Monday, July 25, 2016

माया जी! यह बुद्ध का संदेश तो नहीं है...

घृणा, घृणा करने से कम नहीं होती, बल्कि प्रेम से घटती है, यही शाश्वत नियम है। यह कहना था भगवान बुद्ध का। बीजेपी नेता दयाशंकर सिंह की ओर से मायावती की तुलना ‘वेश्या’ से किए जाने के बाद उबले बीएसपी के ज्यादातर नेताओं और कार्यकर्ताओं ने जिस तरह की प्रतिक्रिया दी, वह इस संदेश के पूरी तरह विपरीत है। खुद बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने कहा, ‘उसने जो कहा, वह अपनी बहन-बेटी के लिए कहा है।’ राज्यसभा में उनकी यह प्रतिक्रिया भी मर्यादित नहीं कही जा सकती। आखिर दयाशंकर की इस टिप्पणी के जवाब में उनकी बहन-बेटी पर निशाना साधना कैसे जायज हो सकता है? दयाशंकर ने जो कहा वह कितना निंदनीय है और किस तरह पुरुषवादी एवं दलित विरोधी सोच का प्रतीक है, इसके बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है।


लेकिन मायावती बड़ी नेता हैं, उनका बड़प्पन और बढ़ता यदि वह जैसे को तैसे की प्रतिक्रिया देने की बजाय खुद को पीड़ित के तौर पर ही पेश करतीं। वह उनके राजनीतिक हितों के भी अनुकूल रहता और दयाशंकर जैसे लोगों के खिलाफ एकसुर में निंदा का माहौल बनता। लेकिन बीएसपी के लोगों ने उनके ‘डीएनए में कमी’ बताकर और ‘दयाशंकर कुत्ते को फांसी दो’ जैसे नारे लगाकर भी सभ्यता का परिचय नहीं दिया। यह ऐसा ही है कि कोई शोहदा यदि राह चलते किसी लड़की से बदतमीजी कर दे तो भीड़ उसके घर पर चढ़ जाए और उसके परिवार की महिलाओं से उसका बदला लेने की कोशिश करे।

कांशीराम के नेतृत्व में जिस तरह से बीएसपी का उभार हुआ और मायावती ने उनके बाद दलित समाज की मुखर आवाज के तौर पर जिम्मेदारी संभाली, उसका मैं भी कायल हूं। उत्तर प्रदेश जैसे जटिल राजनीतिक परिस्थितियों वाले राज्य में मायावती ने कुशल प्रशासन देकर लोगों का भरोसा जीता है। लेकिन यह उनके व्यक्तित्व और कार्यशैली की ही कमी है कि समाज का एक बड़ा तबका आज भी उनको वोट नहीं देता। एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो मानता है कि मायावती बदले की राजनीति करती हैं।

बीते कार्यकाल की उनकी सोशल इंजिनियरिंग को छोड़ दें तो जिस तरह से उन्होंने ‘तिलक तराजू और तलवार…’ जैसे कुख्यात नारे दिए थे, वह भी कम समाज विध्वंसक नहीं थे। आखिर कोई कैसे किसी जाति विशेष के खिलाफ इस तरह के नारे लगा सकता है। लेकिन समाज में यह भी हुआ, इसे लोगों की सहिष्णुता ही कहा जाएगा कि इसके बदले में दूसरे नारे नहीं उछले।

2007 से 2012 के अपने मुख्यमंत्रित्व काल में माया ने यह साबित करने की कोशिश की थी कि उनके राज में गैर-दलितों के भी हित सुरक्षित हैं। लेकिन दयाशंकर सिंह के विरोध में जिस तरह के नारे उछले हैं, वह एक बार फिर आशंका पैदा करते हैं। यदि मायावती और बीएसपी को लगता है कि ऐसे प्रदर्शनों से दलित समाज थोक में उन्हें वोट देगा तो वे सही हो सकते हैं, लेकिन यह भी सच है कि इससे सोशल इंजिनियरिंग के दौर में जुड़ा गैर-दलित वर्ग उनसे छिटक भी सकता है। दयाशंकर के आपत्तिजनक बयान पर बीएसपी राजनीति कर रही है, इसका उसे हक भी है। लेकिन, जिस तरह की रणनीति उसने अपनाई है, वह बैकफायर कर सकती है। इस प्रकरण से मायावती सूबे की जनता में खुद को पीड़ित पक्ष के तौर पर पेश कर सकती थीं, लेकिन जैसा रुख खुद उन्होंने और समर्थकों ने अख्तियार किया है, वह उल्टे नुकसान ही पहुंचाएगा।

पीएम नरेंद्र मोदी से सीखें मायावती

2014 के आम चुनावों से कुछ महीने पहले कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी। एक पत्रकार ने मणिशंकर अय्यर से मोदी को लेकर सवाल पूछा तो उनका जवाब था, ’21वीं शताब्दी में वह (नरेंद्र मोदी) प्रधानमंत्री बन पाएं, ऐसा कतई मुमकिन नहीं है… लेकिन यदि वह यहां (कांग्रेस अधिवेशन में) आकर चाय बेचना चाहें तो हम उनके लिए जगह बना सकते हैं।’ इस बयान के जवाब में मोदी ने यह नहीं कहा था कि मणिशंकर अय्यर या अन्य कोई कांग्रेसी बीजेपी अधिवेशन में आकर चाय बेचे या पानी पिलाए, बल्कि राजनीतिक चातुर्य दिखाते हुए उन्होंने खुद को गरीब, शोषित और पीड़ित के तौर पर पेश किया। उनका यह कार्ड किस तरह से चला, इसकी बानगी आम चुनाव के नतीजे हैं।

यह महात्मा बुद्ध का संदेश नहीं है

बीएसपी के लोग महात्मा बुद्ध का अनुसरण करने की बात करते हैं। उनका पहला सिद्धांत ही सहिष्णुता है। कहा जाता है कि भारतीय समाज में बढ़ती हिंसा के चलते ही बौद्ध मत का प्रसार बढ़ा। लेकिन, दयाशंकर के आपत्तिजनक बयान के विरोध में बुद्ध के कथित अनुयायी जिस तरह के नारे उछाल रहे हैं और उनकी बहन-बेटियों पर टिप्पणी कर रहे हैं, वह भी मर्यादा के अनुकूल नहीं हैं। मायावती और उनके समर्थकों को सोचना ही चाहिए कि बुद्ध के किस संदेश को मानते हुए वह ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ की ओर बढ़ रहे हैं।

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)

यहीं खत्म होना था बुरहान का सफर

मौत। हर इंसान का अंत एक दिन इसके साथ ही होता है, लेकिन जीवन भर उसके कामों के हिसाब से ही मौत के बाद उसे जाना जाता है। कई बार तो उसके कामों के आधार पर ही तय होता है कि उसे कौन सी मौत मिलेगी। तो हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकी बुरहान वानी को जो मौत मिली, वह उसके कर्मों के मुताबिक ही थी।  होश संभालने के साथ ही यह लड़का आतंकी संगठन में शामिल हो गया था, आतंक का पोस्टर बॉय बना और 22 साल की उम्र में ही एक एनकाउंटर में वह ढेर हो गया। ढेर हो गया या फिर कर दिया गया, यह किसी आतंकी या गैंगस्टर के लिए ही लिखा जाता है। सामान्य लोगों का निधन होता है और महान आत्माएं तो ‘खुद’ अपना शरीर त्याग देती हैं।


मौत के उल्लेख का यह वर्गीकरण व्यक्ति के कर्मों के मुताबिक ही है। इसके बावजूद भी ऐसे कई कथित बुद्धिजीवी पाए जा रहे हैं, जो अपनी कलमकारिता से यह बताने में जुटे हैं कि बुरहान वानी ‘क्रांतिकारी’ था और उस आतंकी की तुलना भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद की शहादत से कर रहे हैं यानी उसकी मौत को शहीद होना बता रहे हैं।

ऐसे लोगों ने यह कुत्सित प्रयास पहली बार नहीं किया है। इनकी कलमें पहले भी अफजल गुरु और याकूब मेमन की फांसी के विरोध में चली थीं। इस तबके की विशेषता यह है कि ये तथ्यों और तर्कों को तोड़-मरोड़कर पेश करने की महारथ रखते हैं। किस उदाहरण को कहां इस्तेमाल कर दें, इसका भी कोई अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।

कुछ मीडिया समूह और तथाकथित उदारवादी तो एक तरह से कैंपेन चला रहे हैं और बताने में जुटे हैं कि कैसे बुरहान वानी कश्मीरियों के लिए शहीद था। तर्कों की दुष्टता यहां तक कि कश्मीर की ‘आजादी’ की मांग की तुलना भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से कर रहे हैं। ऐसे ही कुछ तर्कों के जवाब-

एक बेटा जायदाद बेचने का फैसला नहीं ले सकता

जम्मू-कश्मीर के 2,22,236 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में से 1,01,387 वर्ग किलोमीटर का इलाका भारत के हिस्से में है। इसमें से 26,293 वर्ग किमी में जम्मू बसा है, जबकि 59,146 किलोमीटर का क्षेत्रफल लद्दाख का इलाका है, बाकी बचा 15,948 वर्ग किमी का हिस्सा कश्मीर घाटी का है। यानी कश्मीर घाटी का क्षेत्रफल लद्दाख और जम्मू की तुलना में बेहद कम है।

कथित तौर पर आजादी की मांग करने वालों का बहुमत इसी इलाके में बसता है, लेकिन अलगाववादी संगठन और इनके समर्थक लेखक समूह इसे पूरा राज्य की मांग बताने पर तुले हैं। अगर किसी घर में 3 बेटे हों (जम्मू, लद्दाख और कश्मीर) तो फिर कश्मीर से पूछकर ही आजादी का फैसला क्यों होना चाहिए। फिर इसी कश्मीर घाटी में आधा हिस्सा उन कश्मीरी पंडितों और सिखों का है, जिन्हें अमानवीय प्रताड़नाएं देकर इस्लामिक आतंकवादियों ने उनके घर से खदेड़ दिया। आज वह दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। इन लोगों का भी जम्मू-कश्मीर के जर्रे-जर्रे पर उतना ही हक है, जितना घाटी के अलगाववादियों का।

पूरा जम्मू-कश्मीर अशांत नहीं

अलगाववाद समर्थक लेखक समूह तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हुए यह साबित करने में जुटे रहते हैं कि पूरा जम्मू-कश्मीर ही अशांत है। ऐसा नहीं है, जम्मू और लद्दाख में कभी कोई पत्थर नहीं उछला। कश्मीर घाटी की समस्या भी किस तरह से अलगाववादियों की देन है, यह भी किसी से छिपा नहीं है।

पिछले दिनों ही एक अलगाववादी नेता के बेटे ने कहा था कि गोली खाने के लिए गरीब ही क्यों हैं, आखिर इन नेताओं के बेटे खुद बंदूकें लेकर क्यों नहीं उतरते? साफ है कि इस समस्या की जड़ में पाकिस्तान के पैसों से फल-फूल रहे अलगाववादी और वे आतंकवादी हैं, जो सूबे में इस्लामी निजाम की स्थापना के लिए गोलियां चला रहे हैं। बुरहान की मां ने भी एक न्यूज पोर्टल से बातचीत में कहा है, ‘मेरा बेटा इस्लामी निजाम के लिए मरा, काफिरों से लड़ते हुए।’

यह जंग बर्बादी की है

इन आतंकियों और अलगाववादियों को अपनी कलम से खाद-पानी देने वाले लोग इसे आजादी का संघर्ष बताते हुए बुरहान जैसों की तुलना भगत सिंह से करते हैं। ध्यान देने की जरूरत है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की आग पूरे देश में धधक रही थी। ऐसा नहीं था कि किसी राज्य में आजादी की जंग न चल रही हो। कश्मीर में एक विशेष समुदाय के कुछ भटके हुए लोग आतंकवाद की राह पर निकल पड़े हैं, इसे आजादी की जंग कैसे कहा जा सकता है?

इन आतंकियों के परिवार के लोग तो खुद स्वीकार कर रहे हैं कि उनके बेटे इस्लामी निजाम की स्थापना के लिए मरे हैं। एक तथ्य और कि आजादी की जंग में इस्लामिक स्टेट जैसे खूंखार आतंकी संगठनों के झंडे नहीं लहराए जाते। IS के झंडे लेकर जो जंग लड़ी जा रही हो, वह आजादी की तो नहीं बर्बादी की जरूर हो सकती है।

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग) 

इसलिए मची है पिछड़ा कहलाने की होड़

बाबासाहेब आंबेडकर ने हिंदू समाज की जाति-व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह एक ऐसी बहुमंजिला इमारत की तरह है, जिसमें कोई सीढ़ी नहीं है। उनका कहना था कि यह व्यवस्था ऐसी है, जिसमें ऊपर का व्यक्ति नीचे नहीं आ सकता और नीचे का व्यक्ति ऊपर नहीं आ सकता, उन्हें अपनी ही मंजिलों पर मरना होगा। लेकिन, बीते कुछ सालों से इन मंजिलों पर सीढ़ियां लगाने की कोशिशें हो रही हैं। कल तक ऊपरी मंजिल पर बैठे लोग, अब निचली मंजिल पर आना चाहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वहां सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हैं, नौकरियों और पढ़ाई में आरक्षण है, फिर ऊपर की मंजिल पर बैठकर क्या किया जाए?

चलो नीचे ही उतरने की कोशिश करते हैं, कोई आंदोलन करते हैं। कूपा, पटेल और जाट आंदोलन इसी सोच की परिणति हैं। यह तीनों ही जातियां भारत की सामाजिक व्यवस्था में हमेशा से उच्च मध्य पायदान पर रही हैं। इसलिए जब समाज में दलितों और पिछड़ों को आरक्षण देने की व्यवस्था की गई तो इन पर विचार नहीं किया गया। यह जातियां समाज में उच्च मध्य पायदान पर रहने के साथ ही आर्थिक तौर पर भी सक्षम रही हैं। (व्यक्तिगत तौर पर किसी का पिछड़ापन अलग बात है) लेकिन अब इन जातियों ने आरक्षण की मांग को लेकर हिंसक आंदोलन शुरू कर दिए हैं।

यह अपेक्षाकृत ताकतवर जातियां आखिर क्यों आरक्षण के लिए आंदोलन कर रही हैं? इसकी पड़ताल करना जरूरी है। यह सही है कि आजादी के वक्त जो हालात थे, उसमें सवर्ण लोग प्रभुत्वशाली भूमिका में थे, खेती से लेकर नौकरी-चाकरी तक पर उनकी स्थिति बेहद मजबूत थी। दलितों और आदिवासियों के पास आगे बढ़ने के लिए संसाधानों का अभाव था, उनकी सामाजिक स्थिति भी बेहद कमजोर थी। सवर्णों के अमानवीय बर्ताव से वह पीड़ित थे, उससे उनकी मुक्ति के संविधान में कुछ प्रावधान किया जाना जरूरी थी। संविधान निर्माताओं ने ऐसा किया भी, दलितों को 15 पर्सेंट और आदिवासियों को 7.5 पर्सेंट का आरक्षण प्रदान किया गया। 10 साल के बाद इस व्यवस्था की समीक्षा की जानी थी। लेकिन इसकी मियाद बढ़ती रही, इसकी वजह यह थी कि जिन लोगों के लिए यह लागू किया था, उस समाज को समग्र तौर पर इस व्यवस्था का लाभ नहीं मिल सका। 

आम सहमति है कि पिछड़े समाज को मिलने वाला आरक्षण उनके समग्र विकास तक जारी रहना चाहिए। यहां मैं साफ कर दूं कि मेरी भी यही राय है। लेकिन उदारीकरण की नीतियों के बाद से सामाजिक और आर्थिक हालात काफी बदल गए हैं। एक दौर में कुछ निश्चित तबकों के लिए आरक्षण की व्यवस्था से अन्य जातियां बहुत प्रभावित नहीं होती थीं क्योंकि उनके पास खेती जैसे अन्य उपक्रम थे। उसका एक वर्ग खेती के जरिए अपना गुजारा कर लेता थे। 

उदारीकरण के बाद से जीडीपी आधारित ग्रोथ के दौर में नौकरियों का प्रभुत्व बढ़ा है। पलायन की दर बढ़ी है, गांव में खेती कर रहे युवाओं को अब निखट्टू तक कहा जाने लगा है। शादियां भी अब खेती नहीं नौकरी देख कर होने लगी है।jat दूसरी तरफ जनसंख्या वृद्धि के चलते जोतें छोटी होती गई हैं, अकेले खेती पर निर्भर रहने वाले परिवार विरले ही होंगे। इसलिए अब हर जाति-समुदाय के लोग नौकरियों के लिए प्रयासरत हैं। वह भी सरकारी नौकरी, जहां इस उथल-पुथल के दौर में जिंदगी स्थिरता से कट सके। कूपा, पटेल और जाट जैसी बिरादरियों के आरक्षण की जंग में उतरने के मूल कारण यही हैं।

ध्यान रखने की जरूरत है कि नीतियां भी इस पर निर्भर होती हैं कि हमने विकास के लिए या देश चलाने के लिए मॉडल कौन सा चुना है। फिलहाल देश जीडीपी आधारित विकास मॉडल पर चल रहा है, जहां कृषि में अप्रत्यक्ष बेरोजगारी की स्थिति है। ऐसे में कृषि में संलग्न रही जातियां परेशान हैं। उल्लेखनीय है कि जाट, पटेल और कूपा तीनों ही खेतिहर समुदाय हैं। भले ही इन जातियों का बीता इतिहास सुनहरा रहा हो, लेकिन इनमें भी एक तबका ऐसा है जो खेती की जोतें छोटी होने और नौकरियां न मिलने के चलते गरीबी के दलदल में फंस गया है। लेकिन, इस तरह आरक्षण को रेवड़ी की तरह बांटना भी तो सही नहीं होगा। ऐसे में सरकार को वोटबैंक की राजनीति और किस राज्य में किस जाति की कितनी आबादी है, इस गणित में फंसे बिना कुछ उपाय करने चाहिए।

इनमें से कुछ उपाय जो मुझे सूझे हैं, मैं उनका उल्लेख कर रहा हूं। यदि आपके जेहन में भी इस आरक्षण व्यवस्था को लेकर कुछ सुझाव हैं तो आप उनका जिक्र कर सकते हैं।

– दलितों एवं पिछड़ी जातियों को मिल रहा आरक्षण जस का तस रहना चाहिए।

– जाट, कूपा एवं पटेल समेत अन्य जातियों के गरीबों को (पूरे समुदाय को नहीं) नौकरी एवं शिक्षा में आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए।

– एलपीजी सब्सिडी वापस लौटाने की तरह ही कुछ ऐसे लोग जो समाज में ऊंचे पायदान पर पहुंच चुके हैं और उन्हें लगता है कि अब वे आरक्षण के बिना आगे बढ़ सकते हैं, उन्हें इस सुविधा से खुद को अलग कर लेना चाहिए। इसकी मुहिम समुदायों के नेताओं की मदद से ही आगे बढ़ सकती है।

– कुछ लोगों के आरक्षण लौटाने से उनके ही समाज के किसी गरीब को मदद मिलेगी।

– देश में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जो बेहद पिछड़े हैं। वहां रहने वाले किसी भी समुदाय के लिए मुख्यधारा में शामिल होना चुनौती है। ऐसे लोगों को उनकी भौगोलिक स्थिति के आधार पर ही केंद्रीय नौकरियों एवं शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया जाना चाहिए।

– लद्दाख, हिमाचल-उत्तराखंड के दुर्गम पहाड़ी इलाके और पूर्वोत्तर राज्यों को इसमें शामिल किया जा सकता है।

– आरक्षण को लेकर राजनीति नहीं होनी चाहिए। इससे अधिक आबादी वाली जातियों को वोट बैंक का फायदा मिलता है, लेकिन अल्पसंख्यक जातियों की परवाह करना भी तो सरकार का ही काम है।

– आरक्षण का फैसला किसी समाज की स्थिति का आकलन करने के बाद ही होना चाहिए। जिसकी लाठी, उसका आरक्षण की तर्ज पर फैसले हुए तो हालात भयावह हो सकते हैं।

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)

आखिर हम खोया जम्मू-कश्मीर कब लेंगे?

जेएनयू में पिछले दिनों कुछ छात्रों ने जब कश्मीर की कथित आजादी को लेकर नारेबाजी की तो एक बार फिर समूचे देशवासियों का ध्यान राष्ट्र के इस महत्वपूर्ण हिस्से की ओर गया। आमतौर पर जम्मू-कश्मीर की चर्चा दिल्ली या अन्य हिस्सों में तभी होती है, जब कोई विवाद होता है या सरकार गठन का कोई मसला होता है। लेकिन, आज 22 फरवरी की तिथि इस प्रदेश और देश के लिहाज से बेहद अहम है। आज ही के दिन 1994 को भारत की संसद ने पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर को वापस लेने का संकल्प दोहराया था। (22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी कबाइलियों और सेना ने अचानक हमला बोल राज्य के बड़े हिस्से पर कब्जा जमा लिया था।)

फिलहाल जम्मू-कश्मीर के 2,22,236 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में से 1,01,387 वर्ग किमी का इलाका भारत का है। इसमें से 26,293 वर्ग किमी में जम्मू बसा है, जबकि 59,146 किलोमीटर का क्षेत्रफल लद्दाख का इलाका है, बाकी बचा 15,948 वर्ग किमी का हिस्सा कश्मीर घाटी का है। इसके अलावा जम्मू-कश्मीर रियासत का 78,114 वर्ग किमी हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में है। यही नहीं चीन ने भी भारत के इस अहम हिस्से के 37,555 किमी क्षेत्रफल पर अपना कब्जा जमा रखा है। वहीं, पाकिस्तान ने चीन को अपने कब्जाए इलाके में से 5,180 वर्ग किमी हिस्सा चीन को सौगात के तौर पर सौंप दिया है।

इन आंकड़ों को यहां इसलिए दोहराया गया ताकि हमें इस बात का अहसास हो सके कि देश का कितना बड़ा हिस्सा पाकिस्तान और चीन के कब्जे में चला गया है। इसी हिस्से को वापस पाने के लिए भारत की संसद ने अपना संकल्प दोहराया था, यहां से निर्वाचित होने वाले 22 विधायकों के लिए आज भी राज्य विधानसभा में 22 सीटें खाली पड़ी हैं। लेकिन, दुखद बात यह है कि हम इस संकल्प पर रत्ती भर भी आगे नहीं बढ़े हैं। उल्टे माहौल यह पैदा हो गया है कि कुछ देशद्रोही तत्व मौजूदा जम्मू-कश्मीर को भी भारत से छीनने के नारे दे रहे हैं। यहां मेरा मंतव्य उन नारों में जाना नहीं है, लेकिन सरकार समेत पूरे समाज को इस बात की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है कि हमने क्या खोया और क्या पाया है। 

1994 के बाद से अब तक झेलम में बहुत पानी बह चुका है, लेकिन हम उस खोए हिस्से को पाने के कोई प्रयास करते नहीं दिखे हैं। कांग्रेस की सरकार हो या राष्ट्रवाद के नाम पर सत्ता में आने वाली बीजेपी, कोई भी दल इस मामले में प्रयास नहीं कर सका है।

उल्टे ऐसा माहौल तैयार हो गया है, जैसे हम इस हिस्से को ही भूल गए हों। 22 साल पहले पारित इस प्रस्ताव की हम चर्चा भी नहीं करते। रणनीतिक मोर्चे पर भारत सरकार की यह बड़ी चूक है, एक तरफ हम दक्षिण चीन सागर में चीन से लोहा लेने की तैयारियां करने की बात करते हैं, वहीं देश का ही एक बड़ा हिस्सा चीन और पाक के कब्जे में है और हमारी राजनीतिक सत्ता मौन है। 

पाक और चीन के कब्जे में गया यह इलाका रणनीतिक तौर पर कितना महत्वपूर्ण है, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि गिलगित-बल्तिस्तान के पूरे क्षेत्रफल को पाकिस्तान ने चीन को ही सौंपने का ऑफर दे दिया है। यही नहीं चीन ने तिब्बत से लेकर पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक रेल नेटवर्क तैयार करने का भी काम शुरू कर दिया है, यह इसी इलाके से होकर गुजरेगी। भारत दोतरफा घिर रहा है, लेकिन हम मौन हैं।

अकसर पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र में जाकर जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को उठाने की कोशिश करता है और हमारी सरकार बचाव करती दिखती है कि इस पर तो बात ही नहीं होनी चाहिए। मेरा सवाल है कि यह रक्षात्मक रवैया क्यों, हम यह पक्ष क्यों नहीं रखते कि बात होनी चाहिए लेकिन इस पर कि पाकिस्तान अवैध रूप से कब्जाए इलाके से अपना कब्जा कब छोड़ेगा? पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की जो दुर्दशा पाक सरकार और आतंकियों ने कर रखी है, उस मुद्दे को भी हमें संयुक्त राष्ट्र में उठाना चाहिए। 26 बरस पूरे हो चुके हैं, यह वक्त कम नहीं होता।

गिलगित के रहने वाले शिंगे हसनेन शेरिंग ने पिछले साल अपने भारत दौरे के वक्त इस बात का जिक्र किया था कि इस इलाके में किस तरह से चीन और पाक स्थानीय लोगों का दमन कर रहे हैं। वहां का एक तबका आज भी भारत से जुड़ने की चाह रखता है, लेकिन हमारी सरकार है कि इस मसले पर कुंभकर्णी नींद से जागने का नाम ही नहीं ले रही। वहीं, तिब्बत को पहले ही लील चुका चीन इस इलाके के रणनीतिक महत्व को समझते हुए इसे भी डकारने और भारत की घेरेबंदी की कोशिशों में जुटा है। अब वक्त आ गया है, जब भारत के टुकड़े करने के नारे लगाने वाले लोगों पर कार्रवाई के साथ ही भारत को अपने उन हिस्सों को भी सहेजने की कोशिश करनी चाहिए, जिन्हें षड्यंत्र और छलपूर्वक उससे छीन लिया गया है।

गिलगित-बल्तिस्तान का रणनीतिक महत्व

गिलगित-बल्तिस्तान का क्षेत्र करीब 90 हजार वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से 20 हजार वर्ग किमी हिस्सा चीन के कब्जे में है। गिलगित-बल्तिस्तान की सीमाएं अफगानिस्तान, कजाकिस्तान, पाकिस्तान, चीन व भारत के साथ लगी हैं। इसी कारण चीन अपनी विस्तारवादी एवं दादागिरी की नीयत से इस इलाके में अपनी पैठ बढ़ा रहा है, ताकि उसका चारों ओर से भारत को घेरने का मकसद भी पूरा हो सके। गिलगित-बल्तिस्तान के रणनीतिक महत्व को इस बात से ही समझा जा सकता है कि पूर्व में इसकी सीमाएं सोवियत यूनियन तक से लगती थीं। अंग्रेजों ने मध्य एशिया में अपनी पैठ बनाने के मकसद से 1935 में महाराजा हरिसिंह से समझौता कर गिलगित-बल्तिस्तान इलाके को लीज पर ले लिया था। इस इलाके की सुरक्षा व प्रशासन की जिम्मेदारी अंग्रेजों के हाथ में थी। 1947 में इस क्षेत्र को उन्होंने महाराजा को वापस कर दिया। इसकी सुरक्षा के लिए अंग्रेजों ने एक अनियमित सैनिक बल गिलगित स्काउट का भी गठन किया था।

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)

इसलिए टूट रहा है वामपंथ का ‘लालकिला’

बीते कुछ दशकों में भारतीय राजनीति को यदि सबसे बड़ा नुकसान हुआ है तो वह है ‘वामपंथ का बर्बादी की ओर बढ़ना’। जेएनयू में कुछ वामपंथी विचारधारा के छात्रों की ओर से भारत विरोधी नारे लगाने से लेकर रोहित वेमुला की मौत पर राजनीतिक रोटियां सेंकने, याकूब की फांसी पर अनर्गल विलाप करने, मालदा पर चुप्पी साधने, बीफ पार्टियां करने, कश्मीर की आजादी के नारों का समर्थन करने तक ऐसी तमाम हरकतें इस बात की बानगी हैं कि वामपंथ अब आत्मघाती राह पर है। वामपंथी संगठनों की ओर से इस तरह के अनर्गल मुद्दे उठाना यह साबित करता है कि उनके पास रचनात्मक मुद्दों की कमी हो गई है, या वह कम मेहनत पर ज्यादा फसल काटना चाहते हैं।

यह सही है कि भारत माता की वंदना करने में वामपंथी विचारधारा के लोगों को कभी दिलचस्पी नहीं रही, सैनिकों को वह सरकारी लठैत कहते रहे हैं, अदालत (याकूब मेमन और अफजल गुरु के मामले में) यदि उनकी सोच के अनुकूल फैसला न दे तो उस पर भी सवाल उठाने लगते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर वह यह सब करते रहे हैं। भले ही भारतीय वामपंथ की वैचारिक प्रेरणा के स्रोत कहे जाने वाले चीन और रूस में इस तरह की आजादी न हो (थ्येन मेन चौक का गोलीकांड याद रखना चाहिए), लेकिन भारत में मिलती रही है। यह तभी संभव हुआ है, जब भारत में स्थिरता रही है, लोकतंत्र मजबूत रहा है और यह सहिष्णु देश आबाद रहा है। लेकिन, सोचिए यह देश बर्बाद हो जाए और टुकड़े हो जाएं तो क्या इस तरह की आजादी किसी को मिल सकेगी?

वामपंथी राजनीति हो या दक्षिणपंथी, हर तरह की राजनीति तभी चल सकेगी, जब यह देश रहेगा। यदि भारत ही बर्बाद हो जाएगा तो फिर क्या? लेकिन वामपंथी खेमा 16 मई, 2014 के बाद से इतनी अधीरता और बौखलाहट में आ गया है कि गालियों की भाषा में बात करने लगा है। कभी सभ्यता और पढ़ाई-लिखाई को अपनी बपौती मानने वालों के नारे ऐसे हो गए हैं कि सड़क छाप गुंडे भी शरमा जाएं, ‘नीम का पत्ता कड़वा है, नरेंद्र मोदी… है।’ मेरा सवाल है कि मित्रो, आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?

आपके या दूसरे खेमे के लोगों की विचारधारा अलग हो सकती है, लेकिन हैं तो सब भारतीय ही न? भारत की मंगलकामना तो देश में हर विचार के व्यक्ति को करनी ही चाहिए। लेकिन, दुर्भाग्य से वामपंथी राजनीति मतिभ्रम का शिकार हो गई है, अभिव्यक्ति की आजादी की बात करते-करते वह देशद्रोहियों की गोद में जानकारी बैठ गई है। वामपंथ का ऐसा चरित्र पहले न देखा था।

वाजिब मुद्दे उठाने से बढ़ेगा आधार

हालिया सरकार की ही बात करें तो एक तरफ कॉरपोरेट जगत को भारी सब्सिडी विकास के नाम पर दी जा रही है। वहीं, किसानों की सब्सिडी में कटौती की जा रही है। बैंकों के लाखों करोड़ रुपये एनपीए में चले गए हैं, यह कर्ज कंपनियों ने ले रखा था। सरकार उसे भूल नया पैकेज जारी करने की तैयारी में है, जबकि किसान की जमीन 50 हजार के कर्ज पर भी नीलाम हो जाती है। मजदूरों का बुरा हाल है, उस पर भी राजस्थान और अन्य बीजेपी शासित राज्यों में श्रम सुधार कानूनों के नाम पर गरीबों का हक मारा जा रहा है। रोजगार के अवसर छीने जा रहे हैं, लेकिन वामपंथी मौन साधे हैं। यह वह रचनात्मक मुद्दे हैं, जिनका विरोध कर वह अपनी खोई जमीन हासिल कर सकता है। इसके लिए उसे देशद्रोहियों की भाषा नहीं बोलनी पड़ेगी। हिंदू-मुसलमान की बजाय मजदूर, दलित-सवर्ण की बजाय वामपंथ यदि किसान की बात करे तो उसकी सेहत के लिए ज्यादा अच्छा रहेगा। मजदूर और किसान में हिंदू, मुसलमान, सवर्ण और दलित तक सभी शामिल हैं।

सीखना होगा विपक्ष में रहना

पिछले कुछ दिनों से वामपंथी बुद्धिजीवी और ऐक्टिविस्टों का जो स्वर है, वह विरोध से ज्यादा बौखलाहट प्रतीत होता है। मेरे कई मित्र हैं, जो कह रहे हैं कि 16 मई, 2014 की तारीख के बाद से देश का माहौल बिगड़ गया है। एक बड़े इतिहासकार ने तो आरएसएस की तुलना इस्लामिक स्टेट से कर दी। बिना किसी तथ्य के इस तरह की बात करना बौखलाहट नहीं तो क्या है? कुछ लोगों ने पुरस्कार वापसी का ही अभियान छेड़ दिया, वह भी सिरे नहीं चढ़ा। फिर रोहित वेमुला की आत्महत्या को दलित उत्पीड़न करार देकर राजनीतिक रोटियां सेंकने लगे, वहां से भी खाली हाथ लौटना पड़ा। इसकी वजह यही थी कि उनके मुद्दे रचनात्मक नहीं थे। उनका विरोध सिर्फ विरोध के लिए था। दरअसल, करीब 7 दशकों में इतनी बुरी तरह हाशिये पर जाने की स्थिति वामपंथियों ने कभी नहीं झेली थी, लेकिन मित्रो, ऐसा दौर भी आता है, राजनीति में आपको विपक्ष में भी रहना सीखना होगा। इस मामले में वामपंथी मित्र वैचारिक तौर पर अपने कट्टर विरोधी संगठन आरएसएस से भी सीख सकते हैं, जो दशकों तक सत्ता से दूर रहा, लेकिन भारत की बर्बादी की कामना कर कभी सत्ता में आने की कोशिश नहीं की।

बदलाव खुद से शुरू करना होगा

‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’। यह बात वामपंथ पर एकदम सटीक लगती है। यह सही है कि आरएसएस और कांग्रेस समेत तमाम राजनीतिक दल दलितों एवं समाज के पिछड़े तबकों को उनका वाजिब हक देने में असफल रहे हैं। लेकिन वामपंथी दलों और विचारकों को अपने भीतर भी झांकना चाहिए। बीते 51 सालों में सीपीएम के पोलित ब्यूरो में यदि एक भी दलित को जगह नहीं मिल सकी है तो यह किसकी कमी है? क्या वहां भी आरएसएस के चलते दलितों को नेतृत्व में हिस्सा नहीं मिल सका? रोहित वेमुला के मामले में रोना मचाने वाले मित्रों को इन सवालों का भी जवाब देना होगा कि नक्सलियों का नेतृत्व भी ब्राह्मणों के हाथ में ही क्यों है और मरने को दलित ही क्यों हैं? साफ है कि वामपंथ को खुद से बदलाव की शुरुआत करने की जरूरत है।

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)