Sunday, July 2, 2017

झगड़ा था सीट का, बताया बीफ का, अपराध किसका?

उन मां-बाप के दुर्भाग्य की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है, जिन्हें मीठी ईद से पहले अपने जिगर के टुकड़े को अंतिम विदाई देनी पड़ी। वह भी तब, जबकि उनके बेटे को मामूली झगड़े में कुछ लोगों ने पीट-पीटकर मार डाला हो। पलवल-मथुरा शटल में सफर कर रहे जुनैद के साथ जो हुआ, वह बर्बरता की हद है। ऐसी घटना और दोषियों की सभी पूर्वग्रहों, धर्म-पंथ के मतभेदों और राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर निंदा की जानी चाहिए। लेकिन, इस मामले से भी शायद कुछ लोग सबक नहीं ले रहे और राजनीतिक तूल देने में जुटे हैं। ट्रेन में सीट को लेकर हुए झगड़े को पहले तो बीफ से जुड़ा मामला करार दे दिया गया, जिसे तमाम बड़े मीडिया घरानों ने धड़ल्ले से चलाया। फिर देश में शांति-सौहार्द्र और गंगा-जमुनी तहजीब के कथित झंडाबरदार हमलावरों की मानसिकता को देश के हिंदू समाज की मानसिकता में बदलाव का परिचायक बताने लगे। क्या ऐसा करना सही है?

यदि किसी धर्म को मानने वाले कुछ युवक ट्रेन में किसी घटना को अंजाम देते हैं तो क्या यह उनके पूरे समाज की मानसिकता को दर्शाता है? एक बड़े विदेशी मीडिया हाउस के स्वनामधन्य पत्रकार ने तो इसे हिंदू समाज के सैन्यीकरण की शुरुआत करार दिया है। तो क्या बीते कुछ सालों में एक वर्ग विशेष के युवाओं के इस्लामिक स्टेट से जुड़ने को पूरी कौम का आतंकी होना कहा जा सकता है? क्या रामपुर में एक समुदाय के कुछ युवकों द्वारा दलित युवतियों से बदसलूकी और उसका विडियो बनाने पर उनके पूरे समाज को शोहदा करार दिया जा सकता है? बिल्कुल नहीं। समाज और देश का संचालन सौहार्द्रपूर्ण सोच से होता है और इसे ही मुख्यधारा में जगह दी जानी चाहिए। जैसे किसी कुकर्मी पिता या भाई के रेपिस्ट होने से पूरे समाज को कटघरे में नहीं खड़ा कर सकते, वैसे ही किसी उपद्रवी की हरकत को पूरे समाज का सैन्यीकरण नहीं कहा जा सकता।

सवाल खड़े करता है अवॉर्ड वापसी गैंग का सक्रिय होना?
सीट के झगड़े को बीफ का विवाद करार देना और फिर अवॉर्ड वापसी गैंग का सक्रिय होना तमाम सवाल खड़े करता है। क्या यह एक युवक की दर्दनाक हत्या पर रोटियां सेंकने का प्रयास नहीं है? ऐसा हो सकता है कि इस तरह की प्रॉपेगैंडेबाजी से मुस्लिम समाज का एक तबका उनके साथ आ जाए, जो लोग इसे हिंदुओं की मानसिकता में बदलाव करार दे रहे हैं। लेकिन, इससे अविश्वास की खाई और बढ़ेगी, घटेगी नहीं।

मेरा पैतृक घर रायबरेली में है। गाजियाबाद से अक्सर ट्रेन में आते-जाते वक्त मुरादाबाद और बरेली में अचानक अधिक सवारियों के आने पर सीट को लेकर कई बार कहा-सुनी होने लगती है। ये दोनों शहर मिली-जुली आबादी के हैं और सीट को लेकर झगड़ने वालों में सभी तबकों के लोग होते हैं। साफ है कि यह सिर्फ सीट पाकर आरामयदायक सफर के लालच में होता है। कई बार दूसरे को हड़काने वाला मुस्लिम होता है तो कभी हिंदू और कभी एक ही समुदाय के लोग सीट को लेकर उलझे दिखते हैं। तो क्या ट्रेन में सीट के इस विवाद को हम मुस्लिमों के ‘आतंकी’ होने और हिंदुओं के ‘सैन्यीकरण’ से जोड़ सकते हैं?

सीट के झगड़े को बीफ से जोड़ने वाले माफी मांगेंगे?
दुखद है कि खुद को पत्रकार और बुद्धिजीवी कहलाने वाले कुछ बौद्धिक विलासी लोग इस जुगत में लगे हैं। इससे उनके एसी दफ्तरों के वातानुकूलन पर तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन सीट के झगड़े को बीफ का विवाद बताने से हजारों साल से बसीं बस्तियों में जरूर आग लग सकती है। मैं जुनैद के पिता की भावना को नमन करता हूं, जिन्होंने दुख की घड़ी में भी आगे बढ़कर कहा कि मेरे बेटे का कत्ल बीफ के चलते नहीं, बल्कि सीट के विवाद में हुआ। क्या सीट के झगड़े को बीफ से जोड़ने वाले लोग समाज से माफी मांगेंगे?

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)

नाम 'पंडित' था तो मार डाला, होते तो क्या करते?

श्रीनगर की जामिया मस्जिद के बाहर राज्य पुलिस के डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित को उन्मादी भीड़ ने सिर्फ इसलिए पीट-पीटकर मार डाला क्योंकि उनके नाम में ‘पंडित’ शब्द शामिल था। वह अपना नाम एम.ए. पंडित लिखते थे। मस्जिद के बाहर सुरक्षा में तैनात पंडित किसी से फोन पर बात कर रहे थे, इस पर उन्मादियों को संदेह हुआ कि वह रिकॉर्डिंग कर रहे हैं। उन पर हमला करने वाली भीड़ ने जब उनके नेमप्लेट पर पंडित लिखा देखा तो वह जानलेवा हो गई और अयूब को वहीं पीटकर मार डाला। ‘पंडित’ शब्द पढ़कर किसी का बेरहमी से कत्ल कर देना बताता है कि कश्मीर घाटी का अलगाववादी तबका किस कदर कट्टर इस्लामिक है। समझा जा सकता है कि जिन लोगों ने सिर्फ एक पंडित शब्द पर अपनी ही सुरक्षा में तैनात अधिकारी को बेदम कर दिया हो, उन्होंने कश्मीरी पंडितों का क्या हाल किया होगा।

यही वजह है कि आज भी देश भर में भटक रहे कश्मीरी पंडित अपने ऊपर हुए अत्याचारों को याद कर सिहर उठते हैं। यह घटना बताती है कि अलगाववादी और उनका अनुसरण करने वाले लोग कथित आजादी के नाम पर इस्लामी निजाम की स्थापना के लिए लड़ रहे हैं, जिसमें किसी कश्मीरी पंडित या सिख के लिए जगह नहीं होगी। यदि उनके नाम का कोई मिल भी जाए तो उसका कत्ल कर दिया जाएगा।

बीते साल हिज्बुल के खूंखार आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद खुद उसकी मां ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि उसके बेटे ने आजादी के लिए नहीं, बल्कि इस्लामी निजाम की स्थापना के लिए शहादत दी है। इसके अलावा गाहे-बगाहे इस्लामिक स्टेट के झंडे फहराए जाने और पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगना यह साबित करता है कि कश्मीर में अलगाववादी कौन सी आजादी चाहते हैं।

शब-ए-कद्र की रात हुआ इंसानियत का कत्ल
इंसानियत को रौंदने वाली यह घटना रमजान की 27वीं रात को हुई, जिसे शब-ए-कद्र की मुबारक रात कहा जाता है। इस मौके पर मस्जिदों के साथ खानकाहों और दरगाहों में नमाज व इबादत होती है। लोग अपने-अपने गुनाहों से तौबा करते हैं। माना जाता है कि इस दिन कुरान को आकार मिला था। लेकिन, मस्जिद से नमाज अता करने के बाद निकली उन्मादियों की ‘भीड़’ ने जिस तरह से अयूब का कत्ल कर दिया, वह यह बताने के लिए काफी है कि कश्मीर घाटी की मस्जिदों पर अलगाववादी किस तरह से पैठ बना चुके हैं और वहां से क्या संदेश देने की कोशिश की जा रही है।

कहां हैं गंगा-जमुनी तहजीब की वकालत करने वाले?
इस देश की साझा हिंदू-मुस्लिम संस्कृति को गंगा-जमुनी तहजीब कहने वाले अक्सर देश में सेक्युलरिज्म की बात करते हैं। लेकिन, इस घटना पर ऐसे लोगों की चुप्पी बताती है कि वे गंगा-जमुनी तहजीब के किस स्वरूप को लागू करना चाहते हैं। क्या वह ऐसा सेक्युलरिज्म चाहते हैं जिसमें अयूब के नाम के साथ पंडित जुड़ा हो तो उन्हें कुचलकर मार दिया जाए। उल्लेखनीय है कि पूरे देश की तरह जम्मू-कश्मीर की बड़ी मुस्लिम आबादी पीढ़ियों पहले हिंदू धर्म से ही मतांतरित हुई है।

लेकिन, इस विरासत पर गर्व करने वाले बहुत से ऐसे लोग हैं, जो अब भी अपने पूर्वजों के नाम से जुड़े हैं। अयूब पंडित भी उनमें से एक थे, तो मौजूदा मुस्लिम पहचान के साथ ही खुद को पूर्वजों के नाम से भी जोड़े हुए थे। लेकिन, इस्लामी निजाम की स्थापना का सपना देखने वाले उन्मादियों को भला यह कहां मंजूर था। उससे भी दु:खद है देश भर में सेक्युलरिज्म की वकालत करने वाले राजनीतिक दलों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की चुप्पी। यह चुप्पी उनके राजनीतिक हितों को साध सकती है, लेकिन सेक्युलरिज्म की कीमत पर ही ऐसा होगा।

कश्मीर की मस्जिदें क्यों बनीं अलगाववाद का केंद्र?
1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों और सिखों के खिलाफ हिंसा का ऐलान वहां की मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकरों से ही होता था। इस ऐलान के बाद उन्मादियों की ‘भीड़’ हजारों सालों से साथ रह रहे पड़ोसियों के कत्ल कर देती थी। महिलाओं के रेप करती थी। इन दिनों एक बार फिर यह दौर देखने को मिल रहा है। बीते कई सालों से हर साल ईद की नमाज के बाद ईदी के तौर पर उन्मादी उपद्रव मचाते हैं। ऐसे में राज्य सरकार को इसके लिए प्रयास करने चाहिए कि कश्मीर घाटी की मस्जिदें अलगाववादियों का केंद्र न बनें। वहां से शब-ए-कद्र की मुबारक रात पर शांति का संदेश ही निकले, न कि मस्जिद से निकल उन्मादी ‘भीड़’ फिर किसी अयूब पंडित को मौत के घाट उतार दे।

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)

मुस्लिम समाज में कब होगा आंबेडकर का जन्म?

तीन तलाक पर इन दिनों तीखी बहस चल रही है। टीवी ऐंकर और भाजपाई प्रवक्ता मौलवियों पर जोरदार हमले कर रहे हैं और साथ में बैठी पीड़िताएं अपना दर्द बयां कर रही हैं। इनके जवाब में मौलवियों और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी संस्थाओं से जुड़े लोगों के तर्क हैं- हिंदुओं में तलाक ज्यादा होते हैं, तीन तलाक न हो तो महिला ही मार दी जाए और यह शिगूफा इस्लाम के खिलाफ रचा गया है। पीड़ित महिलाओं को वे उठाकर लाया गया बता रहे हैं। ये और ऐसे तमाम तर्क बताते हैं कि वे भीतर से कितने कमजोर हैं और कैसे अपनी नाइंसाफियों के जवाब में दूसरे लोगों की गलत हरकतों का हवाला दे रहे हैं।

समस्या की जड़ यहीं है कि पैनल में बैठे कुछ लोग सीधे मौलवियों पर हमला बोल रहे हैं और जवाब में वे हिंदुओं में जारी कुरीतियों का हवाला दे रहे है। इस तरह मौलवी तीन तलाक के विरोध को मुस्लिम कौम के खिलाफ साजिश बताने की कोशिश में हैं। हकीकत यह है कि मनुष्य का स्वभाव है कि उसे यदि कोई दूसरा उसकी खामियां बताता है तो वह आमतौर पर उसे गलत ढंग से लेता है। उसे लगता है कि उनकी कौम और समाज को नीचा दिखाने या उपहास के लिए ऐसा किया जा रहा है। अब तक किसी भी समाज में जो बदलाव हुए हैं, आमतौर पर उनके भीतर से ही आवाज उठने पर हुए हैं। तीन तलाक पर मुस्लिम महिलाएं मुखर हुई हैं तो लगता है कि बदलाव होगा, लेकिन इसे मुकम्मल करने के लिए किसी आंबेडकर की जरूरत है। वरना बहस एक दूसरे पर कीचड़ उछालने से आगे नहीं बढ़ेगी और हालात जस के तस घुटन भरे रहेंगे।

आज के दौर में देखें तो मुस्लिम समाज की नुमाइंदगी और उनके हकों की रक्षा के नाम पर राजनीति करने वाले तमाम नेता दिखते हैं। असल में ये मुस्लिम नेता ही उनके भीतर सुधार की पहल कर सकते हैं। लेकिन, ये लोग मदरसों को फंडिंग, कब्रिस्तानों की चारदीवारी, लाउडस्पीकर और बीफ बैन जैसे मुद्दों से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। ऊपरी स्तर पर ऐसे मुस्लिम नेताओं को अभाव दिखता है, जो अंग्रेजी शिक्षा, सेक्युलरिजम और राष्ट्र के प्रति समर्पण में पहली कतार में आने की वकालत करते दिखें। इसकी बजाय वंदे मातरम का विरोध, सेना का विरोध, मोदी-योगी को गालियां और पीड़ित महिलाओं का अपमान किया जा रहा है। यदि ऐसा रहा तो सुधार की गुंजाइश नहीं है, बल्कि आने वाले दिनों में समाज का पिछड़ापन और बढ़ ही सकता है।

इतिहास से सीखें तो मिलेगी मदद
सर सैयद अहमद खां ने 1877 में ऑक्सफर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालयों की तर्ज पर अलीगढ़ में ऐंगलो ऑरियंटल कॉलेज की स्थापना की थी। यही बाद में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के तौर पर स्थापित हुआ। वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने मुस्लिमों के विकास के लिए अंग्रेजी की शिक्षा की वकालत की थी। हालांकि द्विराष्ट्र सिद्धांत की वकालत करने वाले भी वह पहले व्यक्ति थे, जिसके बारे में फिर बात करेंगे। लेकिन मुस्लिम समाज के लिए उनके प्रयासों का बड़े पैमाने पर असर उस वक्त दिखा था और आजादी से पूर्व भारत में मुस्लिमों की शिक्षा का औसत करीब-करीब हिंदुओं के समान ही था। लेकिन, आजादी के बाद मुस्लिम समाज इस स्थिति को बरकरार रखने में नाकामयाब रहा तो इसमें तत्कालीन सरकारों के अलावा उनके अपने नेतृत्व का बड़ा योगदान रहा। सैयद अहमद खां ने जिस दौर में मुस्लिमों की आधुनिक शिक्षा की वकालत की थी, तब हिंदू समाज में इस बारे में बहुत विचार नहीं था। लेकिन, आज मुस्लिम समाज में एक बड़ा तबका परंपरागत धार्मिक शिक्षा ही ले रहा है और यही उसके पिछड़ेपन की मूल वजह है। लेकिन, इसमें किसी भी तरह के सुधार की कोशिश को इस्लाम पर हमले की तरह पेश किया जाता है।

एक आंबेडकर चाहिए बदलाव के लिए
भीमराब आंबेडकर ने दलितों के उत्थान के लिए नारा दिया था, ‘लड़ो लड़ाई पढ़ने को, पढ़ो समाज बदलने को।’ आज दलितों में उत्थान की जो स्थिति दिखती है, उसमें सबसे बड़ा योगदान आंबेडकर का ही है। लेकिन, यह उत्थान ‘दलित खतरे में हैं’ के नारे या फिर परंपरागत कामों को जारी रखकर नहीं आया है। इस सुधार के लिए आंबेडकर ने दलितों की शिक्षा, महिलाओं के अधिकारों और समाज में बराबरी के स्थान की वकालत की थी। मुस्लिम समाज को आंबेडकर से सीखते हुए महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की पहल करनी चाहिए। इसके लिए उन्हें एक आंबेडकर की जरूरत है, जो उनके बीच से ही हो सकता है। फिलहाल तो इसकी कमी दिखती है। जितनी जल्दी मुस्लिम समाज में आंबेडकर उभरेंगे उतना ही अच्छा होगा। कोई भाजपाई प्रवक्ता, टीवी के ऐंकर, अखबारों के लेखक उनकी समस्या का समाधान नहीं कर सकते।

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)

सेक्युलरों को छोड़नी होगी मुस्लिम केंद्रित राजनीति?

5 राज्यों के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बहुमत हासिल कर लिया है। पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में भी वह कांग्रेस से आगे निकली है। खासतौर पर यूपी में बीजेपी का 300 सीटों के आंकड़े पर पहुंचना राजनीतिक विश्लेषकों को चौंकाने वाला है, लेकिन सेक्युलरिज्म के नाम पर लड़ने वाले दलों को यह सबक भी सिखाता है। पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हुए इस चुनाव में यूपी के मतदाताओं ने जिस तरह से बीजेपी के पक्ष में रुख किया है, उससे साबित होता है कि कांग्रेस-एसपी और बीएसपी का सेक्युलर बनाम सांप्रदायिक का मुद्दा नहीं चला। कह सकते हैं कि बीजेपी की जीत और अन्य लोगों की हार का रहस्य इसी में छिपा है।

2002 से आगे नहीं बढ़ सके विपक्षी दल
यदि हम कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की रणनीति देखें तो वह बार-बार सांप्रदायिक ताकतों को हराने और मुस्लिम मतदाताओं से साथ देने की अपील कर रहे थे। गुजरात दंगों के हवाले दिए जा रहे थे, लेकिन इन दलों को सोचना होगा कि घड़ी को रोक देने से वक्त नहीं थम जाता। 2002 से 2017 तक नरेंद्र मोदी और बीजेपी ने लंबा सफर तय किया है। यही वजह है कि वह राम मंदिर और धारा 370 जैसे मुद्दे को बहुत तूल नहीं देती है, इसके बाद भी उसे बड़ा समर्थन मिलता है। कह सकते हैं कि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को मिलने वाले समर्थन में हिंदुत्ववादियों के अलावा बड़ा हिस्सा उन लोगों का है, जो विकास की चाह रखते हैं। यानी पीएम नरेंद्र मोदी और बीजेपी ने अपनी विकास की छवि गढ़ने में सफलता पाई है, जबकि कांग्रेस, एसपी और बीएसपी 2002 से आगे नहीं बढ़े हैं।

उपेक्षित जातियों को दिखी बीजेपी में संभावना
बीजेपी ने विकास को मुद्दा बनाते हुए उन जातियों को साधने का काम किया है, जिन्हें एसपी, बीएसपी और कांग्रेस हाशिये पर रख रहे थे। कुम्हार, लुहार, बढ़ई, कुर्मी, मल्लाह, कोरी, स्वर्णकार और अन्य कम संख्याबल वाली जातियों को बीजेपी ने अपनी ओर लुभाने का काम किया है। इसकी वजह यह है कि ये सभी जातियां बीते 20 सालों से एसपी और बीएसपी में अपने वजूद को तलाश रही थीं। शायद यही वजह है कि इन जातियों ने केंद्र में ओबीसी का चेहरा बने पीएम मोदी और राज्य में केशव प्रसाद मौर्य में अपने लिए संभावनाएं देखीं।

नरेंद्र मोदी का टारगेट करने का हुआ नुकसान
यदि विपक्ष के नेता के तौर पर मुझे रणनीति बनानी हो तो मेरा फोकस अपनी पॉजिटिव कैंपेनिंग करने पर होगा। इससे उलट यूपी समेत देश भर में विपक्षी दल नरेंद्र मोदी को निशाना बनाते रहे हैं। आमतौर पर देखा गया है कि यदि किसी लोकप्रिय नेता पर विपक्षी हमला करते हैं तो उसकी लोकप्रियता में इजाफा हो जाता है। ऐसे में विपक्षी दलों को पीएम मोदी पर निशाना साधने की बजाय अपनी उपलब्धियों और अजेंडे का बखान करने पर ध्यान देना होगा।

अल्पसंख्यकवाद पड़ गया भारी
गैर-बीजेपी दल लंबे समय से मुस्लिम और जातिगत समीकरण को साधकर जीत का गणित बिठाती रही हैं। समाजवादी पार्टी मुस्लिम और यादव गठजोड़, बीएसपी मुस्लिम और दलित गठजोड़ के जरिए राजनीति करती रही हैं। लेकिन ऐसी राजनीति तभी सफल होती है, जब बहुसंख्यक समाज के बड़े तबके का समर्थन हो। जमीनी हकीकत यह है कि कांग्रेस और एसपी के प्रति बहुसंख्यक समाज में यह संदेश गया है कि ये दल अल्पसंख्यकवाद की राजनीति करते हैं। वहीं, मायावती की बीएसपी भी इसी तरह की राजनीति के चलते अपने कोर वोट बैंक को भी जोड़ने में असफल रही है। कह सकते हैं कि आने वाले वक्त में इन दलों को अपनी अल्पसंख्यकवादी छवि को तोड़ने के लिए काम करना होगा।

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)

इंसानियत से परे यह कैसी कश्मीरियत!

भारत की आजादी के 70 साल होने को हैं। बंटवारे के समय उत्पीड़न के चलते पश्चिमी पाकिस्तान से भागकर जम्मू-कश्मीर आए शरणार्थियों को आज भी अपने अस्तित्व की तलाश है। मौजूदा बीजेपी-पीडीपी सरकार ने उन्हें मामूली राहत देते हुए आवास प्रमाण पत्र जारी करने का फैसला लिया है ताकि वे केंद्रीय संस्थानों और अर्ध सैनिक बलों में नौकरियों के लिए आवेदन कर सकें। ध्यान रहे कि अब भी उनका स्टेटस नहीं बदलेगा और वह प्रदेश विधानसभा के चुनाव में मतदान नहीं कर सकेंगे। सूबे के विभागों में निकलने वाली नौकरियों के भी वे हकदार नहीं होंगे। इन 19 हजार 960 परिवारों के करीब 85 हजार लोगों के पास आम चुनाव में मतदान का अधिकार है, लेकिन जम्मू-कश्मीर का संविधान विधानसभा चुनाव में उन्हें वोट डालने की अनुमति नहीं देता। विधानसभा और निकाय चुनावों में वही व्यक्ति मतदाता हो सकता है, जो वहां का मूल निवासी हो।

इन 85 हजार लोगों को सिर्फ केंद्र की नौकरियों के आवेदन के लायक दर्जा देने पर जम्मू-कश्मीर की घाटी में कोहराम मचा है। कश्मीरियत और इंसानियत की दुहाई देने वाले कट्टरपंथी इन बेसहारा लोगों को मामूली सहारा दिए जाने के विरोध में सूबे में आग लगाने को तैयार हैं। घाटी बंद का ऐलान किया जा रहे है और कहा जा रहा है कि इससे प्रदेश का जनसंख्या संतुलन बिगड़ जाएगा। इसके उलट इन अलगाववादियों ने हजारों विदेशी मुस्लिम शरणार्थियों को घाटी में पनाह दे रखी है। निश्चित तौर पर यह इंसानियत भी है, लेकिन क्या यह सिर्फ इस्लाम को मानने वालों के लिए ही जगती है। आखिर, जो हमदर्दी सुदूर बर्मा से आए मुस्लिमों के लिए है, वही बेसहारा पश्चिम पाक से आए शरणार्थियों के लिए क्यों नहीं दिखती।

हुर्रियत कॉन्फ्रेंस और नैशनल कॉन्फ्रेंस ने इस मुद्दे पर बवाल काटना शुरू कर दिया है। लेकिन, आज तक रोहिंग्या मुस्लिमों की घाटी में मौजूदगी को लेकर एक पत्थर तक नहीं उछला। क्या कश्मीरियत सिर्फ मुस्लिमों से हमदर्दी सिखाती है और हिंदुओं से दुश्मनी? अलगाववादियों के सुर में सुर मिला रहे अब्दुल्ला परिवार को भी इन सवालों के जवाब देने होंगे। यदि कश्मीरियत के नाम पर यूं ही शरणार्थियों और बाशिदों के समुदायों को देखकर ही नीतियां बनेंगी तो फिर प्रदेश की समस्याएं हल नहीं होंगी।

अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीर की नीति के तहत इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत का त्रिसूत्रीय फॉर्म्युला दिया था। 70 साल में पहली बार प्रदेश की सरकार ने इस नीति के पहले फॉर्म्युले, इंसानियत के तहत इन शरणार्थियों को एक पहचान देने का प्रयास किया है। यदि अलगाववादी और अब्दुल्ला परिवार इसी तरह इंसानियत का विरोध करते रहे तो प्रदेश में सांप्रदायिक उन्माद तो फैल सकता है, लेकिन जम्हूरियत और कश्मीरियत पर कभी बात नहीं हो सकेगी।

शरणार्थियों में 80 फीसदी दलित
पश्चिमी पाकिस्तान से आए इन शरणार्थियों में करीब 80 फीसदी संख्या दलित समुदाय के लोगों की है। लेकिन, आज भी भारत जैसे आजाद मुल्क में ये लोग गुलामों की जिंदगी जी रहे हैं। पूरे देश में आपसी रंजिश और अन्य व्यक्तिगत मुद्दों पर झगड़ों में दलित ऐंगल की तलाश करने वाले नेता आखिर यहां क्यों मौन साधे हैं। गुजरात के ऊना में दलितों का उत्पीड़न निश्चित तौर पर चिंता की बात है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में उन्हें गुलाम बनाकर रखना कैसे सहन किया जा सकता है।

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)

'गांधी मार्ग' के सच्चे पथिक का चले जाना

विकास क्या है? उन्होंने बातचीत के दौरान जब यह सवाल पूछा तो मैंने औपचारिक शिक्षा से लेकर समाज और मीडिया से विकास के बारे में जो समझा था, वह उड़ेल दिया। सब गलत साबित हुआ और विकास की जो अवधारणा उन्होंने बताई, मुझे वही सही जान पड़ी और आज भी ऐसा ही लगता है। वह शख्स कोई और नहीं, तालाबों वाले अनुपम मिश्र थे। सोमवार को जब उनके देहांत की खबर सुनी तो अवाक रह गया। तमाम पर्यावरण प्रेमियों और गांधी के सिद्धांतों में आस्था रखने वाले लोगों के लिए यह अपने ही किसी हिस्से के टूट कर गिर जाने जैसा है। गांधी शांति प्रतिष्ठान से कुछ प्लॉट छोड़कर प्रवासी भवन नाम की इमारत है। 2012 की गर्मियों की बात है, मैं वहीं जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र के दफ्तर में बैठता था। इसी बीच मेरा नया शौक हो गया था, दोपहर में अनुपम जी के पास जाकर बैठना। एक करीबी मित्र ने उनसे एक बार मिलवाया था, उनसे मिलने के लिए अपॉइंटमेंट की जरूरत नहीं थी। बस उनके पास वक्त हो और आपको मिल ही जाएगा। हर पर्यावरणप्रेमी शख्स को वह अपने से लगते थे।

उनसे मिलने से पहले ही उनकी अनुपम कृति ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पढ़ चुका था। लेकिन, जब उनसे मिला तो पता चला कि इस पुस्तक को लिखने वाले सिर्फ लिक्खाड़ नहीं है, उनकी जिंदगी ही तालाबों को बचाने में रिसी है। बात-बात में मैंने बताया कि उनकी पुस्तक मैंने पढ़ी है और मुलाकात की इच्छा हुई तो आ गया। कुछ देर की बातचीत के बाद उन्होंने मुझे अपनी एक नई कृति ‘ना जा स्वामी परदेसा’ दी, जो उत्तराखंड की पृष्ठभूमि पर है। चलते हुए मैंने उनसे मोबाइल नंबर की मांग की तो पता चला वह इस उपकरण का इस्तेमाल ही नहीं करते। कहा, ‘मोबाइल नहीं रखता, जहां बैठे हैं आप, यही मेरा पता है। जब इच्छा हो आ जाना।’ गांधी शांति प्रतिष्ठान ही उनका आवास था।



‘गांधी मार्ग’ के सच्चे पथिक
यूं तो वह ‘गांधी मार्ग’ के संपादक थे, लेकिन सही मायनों में वह गांधी की राह के सच्चे पथिक थे। गांधी जी के हिंद स्वराज और अनुपम जी की जीवनशैली में बहुत समानताएं थीं। उन्होंने वातानुकूलित कमरों में बैठकर ओजोन की परत में छेद को लेकर चिंताएं जाहिर नहीं कीं। वे झोला उठाकर सुदूर इलाकों में बदलाव के लिए निकले और दिल्ली में भी विकास का सही अर्थ समझाते रहे। चाहे आसमान से बरसा पानी हो या जमीन से निकला जल, उसे बचाए रखने की हमेशा सीख देते रहे। कहते थे- रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। यह सूक्ति भी पानी की कमी के अनुभव से ही निकली होगी।

विकास के ‘अनुपम’ मायने
विकास के बारे में कहते थे, ‘यह एक ऐसी बारात है, जो अपने पीछे सिर्फ कूड़े का ढेर, गरीबी, असमानता और मलिन बस्तियां छोड़ रही है।’प्रकृति के संरक्षण के बिना विकास को वह बेमानी और अस्थायी मानते थे। यह सिर्फ उनकी राय नहीं थी, बल्कि जैसा वह कहते थे, वैसा ही जीवन उन्होंने जिया। लोग कहते हैं कथनी और करनी एक जैसी होनी चाहिए, लेकिन मैं मानता हूं कि उनकी करनी, उनकी कथनी से कहीं आगे थी। उन्होंने अपनी बात बाद में कही, पहले कर दिखाया।

सेल्फ मार्केटिंग से कोसों दूर
टीवी स्क्रीन पर छाने और अखबारों की सुर्खियों में आने की लालसा उनसे कोसों दूर थी। सेल्फ मार्केटिंग के इस दौर में क्या खोया और क्या पाया, इसकी परवाह किए बिना इस तरह से अपने मिशन और विजन के प्रति समर्पित रहना, कोई अनुपम ही कर सकता है।

विनम्र श्रद्धांजलि…

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)

इससे अच्छा तो दलित ईसाई 'घर वापसी' कर लें

‘दलित ईसाइयों को बड़े पैमाने पर छुआछूत और भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। देश भर के कैथलिक चर्च में 5,000 से ज्यादा बिशप हैं, लेकिन इनमें दलित ईसाइयों की संख्या महज 12 है।’ यह किसी दक्षिणपंथी नेता का दावा नहीं है, बल्कि भारत के कैथलिक चर्च की स्वीकारोक्ति है। इतिहास में पहली बार इंडियन कैथलिक चर्च ने यह स्वीकार किया है कि जिस छुआछूत और जातिभेद के दंश से बचने को दलितों ने हिंदू धर्म को त्यागा था, वे आज भी उसके शिकार हैं। वह भी उस धर्म में जहां कथित तौर पर उनको वैश्विक ईसाईयत में समानता के दर्जे और सम्मान के वादे के साथ शामिल कराया गया था।

देश में कैथलिक चर्च के कुल 1.9 करोड़ सदस्य हैं, इनमें से 1.2 करोड़ दलित ईसाई यानी हिंदू धर्म से बरगलाकर लाए गए लोग हैं। कैथलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया द्वारा ‘पॉलिसी ऑफ दलित इम्पावरन्मेंट इन द कैथलिक चर्च इन इंडिया’ नाम से प्रकाशित 44 पेज की रिपोर्ट के मुताबिक, ‘चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है। इसे जल्द से जल्द खत्म किए जाने की जरूरत है।’ यह रिपोर्ट शायद उन लोगों की आंखें खोल सके, जो ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण को न देखने के लिए ‘गांधारी’ बने बैठे हैं। वामपंथी और कुछ दलित चिंतक अक्सर कहते हैं कि जो हिंदुत्व दलितों को बराबरी नहीं दे सकता, उससे निकल जाना ही बेहतर है। इस रिपोर्ट के बहाने उन्हें यह बताना चाहिए कि आखिर वे हिंदुत्व से निकलकर भी दलदल में क्यों हैं?

अक्सर ऐसे बुद्धिजीवी दो अलग-अलग शब्दों, दलित और हिंदू, का इस्तेमाल करते हैं। इसके लिए उनका तर्क है कि हिंदू तो सिर्फ सवर्ण हैं और दलितों को अधिकार ही नहीं तो हिंदू कैसे? अब वे बताएंगे क्या कि ईसाई तो कुछ गिने-चुने बिशप हैं, और दलित तो दलित ही हैं। कैथलिक चर्च की रिपोर्ट में कहा गया है कि दलितों के साथ अन्याय हो रहा है और चर्च के भी तरह बदलाव की जरूरत है ताकि उन्हें पर्याप्त अधिकार दिए जा सकें। आजादी के 70 साल बीत गए और धर्मांतरण उससे पहले से भी जारी है, आखिर अब तक दलितों को ईसाईयत के हक क्यों न मिल सके। यदि उन्हें ईसाई धर्म में भी छुआछूत और भेदभाव के साथ ही जीना है तो फिर हिंदू धर्म में ‘घर वापसी’ करने का विकल्प कहां गलत है? यहां कम से कम उन्हें आरक्षण तो मिलेगा।

चर्च की नीयत में खोट और नेताओं को चाहिए सिर्फ वोट
इसी रिपोर्ट में कैथलिक चर्च ने दोहराया है कि हम लंबे समय से दलित ईसाइयों को आरक्षण दिलाने के लिए लड़ रहे हैं और यह उन्हें मिलना ही चाहिए। रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट की ओर से दलित ईसाइयों को आरक्षण दिए जाने की मांग को खारिज किए जाने की भी आलोचना की गई है। वामपंथी चिंतक और चर्च के पैरोकार कहते हैं कि ईसाई मिशनरी का उद्देश्य सिर्फ सेवा करना है। यदि ऐसा है, तो मिशनरी और चर्च उन्हें ईसाई धर्म में भेदभाव और छुआछूत के साथ गुलाम क्यों बनाए हुए हैं? उन्हें हिंदू धर्म में वापसी के लिए प्रेरित क्यों नहीं करते, जहां उन्हें आरक्षण मिल सके और स्वधर्म में बराबरी का हक भी। आखिर ईसाई के तौर पर ही उन्हें दलित बनाए रखने की जिद क्यों? क्या किसी चिंतक के पास है इसका जवाब? राजनीतिक दलों से इस बारे में कुछ उम्मीद करना बेमानी होगा, जिन्हें सिर्फ दलितों का वोट चाहिए। भले ही नवबौद्ध बनकर दें, दलित ईसाई के तौर पर दें या फिर इस्लाम की निचली कड़ी से जुड़कर।


धर्मांतरण अब भी जारी है, अब किसकी बारी है?
देश का मीडिया और नीति-निर्माण के पदों पर दशकों से बैठे रहे वामपंथी चिंतक ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्मांतरण किए जाने की हकीकत को नकारते रहे हैं। लेकिन, इस धर्मांतरण और धर्मांतरण से राष्ट्रांतरण के स्मारक आपको गांवों से लेकर शहरों तक में देखने को मिल जाएंगे। एक उदाहरण मैं दे रहा हूं, जब चाहे देख लीजिएगा। दिल्ली से लखनऊ को जोड़ने वाले नैशनल हाईवे-24 के पास गाजियाबाद के विजय नगर इलाके में कुछ वर्ष पूर्व तक कृष्णा नगर नाम की एक बस्ती थी। आज इसे क्रिश्चियन नगर बागू के नाम से जाना जाता है। बस्ती आज भी दलितों की ही कहलाती है, लेकिन अब यहां हिंदू नहीं रहते बल्कि मिशनरी की फसल लहलहाती है। मिशनरी में काम करने वाले लोग खुद इनके बीच नहीं रहते। पॉश कॉलोनियों से सुबह इन्हें बरगलाने आते हैं और शाम तक स्कूल और चर्च में कथित सेवा करते हैं और लौट जाते हैं। कृष्णा नगर बागू से क्रिश्चियन नगर बने इस इलाके के दलित अब भी दलित ही हैं, उनकी हालत नहीं बदली है। लेकिन मिशनरी के लोगों ने इनके दिलोदिमाग में हिंदू समाज और भारत के प्रति पहले की अपेक्षा नफरत का भाव जरूर पैदा कर दिया है।

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)