Friday, June 22, 2012

'हिंदी केसरी' माधवराव सप्रे’


भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में 19वीं सदी का अंतिम दशक एवं बीसवीं सदी का पहला दशक मील का पत्थर साबित हुए। यह समय देश में राजनीतिक, साहित्यिक एवं पत्रकारीय सुदृढ़ता के दशक माने जाते हैं। यह वह दौर था जब भारत की सुप्त चेतना जाग्रत हो रही थी, जागरण का यह काम कर रहे थे देशभक्त पत्रकार एवं क्रांतिकारी। उस दौर में प्राय क्रांतिकारी और पत्रकार एक दूसरे के पूरक थे। 

यह दौर था तिलक युग। जब पत्रकारिता ने जन-जन में स्वदेशी एवं स्वतंत्रता की अलख जगाई थी। तिलक स्वयं पत्रकार थे, मराठा' एवं केसरी' माध्यम से तिलक ने देश के सरोकारों को जानने का काम किया था। उसी दौर के पत्रकार थे पं. माधवराव सप्रे 

माधवराव सप्रे का जन्म मध्य प्रदेश के दमोह जिले के पथरिया ग्राम में 19 जून, 1871 को हुआ था। चार भाइयों में सबसे छोटे थे। उनके पिता ने खराब आदतों के चलते घर की समस्त संपत्ति नष्ट कर दी। घर चलना कठिन हो गया था, जिसके बाद बड़े भाई रामचन्द्रराव ने परिवार का संचालन किया। माधवराव दो वर्ष के ही थे कि बड़े भाई रामचन्द्रराव का निधन हो गया। जिसके बाद मंझले भाई बाबूराव ने विपरीत परिस्थितियों में परिवार के खर्चों को वहन करने के लिए नौकरी की। जब माधवराव चार वर्ष के थे बाबूराव ने उन्हें बिलासपुर बुला लिया। बिलासपुर में ही माधवराव ने मिडिल स्कूल तक की शिक्षा ग्रहण की। सन 1887 में उन्होंने मिडिल की परीक्षा पास की। बिलासपुर में हाईस्कूल नहीं था, हाईस्कूल पढ़ने के लिए उनको रायपुर भेजा गया। माधवराव ने हिंदी की सेवा का प्रण रायपुर में ही लिया था। 

रायपुर की धरती ने उनको हिंदी सेवा की जो प्रेरणा दी वह जीवन पर्यंत कायम रही। 
माधवराव सप्रे का विवाह सन 1889 में हुआ, इसी वर्ष उन्हें एंट्रेंस की परीक्षा भी देनी थी। परंतु ऐन वक्त पर वे बीमार पड़ गए जिस कारण वे 1890 में एंट्रेंस की परीक्षा न दे सके। जिसके बाद वे आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर चले गए। वहां उन्होंने अपने पाठ्यक्रम के अलावा विभिन्न गंभीर विषयों का अध्ययन किया। किंतु, इस दौरान उनको दो दुखद घटनाओं को सहना पड़ा। एक तो वे बीमार पड़ गए, दूसरे उनकी माता का देहांत हो गया। उस समय उनके ससुर की इच्छा थी कि वे रायपुर में ही तहसीलदार की नौकरी स्वीकार कर लें। उन्होंने इसके लिए उच्च अधिकारियों को राजी भी कर लिया था किंतु, माधवराव का मन नौकरी में नहीं पत्रकारिता में था। 

 उस दौरान देश में स्वतंत्रता की आंधी चारों ओर चल रही थी। लोकमान्य तिलक के केसरी' और मराठा' जैसे पत्रों के माध्यम से स्वदेशी एवं स्वतंत्रता की अग्नि प्रखर हो रही थी। माधवराव भी पत्रकारिता के क्षेत्र में आना चाहते थे, किंतु पत्रकारिता उस समय में आज की भांति व्यवसाय नहीं था। जिससे लाभ अर्जित किया जा सके। अतः उन्होंने पीडब्ल्यूडी में ठेकेदारी की उनको इस धंधे में नुकसान ही हुआ। वे अपने भाई पर भी अत्यधिक निर्भर नहीं रहना चाहते थे। एक दिन उन्होंने पत्नी से कुछ जेवर लिए और ग्वालियर के लिए चल पड़े और ग्वालियर में ही एफ.ए में दाखिला ले लिया। इस कठिन वक्त में ही उनको एक और आघात सहन करना पड़ा। ग्वालियर में ही उनको पत्नी के देहांत की सूचना मिली। माधवराव के लिए यह दिन कितने संघर्ष के रहे होंगे यह समझना कठिन नहीं है। उन्होंने दुख को सहते हुए भी अपनी पढ़ाई जारी रखी। सन 1898 में उन्होंने बी.ए की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने अपने भाई के समझाने पर दूसरा विवाह कर लिया। दूसरी पत्नी पार्वती भी सुलक्षणा थीं। वे उनके समस्त कार्यों में उनको सहयोग करती थीं। 

 सन 1899 में उन्होंने पेंड्रा रोड के राजकुमार कालेज में अध्यापन कार्य शुरू किया। किंतु, अध्यापन कार्य उनको संतुष्ट नहीं करता था। पत्रकारिता की ललक उनके मन में अब भी जीवित थी, जिसके लिए वे नौकरी के माध्यम से धन संग्रह कर रहे थे। सन 1900 में उनकी परिकल्पना छत्तीसगढ़ मित्र' मासिक पत्रिका के रूप में साकार हुई। उनके मित्र वामनराव लाखे पत्रिका के प्रकाशक बने एवं रामराव चिंचोलकर ने उनके साथ संपादक का दायित्व संभाला। 

 माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ मित्र के प्रवेशांक में पत्रिका के उद्देश्यों को आत्म परिचय' शीर्षक के अंतर्गत स्पष्ट करते हुए लिखा-

 ‘‘सम्प्रति छत्तीसगढ़ विभाग को छोड़ ऐसा एक भी प्रांत नहीं है जहां दैनिक, साप्ताहिक, मासिक या त्रैमासिक पत्र प्रकाशित न होता हो। इसमें कुछ सन्देह नहीं कि सुसम्पादित पत्रों के द्वारा हिंदी भाषा की उन्नति हुई है। अतएव यहां भी छत्तीसगढ़ मित्र' हिन्दी भाषा की उन्नति करने में विशेष प्रकार से ध्यान दे। आजकल भाषा में बहुत सा कूड़ा-कर्कट जमा हो रहा है, वह न होने पावे इसलिए प्रकाशित ग्रंथों पर प्रसिद्ध मार्मिक विद्वानों के द्वारा समालोचना भी कहें।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)

 माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ मित्रका प्रकाशन छत्तीसगढ़ क्षेत्र में हिंदी एवं शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए ही किया था। छत्तीसगढ़ मित्र' ने इस उद्देश्य को पूरा भी किया। किंतु, ‘छत्तीसगढ़ मित्र' को तत्कालीन जमीदारों और राजाओं की ओर से अपेक्षित सहयोग नहीं प्राप्त हुआ। इस व्यथा को स्पष्ट करते हुए छत्तीसगढ़ मित्र' संपादक ने लिखा-

‘‘अत्यन्त शोक और कष्ट से कहना पड़ता है कि मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ विभाग में राजा-महाराजा, श्रीमान तथा जमींदारों की इतनी विपुलता होने पर भी उनमें कोई भी विद्योतेजन की ओर यथावश्यक ध्यान नहीं देते। वे इस बात पर विचार नहीं करते कि विद्या की उन्नति करने में जब तक वे उदासीन बने रहेंगे तब तक समाज की प्रगति नहीं हो सकती।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)

 छत्तीसगढ़ मित्रको आर्थिक मोर्चे पर काफी संघर्ष करना पड़ता था, फिर भी माधवराव जी ने पत्रकारिता के मानदंडों से कभी समझौता नहीं किया। पत्र में प्रकाशित सामग्री के प्रति वे पूर्ण सचेत रहते थे। संवाददाताओं को भी वे यही सत्य एवं तथ्य पर आधारित समाचार देने के लिए ही कहते थे। जिसका उदाहरण है चाहिए' शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित यह विज्ञापन-

‘‘छत्तीसगढ़ मित्र' के लिए हिन्दुस्थान के बड़े-बड़े नगरों तथा राज संस्थानों, विशेषतः छत्तीसगढ़ विभाग के प्रायः संपूर्ण देशी रजवाड़ों तथा जमींदारियों से चतुर और विश्वास करने योग्य संवाददाता चाहिए। संवाददाताओं को स्मरण रहे कि सत्य-सत्य समाचार भेजें झूठ-मूठ किसी पर आक्षेप या गपोड़ी कपोल-कल्पित बातें कदापि न लिखें।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)

माधवराव सप्रे एवं साथियों ने छत्तीसगढ़ मित्र' को विशेष प्रयासों से दो वर्ष तक प्रकाशित करना जारी रखा। आय तो होती नहीं थी, लेकिन जो कुछ भी चन्दा अथवा विज्ञापन से प्राप्त होता था वे उसकों भी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर देते थे। वर्ष 1901 का आय-व्यय का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए संपादक ने लिखा था-

 ‘‘मित्र' के निकलने से पहले ही हमने सोच लिया था कि हमें घाटे के सिवाय कुछ लाभ न होगा। परंतु छत्तीसगढ़ में विद्या की वृद्धि, स्वदेश में ज्ञान का प्रसार, नागरी की उन्नति और हिन्दी साहित्य में सत्य समालोचना द्वारा सत्य विचार की जागृति करने के हेतु जिस समय हमने मित्रको जन्म दिया उसी समय हमने यह भी दृढ़ संकल्प कर लिया था कि इस कार्य में चाहे जैसी हानि और कठिनाई सहनी पड़े पर हम तीन वर्ष तक इसे अवश्य चलावेंगे।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)

छत्तीसगढ़ मित्र' के दो वर्ष बीत गए किंतु वह घाटे में ही चलता रहा। जिसके कारण माधवराव सप्रे एवं साथियों को पत्र बंद करने का कठिन निर्णय लेना पड़ा। अपनी व्यथा को उन्होंने इन शब्दों में लिखा- 

‘‘हमारे संकल्पानुसार परमात्मा की कृपा से दो वर्ष बीत गए, और हमारे दुर्भाग्य से दोनों वर्ष हमें घाटा ही उठाना पड़ा। अब यह तीसरा वर्ष है। देखना चाहिए कि इसका क्या परिणाम होता है? यदि इस वर्ष भी ऐसे ही घाटा उठाना पड़ा तो समझ लिजिए कि आपके प्रिय मित्रके सौ वर्ष पूरे हो चुके और फिर बड़े दुख से लिखना पड़ता है कि यही इसकी आयु का अंतिम वर्ष भी होगा।" (शब्द सत्ता, मध्य प्रदेश में पत्रकारिता के 150 साल, विजयदत्त श्रीधर)

 शुरूआती दो वर्षों की भांति ही छत्तीसगढ़ मित्र' तीसरे वर्ष भी घाटे में ही रहा। जिसके कारण सप्रे जी को प्रकाशन बंद करने का फैसला करना पड़ा। यह मासिक पत्रिका बंद तो हो गई किंतु छत्तीसगढ़ में साहित्य, पत्रकारिता एवं भाषा के लिए अपना महत्वपूर्ण योगदान दे गई। 

 ‘छत्तीसगढ़ मित्र' के 13 अप्रैल, 1907 में नागपुर से शुरू होने वाले हिंदी केसरी' में भी सप्रे जी ने अपना योगदान दिया। जिसने विदर्भ क्षेत्र में हिंदी पत्रकारिता के प्रचार-प्रसार के लिहाज से महत्वपूर्ण योगदान दिया। माधवराव सप्रे जी स्वयं को आजीवन पत्रकारिता के क्षेत्र में होमते रहे। सन 1920 में माखनलाल चतुर्वेदी जी के संपादन में प्रकाशित होने वाले पत्र कर्मवीर' में भी उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से अपना योगदान दिया।

माधवराव सप्रे का जीवन पत्रकारिता, साहित्य एवं भाषा के उत्थान को समर्पित था। हिंदी पत्रकारिता के विकासक्रम में माधवराव सप्रे का महत्वपूर्ण योगदान था, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनका समस्त जीवन संघर्षपूर्ण ही रहा किंतु, वे कभी मुसीबतों के वक्त भी पीछे नहीं हटे। पत्रकारिता के क्षेत्र की वर्तमान एवं आगामी पीढ़ीयों के लिए उनका समस्त जीवन अनुकरणीय है। 

Thursday, June 14, 2012

चुनाव सुधार से होगा देश सुधार


भारतीय लोकतंत्र एक चैराहे पर खड़ा है। भारतीय लोकतंत्र स्वतंत्र, निष्पक्ष, पारदर्शी चुनाव तथा विशाल लोकतांत्रिक प्रक्रिया को संपन्न कराने का दावा करता है। किंतु, इसी लोकतंत्र में आम आदमी अब सत्ता के केन्द्रों एवं रोजमर्रा की जिंदगी के बीच बढ़ती दूरी से कुंठित होता जा रहा है। लोकतंत्र के दिखाए सपने और जिंदगी के झंझावतों के बीच आम आदमी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बहुत उत्साहित प्रतीत नहीं होता है। 

ऐसे समय में भारतीय लोकतंत्र में कुछ बुनियादी परिवर्तनों की आवश्यकता है। लोकतंत्र में लोक की बात उसके द्वारा चुने गए प्रतिनिधि करते हैं। प्रतिनिधि चुनने का काम चुनावों के माध्यम से किया जाता है। निर्वाचन प्रक्रिया को लोकतंत्र की नींव भी कहा जा सकता है। यदि नींव सशक्त होगी, तभी लोकतंत्र का भी सशक्तिकरण हो पाएगा। वर्तमान समय में लोकतंत्र की यह बुनियाद बहुत मजबूत नहीं दिखती है। इसका कारण निर्वाचन प्रक्रिया का अत्यधिक खर्चीला होना एवं बाहुबलियों का दखल है। साथ ही निर्वाचन प्रक्रिया में कुछ नीतिगत खामियां भी हैं, जो लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर कर रही हैं।

हाल के वर्षों में चुनाव आयोग की सख्ती एवं जनजागरण के प्रयासों से चुनावों में बाहुबल का दखल तो कम हुआ है। लेकिन धनबल का प्रयोग आज भी चिंता का विषय बना हुआ है। धनबल के कारण नए लोगों एवं नए विचारों का प्रादुर्भाव असंभव सा हो गया है। चुनावी प्रक्रिया में आम लोगों की भागीदारी बढ़ाने एवं राजनीति में आम लोग भी हाथ आजमा सकें, इसके लिए नीतिगत उपायों की आवश्यकता है। सुधार के नाम पर अब तक किए गए अदूरदर्शी प्रयासों ने चुनावों में धनबल के महत्व को और बढ़ाने का ही काम किया है। 

चुनाव आयोग ने स्वच्छ एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए प्रयास अवश्य किए हैं। किंतु, चुनाव आयोग के प्रयासों से कोई बड़ा फेरबदल नहीं दिखाई पड़ा है। चुनाव सुधार की दृष्टि से हालिया वर्षों में चुनाव आयोग ने निम्न कदम उठाए हैं- 

- सन 1989 में मतदान करने की उम्र को 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दिया गया था। जिससे मतदाताओं की संख्या में वृद्धि हुई एवं युवा प्रतिनिधित्व को भी बढ़ावा मिला। 

- चुनावी खर्च सीमा में बढ़ोत्तरी कर चुनाव आयोग ने प्रत्याशियों के लिए न्यूनतम खर्च सीमा में वृद्धि कर व्यावहारिक खर्चों की राह को आसान किया। 

- अगंभीर प्रत्याशियों को चुनाव से दूर रखने का प्रयास। चुनाव आयोग ने जमानत राशि में बढ़ोत्तरी कर डमी प्रत्याशियों के चुनाव मैदान में उतरने पर लगाम कसने का प्रयास किया।
- विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ने पर रोक लगाकर आयोग ने चुनावी खर्चे को नियंत्रित करने का प्रयास किया। किंतु, आज भी कोई प्रत्याशी 2 निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ सकता है। जिससे पुनः चुनाव कराने की आवश्यकता पड़ती है। 

- चुनाव आयोग ने चुनाव प्रचार की सीमा को 3 सप्ताह से घटाकर 2 सप्ताह कर दिया है। आयोग के इस प्रयास से आर्थिक तौर पर कमजोर प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने में सहूलियत मिली है। 

- चुनावों को अपराधीकरण से मुक्त करने के लिए आयोग ने अदालत द्वारा 2 वर्ष से अधिक की सजा पाए आरोपियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने का काम किया है।

- अगंभीर उद्देश्यों के लिए पंजीकरण कराने वाली राजनीतिक पार्टियों के पंजीकरण पर लगाम लगाने के लिए आयोग ने पंजीकरण की राशि में बढ़ोत्तरी की। साथ ही पंजीकरण की राशि में भी बढ़ोत्तरी की है।

- आयोग ने आईटी क्षेत्र की मदद से पोलिंग की निगरानी करने का कदम उठाया एवं पार्टियों के बैंक खातों के निरीक्षण करने का भी कदम उठाया है।

- मतदान प्रतिशत बढ़ाने का प्रयास करते हुए आयोग ने मतदाता जागरूकता अभियान भी चलाया है। जिसका परिणाम हुआ है कि मतदान में बढ़ोत्तरी देखने को मिली है। 

- चुनावों के दौरान एक्जिट पोल पर रोक लगाकर आयोग ने चुनाव नतीजों पर किसी विपरीत प्रभाव पड़ने पर रोक लगाने का कार्य किया है।

- पोलिंग के लिए ईवीएम मशीन के प्रयोग ने चुनावों में धांधली पर काफी हद तक लगाम लगी है। वहीं फोटोयुक्त मतदाता सूची ने भी मतदान प्रक्रिया में गड़बड़ी की संभावनाओं को कम किया है। 

चुनाव आयोग के इन प्रयासों से मतदान प्रक्रिया में धांधली की संभावनाएं कम हुई हैं एवं बाहुबलियों से भी निजात मिलती दिखी है। लेकिन सही व्यक्ति जनता का प्रतिनिधित्व कर सके एवं उसका निर्धारण बहुमत की राय से हो सके इसमें अभी भी कई बाधाएं जान पड़ती हैं। 

चुनाव आयोग के प्रयासों से मतदान प्रक्रिया में सुधार आया है। मतदान के प्रति लोगों का रूझान बढ़ा है। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि चुनाव अब अधिक खर्चीले हो चले हैं। इसका कारण पार्टी स्तर पर लोकतंत्र का अभाव भी है, जिसका असर प्रत्याशी के चयन पर भी पड़ता है। यही कारण है कि लगभग सभी दलों में सत्ता का केन्द्रीकरण बड़ी समस्या बन चुका है। परिवारवाद अपने चरम पर है। राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक तौर पर लोकतंत्र की कमी है। ऐसे में वह पार्टियां सशक्त लोकतंत्र कैसे स्थापित कर सकती हैं, जिनमें खुद ही लोकतंत्र नहीं है। चुनाव आयोग के पास इस समस्या से निपटने के लिए कोई कारगर तरीका नहीं है। जिसके लिए आयोग के पास अधिकारों की भी कमी जान पड़ती है। चुनावों से धनबल, बाहुबल एवं परिवारवाद पर लगाम लगाने के लिए कुछ कड़े उपाय करने की आवश्यकता है। साथ ही आवश्यकता है चुनाव आयोग को अधिक अधिकार देने की ताकि चुनाव आयोग केवल चेतावनी ही न दे बल्कि कार्रवाई भी कर सके। जो इस प्रकार हो सकते हैं-

- कंपनी एक्ट की भांति ही राजनीतिक पार्टियों के लिए भी एक्ट बनाए जाने की आवश्यकता है। इस एक्ट के अंतर्गत ही राजनीतिक पार्टी के गठन की अनिवार्यता एवं समान संविधान तथा नियमावलि तय किए जाने की आवश्यकता है।

- पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्रः वह पार्टियां जो देश को राजनीतिक नेतृत्व देने का कार्य करती हैं, उनमें लोकतंत्र स्थापित हो यह महत्वपूर्ण है। 

- एक ही क्षेत्र से चुनावः चुनावी खर्चे को कम करने के लिए यह आवश्यक प्रतीत होता है कि कोई भी प्रत्याशी केवल एक ही क्षेत्र से चुनाव लड़ सके। 

- सभी चुनावों की समान मतदाता सूचीः पंचायत चुनावों से लेकर देश के आम चुनावों तक के लिए एक ही मतदाता सूची होनी चाहिए। जिससे खर्च में भी कमी आएगी साथ ही गड़बड़ी की भी संभावना भी कम होगी।

- जनसंचार माध्यमों के लिए दिशानिर्देश: चुनावों के दौरान जनसंचार माध्यमों के दुरूपयोग की संभावनाओं को रोकने के लिए दिषानिर्देश तय जाने की आवश्यकता है।

- चुनाव आयोग की निगरानी में संगठन चुनावः पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र हेतु मनोनयन की प्रक्रिया के स्थान पर चुनाव कराए जाने की आवश्यकता है। संगठन के चुनावों को आयोग के पर्यवेक्षक की निगरानी में कराया जाना चाहिए। 

- फंडिंग की निगरानीः चुनावों में काले धन के दुरूपयोग को रोकने के लिए पार्टियों को मिलने वाले चंदे की भी पर्याप्त निगरानी किए जाने की जरूरत है। राजनीतिक पार्टियों को फंडिंग करने वालों को टैक्स में छूट दी जानी चाहिए, ताकि पार्टियों को मिलने वाला पैसा वैध हो और ज्ञात हो। 

- नागरिक सुविधाओं हेतु मतदान अनिवार्यः पासपोर्ट, राशन कार्ड, रेलवे आरक्षण, बीपीएल कार्ड हेतु मतदान प्रमाण पत्र अनिवार्य किया जाना चाहिए। इससे निर्वाचन में मतदाताओं की स्वतः ही भागीदारी बढ़ेगी।
- प्रतिनिधित्व हेतु 51 प्रतिशत मत अनिवार्यः अल्पमत में होने के बाद भी सांसद, विधायक बनने से ही जनप्रतिनिधि जनता के मुददों से अज्ञान रहता है। ऐसी स्थिति में अगले ही दिन अधिक मत प्राप्त करने वाले दो प्रत्याशियों के मध्य चुनाव कराने से बहुमत प्राप्त प्रत्याशी का निर्धारण हो जाएगा।

- चुनाव प्रचार का मिजोरम मॉडल: मिजोरम में एक ही स्थान पर आम सभा के माध्यम से प्रत्याशी अपने विचार एवं कार्ययोजना को नागरिकों के समक्ष रखते हैं। चुनाव प्रचार का यह तरीका प्रचलित पद्धति के मुकाबले कम खर्चीला एवं सरल है। प्रचार के इस तरीके पर विचार किए जाने की आवश्यकता है। 

- दोषी सिद्ध होने पर सदस्यता निरस्तः वर्तमान में यदि सांसद, विधायक अदालत द्वारा दोषी करार दिया जाता है, तब भी वह अपना कार्यकाल पूरा करता है। अदालत द्वारा दोषी करार दिए जाने पर तत्काल प्रभाव से संबंधित सदस्य की सदस्यता रदद हो जानी चाहिए। 

भारतीय लोकतंत्र में नागरिकों की आस्था बढ़े इसके लिए उपरोक्त सुझावों पर विचार किए जाने की जरूरत है। विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र को सशक्त एवं सजीव बनाए रखने के लिए आमल-चूल परिवर्तनों की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है। इसकी शुरूआत चुनाव सुधार से ही की जानी चाहिए। 

 (संविधानविद सुभाष कश्यप के व्याख्यान पर आधारित)