Wednesday, August 10, 2016

ऐसे पत्रकारों को तो लोग ‘दलाल’ ही कहेंगे!

पत्रकार की भूमिका क्या है? एक पत्रकार के नाते इस सवाल का जवाब मुझे हमेशा यही मिला है कि जहां भी आप हो, वहां से हर मसले को निरपेक्ष दृष्टि से देखना। लेकिन, जब कोई पत्रकार किसी राजनीतिक दल का कार्यकर्ता अधिक हो जाए और उसका अपने पेशे से सरोकार सिर्फ अपनी विचारधारा के पोषण तक सीमित हो जाए तो इसे क्या कहेंगे? जाहिर है इन्हें पत्रकार नहीं, बल्कि राजनीतिक संगठन का कार्यकर्ता कहा जाएगा (भावनाओं पर काबू न रख पाने वाले लोग तो ‘दलाल’ तक कह देते हैं)। इसका एक उदाहरण नीचे संलग्न एक गोष्ठी का पत्रक है, जिसमें खुद को देश के निष्पक्ष पत्रकारों में शुमार करने वाले ओम थानवी एक सेशन के अध्यक्ष के तौर पर शिरकत करने वाले हैं। इस प्रॉपेगेंडा गोष्ठी का नाम है, ‘संघ का आतंकवाद और न्याय की असफलता’। कॉन्स्टिट्यूशन क्लब दिल्ली में प्रस्तावित कार्यक्रम के लिए छपे इस पत्रक में संघ के स्वयंसेवक (जिसकी मूंछे आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत जैसी दिखाई गई हैं) की प्रतीकात्मक तस्वीर इस्तेमाल की गई है। यानी साफ तौर पर संघ को एक आतंकी संगठन के तौर पर चित्रित करने की कोशिश की गई है।

इस गोष्ठी में हेमंत करकरे की मौत पर सवाल, देश की न्यायिक व्यवस्था का पूर्वाग्रह और ‘संघी आतंकवाद के खतरे’ जैसे फर्जी विषय शामिल किए गए हैं। इस कार्यक्रम के वक्ताओं की सूची पर भी एक बार नजर डाल लीजिए, इनमें हर्ष मंदर, तीस्ता सीतलवाड़, सुभाष गाताडे, शशि थरूर, मनोज झा, कविता कृष्णन, प्रफेसर अपूर्वानंद और सीताराम येचुरी जैसे लोग शामिल हैं। इस पूरी गैंग की विचारधारा क्या है, इसके बारे में बताने की जरूरत नहीं है। हर्ष मंदर वह व्यक्ति हैं, जो यूपीए सरकार के दौरान सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में सदस्य थे। आरएसएस से इनकी पुरानी वैचारिक रंजिश है। शशि थरूर तो कांग्रेस के सांसद हैं ही। प्रफेसर अपूर्वानंद एक शिक्षक से ज्यादा काम देश में वाम विचारधारा के प्रचारक का करते रहे हैं। तीस्ता सीतलवाड़ को कौन नहीं जानता, इन्हीं के एनजीओ की विदेशी फंडिंग पर सरकार ने बैन लगाया है। पीएम नरेंद्र मोदी के खिलाफ तमाम मुकदमों की अगुवा रही हैं। सीताराम येचुरी तो आखिर सीपीएम के महासचिव हैं ही।
इनका इतिहास बताता है कि ये लोग ऐसा ही कार्यक्रम आयोजित कर सकते हैं।

चिंता का सबब है ओम थानवी का इस गोष्ठी का मेहमान बनना। वह तो खुद को निरपेक्ष पत्रकारों में से एक बताते रहे हैं (हालांकि वह कभी रहे नहीं)। थानवी का इस कार्यक्रम के मेहमानों में शामिल होना बताता है कि देश में पत्रकारों की एक जमात किस हद तक गिरने पर उतारू है। ऐसे में यदि कोई इन्हें ‘दलाल’ कहता है तो क्या बुरा है? खुद इस पेशे में होने के चलते पत्रकारों के लिए ऐसे संबोधन मुझे आहत करते हैं, लेकिन अब मैं कहूंगा कि जहां थानवी जैसे हों, वहां ऐसे कहने वाले भी गलत नहीं हैं।

इस पूरी गोष्ठी की थीम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आतंकी संगठन करार देने की है। मेरा मानना है कि इन लोगों को इस गोष्ठी के आयोजन की अनुमति ही नहीं दी जानी चाहिए। आखिर कैसे कोई बिना किसी तथ्य के किसी संगठन को आतंकवादी करार दे सकता है? यदि आपको संघ के आतंकी घटनाओं में लिप्त होने का विश्वास है तो अदालत में केस करिए। ऐसे प्रॉपेगेंडा कार्यक्रमों से क्या होगा? लेकिन यह न्यायालय क्यों जाएं, इन्होंनें तो न्यायिक व्यवस्था को ही पूर्वाग्रही करार दे दिया है। इन कथित बुद्धिजीवियों, नेताओं और पत्रकारों के इस गैंग की ओर से प्रस्तावित यह कार्यक्रम सीधे तौर पर देश की व्यवस्था को एक चुनौती है। अब इन्हें ‘दलाल’ और ‘देशद्रोही’ न कहा जाए तो क्या कहा जाए?

यह बात बिल्कुल सही है कि संघ में खामियां हैं, उसकी विचारधारा से किसी का भी असहमति रखने का अधिकार है। लेकिन आप कैसे बिना सबूत के इस तरह का अनर्गल आरोप लगा सकते हैं? यह ठीक ऐसा ही है, जैसे संघ की विचारधारा से प्रभावित पत्रकार और विचारक कांग्रेस और सीपीएम जैसे दलों को आतंकी संगठन घोषित करने का प्रॉपेगेंडा रचने के लिए किसी गोष्ठी का आयोजन करें।

राहुल गांधी को लगी फटकार से सीखें

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने संघ के लोगों को महात्मा गांधी का हत्यारा करार देने वाले बयान को लेकर यह कहते हुए फटकार लगाई थी कि आप किसी संगठन की छवि इस तरह धूमिल नहीं कर सकते। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘जब आप किसी व्यक्ति या संस्था के बारे में बोलते हैं तो आपको सतर्क रहना चाहिए। नाथूराम गोडसे ने गांधीजी को मारा और आरएसएस के लोगों ने गांधीजी को मारा, इन दोनों बातों में बहुत फर्क है।’

अदालत ने इस मामले में राहुल को आपराधिक मामले से बचने के लिए संघ से माफी की सलाह दी है। बिना सोचे समझे किसी संगठन पर इस तरह का कुख्यात आरोप लगाने वालों के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक सबक है। इस गोष्ठी के आयोजकों को इस फैसले से सीखना चाहिए। यदि इन्हें वास्तव में लगता है कि संघ आतंकी संगठन है तो अपनी लंबी-चौड़ी वकील लॉबी के जरिए कोर्ट में याचिका दायर करें। यह गैंग जब याकूब मेमन जैसी आतंकी के बचाव में आधी रात को सुप्रीम कोर्ट पहुंच सकती है, तो फिर संघ के खिलाफ रात में न सही दिन के उजाले में याचिका दायर करें।

रस्सी जल गई, लेकिन ऐंठ न गई

यह कहावत शायद किसी ने वाम विचारधारा वाले लोगों के लिए ही रची थी। देशविरोधी बयानों, समाज को तोड़ने के अजेंडे, समुदाय विशेष के तुष्टिकरण, आतंकवाद के बचाव के लिए कुतर्क गढ़ने के इनके कृत्यों के चलते ही देश की जनता ने इन्हें खारिज कर दिया है। लेकिन, मीडिया और अकादमिक जगत में कुंडली मारे बैठा इनका एक गिरोह आज भी अपने कुत्सित प्रयासों में लगा हुआ है। राजनीतिक तौर पर देश की जनता ने इन्हें एक तरह से खत्म कर ही दिया है, यही हाल रहा तो मीडिया और अकादमिक जगत में भी इनकी विश्वसनीयता समाप्त हो जाएगी।