Sunday, July 2, 2017

'गांधी मार्ग' के सच्चे पथिक का चले जाना

विकास क्या है? उन्होंने बातचीत के दौरान जब यह सवाल पूछा तो मैंने औपचारिक शिक्षा से लेकर समाज और मीडिया से विकास के बारे में जो समझा था, वह उड़ेल दिया। सब गलत साबित हुआ और विकास की जो अवधारणा उन्होंने बताई, मुझे वही सही जान पड़ी और आज भी ऐसा ही लगता है। वह शख्स कोई और नहीं, तालाबों वाले अनुपम मिश्र थे। सोमवार को जब उनके देहांत की खबर सुनी तो अवाक रह गया। तमाम पर्यावरण प्रेमियों और गांधी के सिद्धांतों में आस्था रखने वाले लोगों के लिए यह अपने ही किसी हिस्से के टूट कर गिर जाने जैसा है। गांधी शांति प्रतिष्ठान से कुछ प्लॉट छोड़कर प्रवासी भवन नाम की इमारत है। 2012 की गर्मियों की बात है, मैं वहीं जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र के दफ्तर में बैठता था। इसी बीच मेरा नया शौक हो गया था, दोपहर में अनुपम जी के पास जाकर बैठना। एक करीबी मित्र ने उनसे एक बार मिलवाया था, उनसे मिलने के लिए अपॉइंटमेंट की जरूरत नहीं थी। बस उनके पास वक्त हो और आपको मिल ही जाएगा। हर पर्यावरणप्रेमी शख्स को वह अपने से लगते थे।

उनसे मिलने से पहले ही उनकी अनुपम कृति ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पढ़ चुका था। लेकिन, जब उनसे मिला तो पता चला कि इस पुस्तक को लिखने वाले सिर्फ लिक्खाड़ नहीं है, उनकी जिंदगी ही तालाबों को बचाने में रिसी है। बात-बात में मैंने बताया कि उनकी पुस्तक मैंने पढ़ी है और मुलाकात की इच्छा हुई तो आ गया। कुछ देर की बातचीत के बाद उन्होंने मुझे अपनी एक नई कृति ‘ना जा स्वामी परदेसा’ दी, जो उत्तराखंड की पृष्ठभूमि पर है। चलते हुए मैंने उनसे मोबाइल नंबर की मांग की तो पता चला वह इस उपकरण का इस्तेमाल ही नहीं करते। कहा, ‘मोबाइल नहीं रखता, जहां बैठे हैं आप, यही मेरा पता है। जब इच्छा हो आ जाना।’ गांधी शांति प्रतिष्ठान ही उनका आवास था।



‘गांधी मार्ग’ के सच्चे पथिक
यूं तो वह ‘गांधी मार्ग’ के संपादक थे, लेकिन सही मायनों में वह गांधी की राह के सच्चे पथिक थे। गांधी जी के हिंद स्वराज और अनुपम जी की जीवनशैली में बहुत समानताएं थीं। उन्होंने वातानुकूलित कमरों में बैठकर ओजोन की परत में छेद को लेकर चिंताएं जाहिर नहीं कीं। वे झोला उठाकर सुदूर इलाकों में बदलाव के लिए निकले और दिल्ली में भी विकास का सही अर्थ समझाते रहे। चाहे आसमान से बरसा पानी हो या जमीन से निकला जल, उसे बचाए रखने की हमेशा सीख देते रहे। कहते थे- रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। यह सूक्ति भी पानी की कमी के अनुभव से ही निकली होगी।

विकास के ‘अनुपम’ मायने
विकास के बारे में कहते थे, ‘यह एक ऐसी बारात है, जो अपने पीछे सिर्फ कूड़े का ढेर, गरीबी, असमानता और मलिन बस्तियां छोड़ रही है।’प्रकृति के संरक्षण के बिना विकास को वह बेमानी और अस्थायी मानते थे। यह सिर्फ उनकी राय नहीं थी, बल्कि जैसा वह कहते थे, वैसा ही जीवन उन्होंने जिया। लोग कहते हैं कथनी और करनी एक जैसी होनी चाहिए, लेकिन मैं मानता हूं कि उनकी करनी, उनकी कथनी से कहीं आगे थी। उन्होंने अपनी बात बाद में कही, पहले कर दिखाया।

सेल्फ मार्केटिंग से कोसों दूर
टीवी स्क्रीन पर छाने और अखबारों की सुर्खियों में आने की लालसा उनसे कोसों दूर थी। सेल्फ मार्केटिंग के इस दौर में क्या खोया और क्या पाया, इसकी परवाह किए बिना इस तरह से अपने मिशन और विजन के प्रति समर्पित रहना, कोई अनुपम ही कर सकता है।

विनम्र श्रद्धांजलि…

(नवभारत टाइम्स डॉट कॉम में प्रकाशित ब्लॉग)

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