Thursday, May 17, 2012

कर्तव्य को समर्पित थे दुर्गा प्रसाद मिश्र


हिंदी भाषा के विकास के साथ ही हिंदी पत्रकारिता का भी विकास हुआ है। कह सकते हैं किहिंदी भाषा को परिष्कृत करने और आम लोगों तक पहुंचाने में हिंदी पत्रकारिता की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हिंदी भाषा ने राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है एवं उसके वाहक बने हैं हिंदी के समाचार पत्र
हिंदी के प्रथम समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड‘ की शुरुआत भारत की भाषा में भारत के हितों की बात करने के लिए हुई थी। ‘उदन्त मार्तण्ड‘ के इस उद्देश्य को आगे आने वाले समाचार पत्रों ने भी पूर्ण करने का प्रयास किया। हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत 19वीं शताब्दी में हुई थी जब देश परतंत्र था। यही कारण था की भारत को स्वराज्य दिलाना एवं मातृभूमि के गौरव को पुनः हासिल करना ही हिंदी पत्रकारिता का उद्देश्य था।
हिंदी पत्रकारिता को क्रांति एवं राष्ट्रहित के मार्ग पर ले जाने के लिए अनेकों पत्रकारों ने अहोरात्र संघर्ष किया। ऐसे ही पत्रकार थे, पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र। 19वीं सदी की हिंदी पत्रकारिता मेंदुर्गाप्रसाद मिश्र का महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। दुर्गाप्रसाद मिश्र का जन्म 31 अक्टूबर, 1860 को जम्मू-कश्मीर के सांवा नगर में हुआ था। उन्होंने काशी में संस्कृत एवं कलकत्ता के नार्मल स्कूल से अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की।
दुर्गाप्रसाद ने कलकत्ता को ही अपनी कर्मभूमि बनाया। उन्होंने अपनी पत्रकारिता की शुरुआत काशी से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘कविवचनसुधा‘ के संवाददाता के रूप में की। इसके पश्चात वे 17 मई 1878 को कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले ‘भारत-मित्र‘ से जुड़े जिसका संपादनपं. छोटूलाल मिश्र करते थे। ‘भारत-मिश्र‘ के प्रबंध संपादक की जिम्मेदारी पं. दुर्गाप्रसाद मिश्रके पास ही थी। लगभग एक वर्ष के पश्चात वे ‘भारत-मित्र‘ से अलग हो गए, कितु उनकी पत्रकार जीवन की यात्रा के कई पड़ाव अभी बाकी ही थे। 13 अप्रैल, 1879 को उन्होंने पं. सदानंद मिश्र के सहयोग से ‘सारसुधानिधि‘ निकाला। यह पत्र उन्नीसवीं सदी के अत्यंत ओजस्वी पत्रों में से एक था। राष्ट्र में स्वराज्य की वापसी एवं समाज का पुनर्जागरण ही ‘सारसुधानिधि‘ का मूल स्वर था। ‘सारसुधानिधि‘ के संपादक संदानंद मिश्र की यह संपादकीय टिप्पणी पत्र के उद्देश्य को बताने के लिए पर्याप्त जान पड़ती है-
 ‘‘भारत के दुर्भाग्य को अपना दुर्भाग्य और भारत के सौभाग्य को अपना सौभाग्य समझो। नही तो भारत का दुर्भाग्य कदापि दूर नहीं होगा। (सारसुधानिधि, वर्ष 2, अंक 25)
‘सारसुधानिधि‘ में सक्रिय सहयोग देने के पश्चात सन 1880 में पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र ने अपने स्वयं के पत्र ‘उचित वक्ता‘ का प्रकाशन प्रारंभ किया। यह पत्र अपने नाम के अनुरूप उचित विषय ही उठाता था। श्री मिश्र ने इस पत्र के माध्यम से जनचेतना को जाग्रत करने का बीड़ा उठाया था। ब्रिटेन की छत्रछाया में भारत की कथित प्रगति को उजागर करते हुए उन्होंने भारतीयों को दासता से मुक्त होने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपनी संपादकीय टिप्पणी में लिखा-
‘‘पहली उन्नति और अबकी उन्नति में अंतर इतना ही है कि वह स्वाधीन भारत की उन्नति थी। उस उन्नति में उन्नतिमना स्वाधीनता प्रिय भारत संतानों का गौरव था और यह पराधीन भारत की उन्नति हो रही है। इस उन्नति में पदावनत हम भारत कुल तिलकों की अगौरव के सहित गर्दन नीची होती जाती है‘‘
पत्रकार का कर्तव्य सत्य के लिए असत्य से लड़ना ही होता है। बशर्ते, उसके लिए उसे कोई कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े। सरकारों ने समय-समय पर पत्रकारिता पर शिकंजा कसते हुए जनसरोकार से जुड़े मुददे अथवा आंदोलनों को दबाने का प्रयास किया है। चाहे वह अंग्रेजी सरकार रही हो अथवा स्वतंत्र भारत में आपातकाल का दौर। पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र ऐसे ही पत्रकारों में से थे जो हर वक्त अपने कर्तव्य मार्ग पर डटे रहे। वे डटे ही नहीं बल्कि अंग्रेजी हूकूमत के विरूद्ध लड़े भी। अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहने का आह्वान करते हुए उन्होंने मई, 1883 के अपने संपादकीय में लिखा-
 ‘‘देशी संपादकों, सावधान। कहीं जेल का नाम सुनकर कर्तव्यविमूढ़ मत हो जाना। यदि धर्म की रक्षा करते हुए, यदि गवर्नमेंट को सत्परामर्श देते हुए जेल जाना पड़े तो क्या चिंता है। इसमें मान हानि नहीं होती है। हाकिमों के जिन अन्यायपूर्ण आचरणों से गवर्नमेंट पर सर्वसाधारण की अश्रद्धा हो सकती है, उसका यथार्थ प्रतिवाद करने जेल में तो क्या, द्वीपांतरित भी होना पड़े तो क्या बड़ी बात है? क्या इस सामान्य विभीषिका से हमलोग अपना कर्तव्य छोड़ बैठें?‘‘
श्री दुर्गाप्रसाद मिश्र भारतीय पत्रकारों के अग्रणी योद्धा थे। उनके तेजस्वी पत्रों ने लोगों में चेतना का संचार किया। यद्यपि दुर्गाप्रसाद जी ने ऐसे समय में पत्रकारिता की थी जब हिंदी का पाठक थी हिंदी की उन्नति के प्रति उदासीन था। ऐसे समय में पत्रकारिता करना एवं सरकारी सहायता के बिना पत्रों को चलाने का जोखिम लेना आसान नहीं था। हिंदी पाठकों की उदासीनता से व्यथित होकर ही ‘सारसुधानिधि‘ के संपादक ने 5 जनवरी, 1880 के अंक में लिखा था-
 ‘‘जैसी अवस्था हिंदी भाषा की है, इस पर ऐसी आशा नहीं होती कि लोग शौक से हिंदी भाषा के अनुरागी होकर हिंदी पत्रों की सहायता की दृष्टि से लिया करें और यथासमय दाम दिया करें कि जिसमें पत्र संपादकों को केवल देशोपकारक की चिंता के दूसरी चिंता न रहे। देशवासियों को समाचार पत्र का प्रयोजन, उसका उद्देश्य और उपयोगिता हृदयंगम नहीं हुई है‘‘
पं. दुर्गा प्रसाद मिश्र की पत्रकारिता में समझौतों के लिए कोई स्थान नहीं था। यही कारण था कि उनकी लेखनी पूर्णतया निष्पक्ष थी। उन्होंने ‘उचित वक्ता‘ के माध्यम से तत्कालीन समय के उचित प्रश्नों को उठाया था। ‘उचित वक्ता‘ में मिश्र जी के लेखन के बारे में पं. अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने कहा था-
 ‘‘यह उनका अपना पत्र था। इसमें किसी का साझा न था। प्रायः दो वर्षों में इन्हें लिखने-पढ़ने और पत्र संपादन करने का अच्छा अनुभव हो गया था, इसलिए ‘उचित वक्ता‘ बड़ा तेजस्वी पत्र हुआ। इसमें लिखने-पढ़ने में कोई मिश्र जी का हाथ पकड़ने वाला न था, इसलिए वे पूर्ण स्वतंत्रता से लिखते थे।‘‘
पत्रकारिता मिशनरी कार्य है, मिशन की तरह जुटना पड़ता है। पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र भी पत्रकारिता के कार्य में मिशनरी भाव से ही जुटे रहे। उनका पत्रकार जीवन प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष में ही बीता। ‘‘उचित वक्ता‘‘ पत्र को उन्होंने बड़े प्रयासों से चलाया था। जिसकी उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी, किंतु वे कभी निराश नहीं हुए। शायद बाधाएं ही उनकी प्रेरणा थीं। जिस राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने के लिए ‘उचित वक्ता‘ का जन्म हुआ था उसे जीवित रखने के लिएपं. दुर्गाप्रसाद मिश्र को अनेक भूमिकाओं में उतरना पड़ता था। पत्र की सामग्री तैयार करने, छापने, ग्राहकों तक पहुचाने एवं उन्हें पढ़कर सुनाने-समझाने तक का कार्य उन्हें स्वयं ही करना पड़ता था।
 ‘उचित वक्ता‘ के संपादन में उनको आर्थिक हानि भी झेलनी पड़ी थी। इस संबंध में पं. अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने लिखा है- ‘‘दुर्गा प्रसाद जी ने घर का धान पुआल में मिलाया।‘‘
अंग्रेजी सरकार की गलत नीतियों की आलोचना एवं भारत का पुनर्जागरण करना ही तत्कालीन समाचार पत्रों का मूल उद्देश्य था। उनका यह प्रयास स्वातंत्र्य देवी के दर्शन के लिए था। भारत आजाद हो और भारत पर स्वकीय जनों का शासन आए यही उस समय के पत्रकारों एवं संपादकों का लक्ष्य था, जिसके लिए उनकी पत्रकारिता सदैव समर्पित रहती थी। यद्यपि पत्रकारों को अपने इस उद्देश्य के लिए विभिन्न यातनाओं एवं कष्टों को झेलना पड़ा था। तत्कालीन समय के संपादकों एवं पत्रकारों के कष्टों के बारे में उचित वक्ता के 23 दिसंबर, 1882 के अंक में दुर्गा प्रसाद मिश्र ने लिखा था-
 ‘‘हम भारतीय पत्र संपादकों की जैसी हीन और मलीन दशा है वह किसी से अविदित नहीं है। ये लोग सदा अपने देश की भलाई के लिए उद्यत रहते हैं उसी से सदैव गवर्नमेण्ट के समीप राजभक्ति विहीन अधम गिने जाते हैं। क्षुद्र हाकिमों से लगाकर उच्चतर चिरपतियों तक का इन पर आक्रोश बना रहता है।‘‘
पत्रकारिता के उद्देश्यों के लिए पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र सदैव प्रयत्नशील  रहे। सारसुधानिधि, उचितवक्ता एवं भारतमित्र जैसे अपने समय के प्रतिष्ठित पत्रों में उन्होंने लेखन एवं संपादन किया। उनके पत्रों से लेखक के तौर पर भारतेंदु हरिशचन्द्र एवं दयानन्द सरस्वती जैसी महान विभूतियां भी जुड़ीं। हिंदी पत्रकारिता के अतिरिक्त उन्होंने बंगला के स्वर्णलता के आधार पर सरस्वती नामक नाटक भी लिखा। उन्होंने बिहार प्रांत के विद्यालयों के लिए पाठ्य पुस्तकें भी लिखीं। उनका जीवन शब्दों की आराधना के लिए ही समर्पित था। वे हिंदी के ऐसे पत्रकार रहे हैं जिन्हें हिंदी पत्रकारिता के जन्मदाताओं एवं प्रचारकों में शुमार किया जाता है।
दुर्गाप्रसाद जी का निधन सन 1910 में हुआ। वे हिंदी पत्रकारिता को अपनी अमूल्य प्रेरणा देकर गए। जो आज भी हिंदी के पत्रकारों को हिंदी की सेवा एवं राष्ट्र जागरण के लिए पत्रकारिता करने का मार्गदर्शन देती हैं। दुर्गाप्रसाद मिश्र सरीखे पत्रकार का जीवन परिचय ही पत्रकारिता की वर्तमान पीढ़ी के लिए प्रेरणापुंज के समान है।

हिंदी पत्रकारिता के अमिट हस्ताक्षर- राजेंद्र माथुर

राजेन्द्र माथुर हिंदी पत्रकारिता में अमिट हस्ताक्षर के समान हैं। मालवा के साधारण परिवार में जन्मे राजेन्द्र बाबू ने हिंदी पत्रकारिता जगत में असाधारण प्रतिष्ठा प्राप्त की। उनका जन्म 7 अगस्त, 1935 को मध्य प्रदेश  के धार जिले में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा धार, मंदसौर एवं उज्जैन में हुई। उच्च शिक्षा के लिए वे इंदौर आए जहां उन्होंने अपने पत्रकार जीवन के महत्वपूर्ण समय को जिया।
राजेन्द्र माथुर उन बिरले लोगों में से थे जो उद्देश्य के लिए जीते हैं। पत्रकार जीवन की शुरुआत उन्होंने स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही कर दी थी। जिस समय हिंदी पत्रकारिता मुख्य धारा में अपना स्थान बनाने के लिए संघर्ष कर रही थी, उसी समय राजेन्द्र बाबू भी पत्रकारिता में अपना स्थान बनाने के लिए आए थे। पत्रकारिता जगत में उन्होंने अपना स्थान ही नहीं बनाया बल्किहिंदी पत्रकारिता को भी मुख्य धारा में लाए। अंग्रेजी भाषा के अच्छे जानकार राजेन्द्र माथुर चाहते तो अंग्रेजी पत्रकारिता में अपना स्थान बना सकते थे। लेकिन तब शायद भारत के अंतर्मन को समझने का उचित  मौका न मिलता।
भारतीय भाषा में भारत के सरोकारों को समझने के लिए उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को अपने माध्यम के रूप में चुना। पत्रकारिता की दुनिया में उन्होंने नई दुनिया दैनिक पत्र के माध्यम से दस्तक दी। नई दुनिया के संपादक राहुल बारपुते से उनकी मुलाकात शरद जोशी ने करवाई थी। बारपुते जी से अपनी पहली मुलाकात में उन्होंने पत्र के लिए कुछ लिखने की इच्छा जताई।राहुल जी ने उनकी लेखन प्रतिभा को जांचने-परखने के लिए उनसे उनके लिखे को देखने की बात कही। उसके बाद अगली मुलाकात में राजेन्द्र माथुर अपने लेखों का बंडल लेकर ही बारपुते जी से मिले।
अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर गहन अध्ययन एवं जानकारी को देखकर राहुल जी बड़े प्रभावित हुए। उसके बाद समस्या थी कि राजेन्द्र माथुर के लेखों को पत्र में किस स्थान पर समायोजित किया जाए। इसका समाधान भी राजेन्द्र जी ने ही दिया। राहुल बारपुते जी का संपादकीय अग्रलेख प्रकाशित होता था, राजेन्द्र जी ने अग्रलेख के बाद अनुलेख के रूप में लेख को प्रकाशित करने का सुझाव दिया। अग्रलेख के पश्चात अनुलेख लिखने का सिलसिला लंबे समय तक चला। सन 1955 में नई दुनिया की दुनिया में जुड़ने के बाद वह 27 वर्षों के लंबे अंतराल के दौरान वे नई दुनिया के महत्वपूर्ण सदस्य बने रहे।
राजेन्द्र जी ने लगातार दस वर्षों तक अनुलेख लिखना जारी रखा। सन 1965 में बदलाव करते हुए उन्होंने पिछला सप्ताह नामक लेख लिखना प्रारंभ किया। जिसमें बीते सप्ताह के महत्वपूर्ण घटनाक्रम की जानकारी एवं विश्लेषण प्रकाशित होता था। सन 1969 में किसी मनुष्य ने चंद्रमा पर पहला कदम रखकर अप्रत्याशित कामयाबी पाई थी। मनुष्य के चंद्रमा तक के सफर पर नई दुनिया ने 16 पृष्ठों का परिशिष्ट प्रकाशित किया था। यह कार्य राजेन्द्र माथुर के नेतृत्व में ही हुआ था। वे गुजराती कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक थे, 1969 में वे अध्यापकी छोड़ पूरी तन्मयता के साथ नई दुनिया की दुनिया में रम गए।
पिछला सप्ताह स्तंभ लिखना उन्होंने आपातकाल तक जारी रखा। आपातकाल के दौरान सरकार ने जब प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का प्रयास किया। तब राजेन्द्र जी ने शीर्षक के नाम से सरकारी प्रतिक्रिया की परवाह किए बिना धारदार आलेख लिखे। सन 1980 से उन्होंने कल आज और कल शीर्षक से स्तंभ लिखना शुरू किया। 14 जून, 1980 को वे प्रेस आयोग के सदस्य चुने गए। जिसके बाद सन 1981 में उन्होंने नई दुनिया के प्रधान संपादक के रूप में पदभार संभाला। प्रेस आयोग का सदस्य बनने के पश्चात वे टाइम्स आफ इंडिया के संपादक गिरिलाल जैन के संपर्क में आए।
गिरिलाल जैन ने राजेन्द्र माथुर को दिल्ली आने का सुझाव दिया। उनका मानना था कि राजेन्द्र जी जैसे मेधावान पत्रकार को दिल्ली में रहकर पत्रकारिता करनी चाहिए। लंबे अरसे तक सोच-विचार करने के पश्चात राजेन्द्र जी ने दिल्ली का रूख किया। सन 1982 में नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन कर वे दिल्ली आए। नवभारत टाइम्स की ओर से अमेरिकी सरकार के आमंत्रण पर उन्हें अमेरिका जाने का अवसर प्राप्त हुआ। अमेरिका में गए हिंदी पत्रकार ने अपनी अंग्रेजी की विद्वता से परिचय कराया। उनकी अंग्रेजी सुनकर अंग्रेज पत्रकार भी हतप्रभ रह गए। ऐसे समय में जब अंग्रेजी प्रतिष्ठा का सवाल हो हिंदी पत्रकारिता में योगदान देना प्रेरणादायी है।
दिल्ली आने के पश्चात राजेन्द्र माथुर ने नवभारत टाइम्स को दिल्ली, मुंबई से निकालकर प्रादेशिक राजधानियों तक पहुंचाने का कार्य किया। नवभारत टाइम्स को उन्होंने हिंदी पट्टी के पाठकों तक पहुंचाते हुए लखनऊ, पटना एवं जयपुर संस्करण प्रकाशित किए। यही समय था जबराजेन्द्र माथुर को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। वे एडिटर्स गिल्ड के प्रधान सचिव भी रहे। उनके लेखन को संजोने का प्रयास करते हुए उनके लेखों के कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें प्रमुख हैं- गांधी जी की जेल यात्रा, राजेन्द्र माथुर संचयन- दो खण्डों में, नब्ज पर हाथ, भारत एक अंतहीन यात्रा, सपनों में बनता देश, राम नाम से प्रजातंत्र।
राजेन्द्र माथुर की पत्रकारिता निरपेक्ष पत्रकारिता थी। पूर्वाग्रह ग्रसित पत्रकारिता से तो वे कोसों दूर थे। उनके निरपेक्ष लेखन का जिक्र करते हुए पत्रकार आलोक मेहता ने लिखा है-
‘‘1985-86 के दौरान भारत की एक महत्वपूर्ण गुप्तचर एजेंसी के वरिष्ठ अधिकारी ने मुलाकात के दौरान सवाल किया- ‘आखिर माथुर जी हैं क्या? लेखन से कभी वे कांग्रेसी लगते हैं, कभी हिंदूवादी संघी, तो कभी समाजवादी। आप तो इंदौर से उन्हें जानते हैं क्या रही उनकी पृष्ठभूमि?‘ मुझे जासूस की इस उलझन पर बड़ी प्रसन्नता हुई। मैंने कहा, ‘माथुर साहब हर विचारधारा में डुबकी लगाकर बहुत सहजता से ऊपर आ जाते हैं। उन्हें बहाकर ले जाने की ताकत किसी दल अथवा विचारधारा में नहीं है। वह किसी एक के साथ कभी नहीं जुड़े। वह सच्चे अर्थों में राष्ट्रभक्त हैं, उनके लिए भारत राष्ट्र ही सर्वोपरि है। राष्ट्र के लिए वे कितने ही बड़े बलिदान एवं त्याग के पक्षधर हैं‘‘ (सपनों में बनता देश, आलोक मेहता)
राजेन्द्र माथुर ने कभी किसी विचारधारा का अंध समर्थन नहीं किया। उनकी पत्रकारिता विशुद्ध राष्ट्रवाद को समर्पित थी। जड़ता की स्थिति में पहुंचाने वाली विचारधाराओं से उन्होंने सदैव दूरी बनाए रखी। पत्रकार के रूप में विचारधारा एवं पार्टीवाद से ऊपर उठकर वे पत्रकारिता के मिशन में लगे रहे। वर्तमान समय में जब पत्रकार विचारधाराओं के खेमे तलाश रहे हैं, ऐसे वक्त मेंराजेन्द्र माथुर की याद आना स्वाभाविक है।
राजेन्द्र माथुर ने बड़े ही जीवट से मूल्यपरक पत्रकारिता की थी, परंतु एक वक्त ऐसा भी आया जब वे बाजार के झंझावतों से निराश हुए। उन्होंने नवभारत टाइम्स को पूर्ण अखबार बनाने का स्वप्न देखा था। उनका यह स्वप्न तब तक रूप लेता रहा जब तक प्रबंधन अशोक जैन के हाथ था, किंतु जब प्रबंधन का जिम्मा समीर जैन पर आया तो यह स्वप्न बिखरने लगा था। समीर जैन नवभारत टाइम्स को ब्रांड बनाना चाहते थे जो बाजार से पूंजी खींचने में सक्षम हो। माथुर साहब ने अखबार को मुकम्मल बनाया था, लेकिन बाजार की अपेक्षाएं शायद कुछ और ही थीं। यही उनकी निराशा का कारण था। संभवतः पत्रकारिता के शीर्ष पुरूष की मृत्यु का कारण भी यही था। इस घटना के बारे में अनेको वर्षों तक उनके सहयोगी रहे रामबहादुर राय जी बताते हैं-
‘‘जब उन्हें लगा कि संपादक को संपादकीय के अलावा प्रबंधन के क्षेत्र का काम भी करना होगा, तो वह द्वंद में पड़ गए। इससे उन्हें शारीरिक कष्ट हुआ। अपने सपने को टूटते बिखरते हुए वे नहीं देख पाए। मृत्यु के कुछ दिनों पहले मेरी उनसे लंबी बातचीत हुई थी। एक दिन उन्हें फोन कर मैं उनके घर गया। माथुर साहब अकेले ही थे। वह मेरे लिए चाय बनाने किचन की ओर गए तो मैं भी गया। मैंने महसूस किया था कि वे परेशान हैं। मैंने पूछा क्या अड़चन है? उन्होंने कहा- देखो,  अशोक जैन नवभारत टाइम्स पढ़ते थे। उनको मैं बता सकता हूं कि अखबार कैसे बेहतर बनाया जाए। समीर जैन अखबार पढ़ता ही नहीं है। वह टाइम्स आफ इंडिया और इकानामिक टाइम्स को प्रियारिटी पर रखता है। उससे संवाद नहीं होता। उसका हुकुम मानने की स्थिति हो गई है। यही माथुर साहब का द्वंद था।‘‘ (मीडिया विमर्श, मार्च 2012)
राजेन्द्र माथुर ने मानों शब्दों की सेवा का ही प्रण लिया था। यही कारण था कि अनेकों बार अवसर प्राप्त होने पर भी वे सत्ता शिखर से दूर ही रहे। श्री माथुर के सहयोगी रहे विष्णु खरे ने सन 1991 में उनके अवसान के पश्चात  नवभारत टाइम्स में प्रकाशित लेख ‘बुझना एक प्रकाश-स्तंभ का‘ में लिखा था-
‘‘नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन जाने के बाद वे भविष्य में क्या बनेंगे, इसको लेकर उनके मित्रों में दिलचस्प अटकलबाजियां होती थीं और बात राष्ट्रसंघ एवं केन्द्रीय मंत्रिमंडल तक पहुंचती थी। लेकिन अपने अंतिम दिनों तक राजेन्द्र माथुर ‘एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया‘ जैसी पेशेवर संस्था के काम में ही स्वयं को होमते रहे। राजेन्द्र माथुर जैसे प्रत्येक व्यक्ति के चले जाने के पश्चात ऐसा कहा जाता है कि अब ऐसा शख्स दुबारा दिखाई नहीं देगा। लेकिन आज जब हिंदी तथा भारतीय पत्रकारिता पर निगाह डालते हैं और इस देश के बुद्धिजीवियों के नाम गिनने बैठते हैं तो राजेन्द्र माथुर का स्थान लेता कोई दूसरा नजर नहीं आता। बड़े और चर्चित पत्रकार बहुतेरे हैं, लेकिन राजेन्द्र माथुर जैसी ईमानदारी, प्रतिभा, जानकारी और लेखन किसी और में दिखाई नहीं दी।‘‘ (पत्रकारिता के युग निर्माता,शिव अनुराग पटैरया)
पत्रकारिता में स्थान बनाने के बाद पत्रकार सत्ता के केंद्रों से नजदीक आने को लालायित हैं। सत्ता केन्द्र से नजदीकी को कैरियर का शिखर मानने की वर्तमान समय में परिपाटी बन गई है। ऐसे में सत्ता केन्द्रों से समानांतर दूरी रखने वाले राजेन्द्र माथुर का पत्रकार जीवन अनुकरणीय है।