Sunday, July 2, 2017

इंसानियत से परे यह कैसी कश्मीरियत!

भारत की आजादी के 70 साल होने को हैं। बंटवारे के समय उत्पीड़न के चलते पश्चिमी पाकिस्तान से भागकर जम्मू-कश्मीर आए शरणार्थियों को आज भी अपने अस्तित्व की तलाश है। मौजूदा बीजेपी-पीडीपी सरकार ने उन्हें मामूली राहत देते हुए आवास प्रमाण पत्र जारी करने का फैसला लिया है ताकि वे केंद्रीय संस्थानों और अर्ध सैनिक बलों में नौकरियों के लिए आवेदन कर सकें। ध्यान रहे कि अब भी उनका स्टेटस नहीं बदलेगा और वह प्रदेश विधानसभा के चुनाव में मतदान नहीं कर सकेंगे। सूबे के विभागों में निकलने वाली नौकरियों के भी वे हकदार नहीं होंगे। इन 19 हजार 960 परिवारों के करीब 85 हजार लोगों के पास आम चुनाव में मतदान का अधिकार है, लेकिन जम्मू-कश्मीर का संविधान विधानसभा चुनाव में उन्हें वोट डालने की अनुमति नहीं देता। विधानसभा और निकाय चुनावों में वही व्यक्ति मतदाता हो सकता है, जो वहां का मूल निवासी हो।

इन 85 हजार लोगों को सिर्फ केंद्र की नौकरियों के आवेदन के लायक दर्जा देने पर जम्मू-कश्मीर की घाटी में कोहराम मचा है। कश्मीरियत और इंसानियत की दुहाई देने वाले कट्टरपंथी इन बेसहारा लोगों को मामूली सहारा दिए जाने के विरोध में सूबे में आग लगाने को तैयार हैं। घाटी बंद का ऐलान किया जा रहे है और कहा जा रहा है कि इससे प्रदेश का जनसंख्या संतुलन बिगड़ जाएगा। इसके उलट इन अलगाववादियों ने हजारों विदेशी मुस्लिम शरणार्थियों को घाटी में पनाह दे रखी है। निश्चित तौर पर यह इंसानियत भी है, लेकिन क्या यह सिर्फ इस्लाम को मानने वालों के लिए ही जगती है। आखिर, जो हमदर्दी सुदूर बर्मा से आए मुस्लिमों के लिए है, वही बेसहारा पश्चिम पाक से आए शरणार्थियों के लिए क्यों नहीं दिखती।

हुर्रियत कॉन्फ्रेंस और नैशनल कॉन्फ्रेंस ने इस मुद्दे पर बवाल काटना शुरू कर दिया है। लेकिन, आज तक रोहिंग्या मुस्लिमों की घाटी में मौजूदगी को लेकर एक पत्थर तक नहीं उछला। क्या कश्मीरियत सिर्फ मुस्लिमों से हमदर्दी सिखाती है और हिंदुओं से दुश्मनी? अलगाववादियों के सुर में सुर मिला रहे अब्दुल्ला परिवार को भी इन सवालों के जवाब देने होंगे। यदि कश्मीरियत के नाम पर यूं ही शरणार्थियों और बाशिदों के समुदायों को देखकर ही नीतियां बनेंगी तो फिर प्रदेश की समस्याएं हल नहीं होंगी।

अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीर की नीति के तहत इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत का त्रिसूत्रीय फॉर्म्युला दिया था। 70 साल में पहली बार प्रदेश की सरकार ने इस नीति के पहले फॉर्म्युले, इंसानियत के तहत इन शरणार्थियों को एक पहचान देने का प्रयास किया है। यदि अलगाववादी और अब्दुल्ला परिवार इसी तरह इंसानियत का विरोध करते रहे तो प्रदेश में सांप्रदायिक उन्माद तो फैल सकता है, लेकिन जम्हूरियत और कश्मीरियत पर कभी बात नहीं हो सकेगी।

शरणार्थियों में 80 फीसदी दलित
पश्चिमी पाकिस्तान से आए इन शरणार्थियों में करीब 80 फीसदी संख्या दलित समुदाय के लोगों की है। लेकिन, आज भी भारत जैसे आजाद मुल्क में ये लोग गुलामों की जिंदगी जी रहे हैं। पूरे देश में आपसी रंजिश और अन्य व्यक्तिगत मुद्दों पर झगड़ों में दलित ऐंगल की तलाश करने वाले नेता आखिर यहां क्यों मौन साधे हैं। गुजरात के ऊना में दलितों का उत्पीड़न निश्चित तौर पर चिंता की बात है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में उन्हें गुलाम बनाकर रखना कैसे सहन किया जा सकता है।

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)

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