क्रांतिकारी परिवर्तनों की अधिकतम आवश्यकता थी। सिनेमा भी उस दौर से अछूता नहीं है। भारतीय सिनेमा जनसंचार के नए माध्यम के रूप में उभरकर आया जिसने वक्त की दास्तान को फिल्मों के रूप में प्रस्तुत किया।
सिनेमा को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने का काम किया उसके गीतों ने। भारतीय सिनमा के गीतों ने सही मायनों में सामाजिक सरोकारों को आवाज दी। सवाक  सिनेमा  की शुरूआत के साथ ही गीतों का महत्व महसूस किया जाने लगा था। उस दौर में गीत ही फिल्मों की पहचान थे और महत्वपूर्ण भावों की अभिव्यक्ति गीतों के माध्यम से ही की जाती थी। ‘राजा हरिशचन्द्र‘ से शुरू हुआ फिल्मी सफर आज भी विभिन्न बदलावों के साथ सतत जारी है। भारत के हिन्दी सिनेमा के एक सदी के सफर में गीतों में अधिकतम बदलाव देखने को मिलता है।
हिंदी सिनेमा के शुरूआती दौर में धार्मिक फिल्मों का निर्माण हुआ। भारत में पहली सवाक फिल्म का निर्माण आलमआरा के रूप में हुआ। जिसके पश्चात फिल्म निर्माण की गति में और तेजी देखने को मिली। आलमआरा के बाद बनने वाली अधिकतर फिल्में सामाजिक समस्याओं पर आधारित थीं। यहीं से हिंदी सिनेमा में गीतों की विधिवत शुरूआत होती है। हिंदी सिनेमा के पहले लोकप्रिय गायक के. एल सहगल के गीतों ने हिंदी सिनेमा में गीतों का महत्व को समझाया। उनके गाए गीतों ने एक कशिश पैदा की। सहगल के गाए गानों के दर्द ने सिने प्रेमियों को गीतों का मर्म समझाया। सहगल का गाया गीत ‘दिल जलता है तो जलने दे‘ को कालजयी गीत कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके एक गीत ने उस दौर में धूम मचा दी थी। जिसके बोल थे ‘अब जीके क्या करेंगे जब दिल ही टूट गया‘। यह गीत सहगल को भी इतना प्रिय था कि उन्होंने कहा कि मेरी अंतिम यात्रा में भी यह गीत बजना चाहिए।
हिंदी सिनेमा में सहगल और सुरैया से शुरू हुई गीतों की यात्रा को मुकेश, रफी, गीता दत्त, लता मंगेशकर, किशोर कुमार, महेन्द्र कपूर, हेमंत एवं महबूब आदि ने बखूबी बढ़ाया। इन गायकों ने गीत गाये नहीं बल्कि शब्दों को आवाज दी, भावों को आवाज दी। मुकेश के गाए गीतों की बात की जाए तो उनके गीत संदेश लिए होते थे। जो दुनियावी झंझावतों में सकारात्मकता का संदेश देते हैं। मुकेश ने अधिकतर राजकपूर के लिए गीत गाए। यही कारण था कि मुकेश के जाने के बाद राजकपूर ने कहा था कि ‘‘मुकेश इस दुनिया से चले गए तो ऐसा लगता है मेरी आवाज चली गई‘‘। राजकपूर का अभिनय और मुकेश की आवाज यह एक परंपरा बन गई थी। इसका कारण उनकी जोड़ी की अपार सफलता भी थी।
 ‘‘आवारा हूं आवारा हूं‘‘ गीत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सफलता अर्जित की। ‘‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी‘‘, ‘‘सजन रे झूठ मत बालो‘‘ जैसे गीत समाज के लिए मनोरंजन और संदेश लिए हुए थे। इसी प्रकार से मो. रफी के गीतों ने भी सिने जगत में अपनी मौजूदगी का जोरदार अहसास कराया। फिल्म ‘‘बैजू बावरा‘‘ ने रफी की लोकप्रियता को नई ऊंचाईयों तक पहुंचाया। ‘‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नाले‘‘, ‘‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज‘‘ जैसे गीतों को रफी ने इतने मनोयोग से गया था कि यह गीत जिसने भी सुने उसके दिल में उतर गए। प्रशंसकों ने यहां तक कहा था कि रफी की आवाज में वह जादू है कि पत्थर को भी पिघला दे।
उस दौर के गीतों में वह कशिश थी कि लोगों ने उन गीतों को सुना भी और समझा भी। उस दौर के गीतों में विशेष पहलू यह था कि गीतों के निर्माण के लिए विशेष तामझाम अथवा अत्यधिक खर्च की आवश्यकता नहीं थी। वक्त बदला तो बदल गया सिनेमा भी। लेकिन यह बदलाव गीतों के लिहाज से बहुत सार्थक साबित नहीं हुआ। वर्तमान दौर के गीतों को समझने की बात तो दूर है कई बार सुनने में भी कर्कश लगता है। पिछले दो तीन वर्षों से तो गीत जैसे बने ही नहीं हैं। बने हैं तो आइटम सांग और वही बन गए हैं टाइटल सांग। फिल्मों के टाइटल सांग के रूप में आइटम सांग को ही जाना जाता है। मुन्नी बदनाम हुई, टिंकू जिया, शीला की जवानी जैसे आइटम सांग फिल्मों के टाइटल सांग बन गए हैं। विशेष बात यह है कि फिल्म में इस प्रकार के गीतों के लिए भी जबरन जगह बनाई जा रही है, जगह है नहीं ऐसा प्रतीत होता है।
गीतों के लिए पटकथा में स्थान ही नहीं दिखता है। पटकथा में पिरोये गीत ही फिल्म के महत्वपूर्ण भावनात्मक दृश्यों को आवाज देते हैं। जिसको फिल्मकारों ने भूलने की कोशिश की है। संगीत को सार्थक बनाए रखने के लिए आवश्यकता है कि शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीतों को फिल्माया जाए। तभी हिंदी सिनेमा के गीत जनसरोकारों से जुड़ाव महसूस कर पाएंगे।